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33 ॥ श्रीहरि: ।। श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत
महाभारत (द्वितीय खण्ड)
[वनपर्व और विराटपर्व] [सचित्र, सरल हिंदी-अनुवादसहित]
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्व सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव ।।
अनुवादक --
--+-न साहित्याचार्य पणिडत रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' )--
सं० २०७२ पंद्रहवाँ पुनर्मुद्रण ३,२०० कुल मुद्रण... ७७,६००
प्रकाशक--
गीताप्रेस, गोरखपुर--२७३००५
(गोबिन्दभवन-कार्यालय, कोलकाता का संस्थान)
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॥ श्रीहरि: ।।
विषय-सूर्च
(अरण्यपर्व)
अध्याय विषय
करनेपर उनमेंसे बहुतोंका लौटना तथा पाण्डवोंका प्रमाणकोटितीर्थमें रात्रिवास
२- धनके दोष, अतिथि-सत्कारकी महत्ता तथा कल्याणके उपायोंके विषयमें धर्मराज युधिष्ठिरसे ब्राह्मणों तथा शौनकजीकी बातचीत
3- युधिष्ठटिरके द्वारा अन्नके लिये भगवान सूर्यकी उपासना और उनसे अक्षयपात्रकी प्राप्ति
४- विदुरजीका धृतराष्ट्रको हितकी सलाह देना और धृतराष्ट्रका रुष्ट होकर महलमें चला जाना
५- पाण्डवोंका काम्यकवनमें प्रवेश और विदुरजीका वहाँ जाकर उनसे मिलना और बातचीत करना
६- धृतराष्ट्रका संजयको भेजकर विदुरको वनसे बुलवाना और उनसे क्षमा-प्रार्थना
७- दुर्योधन,_दुःशासन,_शकुनि और कर्णकी सलाह,_पाण्डवोंका वध करनेके लिये उनका वनमें जानेकी तैयारी तथा व्यासजीका आकर उनको रोकना
८- व्यासजीका धतराष्ट्रसे दुर्योधनके अन्यायको रोकनेके लिये अनुरोध
९- व्यासजीके द्वारा सुरभि और इन्द्रके उपाख्यानका वर्णन तथा उनका पाण्डवोंके
प्रति दया दिखलाना
१०- व्यासजीका जाना, _मैत्रेयजीका धृतराष्ट्र और दुर्योधनसे पाण्डवोंके प्रति सद्भावका अनुरोध तथा दुर्योधनके अशिष्ट व्यवहारसे रुष्ट होकर उसे शाप देना
(किर्मीरवधपर्व) ११- भीमसेनके द्वारा किर्मीरके वधकी कथा (अर्जुनाभिगमनपर्व)
१२- अर्जुन और द्रौपदीके द्वारा भगवान श्रीकृष्णकी स्तुति,_द्रौपदीका भगवान् श्रीकृष्णसे अपने प्रति किये गये अपमान और दुःखका वर्णन और भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं धृष्टघ्म्नका उसे आश्वासन देना
२४- पाण्डवोंका द्वैतवनमें जाना महर्षि मार्कण्डेयका पाण्डवोंको धर्मका आदेश _
आदरसे लाभ ख और अनादरसे हानि 3३- द्रौपदीका पुरुषार्थको प्र
ैष्ठिरके पूछनेपर बृहदश्चके
! और हंसका दमयन्ती और
व॑ नलका यज्ञानुष्ठान और
राजा नलकी चिन्ता और दमयन्तीको अकेली सोती छोड़कर उनका अन्यत्र
&3- दमयन्तीका विलाप तथा अजगर एवं व्याधसे उसके प्राण एवं सतीत्वकी र तथा दमयन्तीके पातिव्रत्यधर्मके प्रभावसे व्याधका विनाश यन्तीका विलाप और स्वियोंद्वारा दमयन्तीको आश्वासन तथा
हाथियोंद्वारा व्यापारियोंके दलका सर्वनाश तथा दुःखित दमयन्तीक
स्वागत. ७५- दमयन्तीके ३ आदे 4, ३ से सो सी ु 9 गीट़ा
७९- राजा नलके आख्यानके
निका महत्त्व, बृहदश्व॒ मुनिका युधिष्ठिककों आश्वासन देना तथा झूतविद्या और अः
र अश्वविद्याका रहस्य बताकर जाना
९०- धौम्यद्वारा उत्तर दिशाके तीर्थोंका वर्णन $३- महर्षि लोमशका आगमन और यु
आश्वासन देना के
अंशुमानसे दिलीपको और दिलीपसे भगीरथको राज्यकी १०८- भगीरथका हिमालयपर तपस्याद्वारा गंगा और महादेवजीको प्रस वर प्राप्त करना पृथ्वीपर गंगाजीके उतरने और समुद्रको
पुत्रकी चिन्ताका कारण पूछना ऋष्यशं ंगका पिताको अपनी चिन्ताका कारण बताते हुए ब्रह्मचारीरूप धारी
सहानुभूतिसूचक दुःखपूर्ण उदगार ्॒रीकृष्णके वचनोंका अनुमोदन
वज्को स्तम्भित करना और उसे
यज्ञमें भाग स्वीकार कर लेनेपर इन्द्रका संकटमुक्त होना तथा महत्त्वका वर्णन
होना तथा भीमसेनके स्मरण
गयतासे पाण्डवोंका गन्धमादन पर्वत एवं
सहटेवका हरण तथा
नकुल ॥ 90५ नननिीीो--
१५८- नर-नारायण-आश्रमसे वृषपर्वकि यहाँ होते हुए । जाना जाना
१७७- पाएज का गन्धमादनसे बदरिकाश्रम,_सुबाहुनगर और | हुए सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवनमें प्रवेश महाबली भीमसेनका हिंसक पशुओंको मारना दम अजगरद्वारा पकड़ा जाना और सप र्पर पधारी नहुषकी
(मार्केण्डेयसमास्यापर्व) | आदिका पुनः द्वैतवनसे काम्यकवनमें
| पाण्डवोंके पास भगवान _श्रीकष्ण,_मुनिवर मार्ण्कण्डेय तथा नारदजीका आगमन एवं युधिष्ठिरके पूछनेपर मार्कण्डेयजीके द्वारा कर्मफल
भोगका विवेचन...
338
युद्ध और कर्णकी पराजय की पराजय और
३५४८ शकुनिके समझानेपर भी दु्योधनको प्रायोप-वेशनसे विचलित होते न देखकर त्योंका कृत्याद्वारा उसे रसातलमें बुलाना | दानवोंका दुर्योधनकोी समझाना और कर्णके अनुरोध करनेपर दुर्योधनका अनशन
रपोधनके यज्ञका आरम्भ एवं समाप्ति
रस _कोप, सुग्रीवका सीताकी खोजमें वानरोंको भेजना तथा मानजीका लौटकर अपनी लंकायात्राका वृत्तान्त निवेः्
संतुष्ट करना
२९६- सावित्रीकी व्रतचर्या तथा सास-ससुर और पतिकी आज्ञा लेकर सत्यवान उसका वनमें जाना
२९७- सावित्री और यमका संवाद, _यमराजका संतुष्ट होक
३००- सूर्यका स्वप्रमें कर्णको द सचेत करना तथा कर्णका आग्रहपूर्वक
य और ब्राह्मणकी परिचर्य[| मी होकर तपस्वी ब्राह्मणका उस: के | मन्त्रका उपदेश देना
। ॥व
०0|0 |९ ढ़
३१२- पानी लानेके लिये गये हुए _नकुल आदि_चार भाइयोंका सरोवरके होकर गिरना
धौम्यका समझाना,_भीमसेनका उत्साह देना तथा आश्रमसे दूर जाकर पाण्डवोंका परस्पर परामर्शके लिये बैठन
३१६- वनपर्व-श्रवण-महिमा
विजयी _उत्तरका_नगरमें प्रवेश [र और क्षमा-प्रार्थना
90%
$- श्रीकृष्णके द्वारा द्रौपदीको आश्वासन
- द्रौपदी और भीमसेनका युधिष्ठटिरसे संवाद
अर्जुनकी तपस्या
४- अर्जुनका किरातवेषधारी भगवान शिवपर बाण चलाना ५- नलकी पहचानके लिये दमयन्तीकी लोक-पालोंसे प्रार्थना
६- सती दमयन्तीके तेजसे पापी व्याधका विनाश
८- देवताओंद्वारा वत्रासुरके वधके लिये दधीचिसे उनकी अस्थियोंकी याचना ९- देवराज इन्द्रका वज्के प्रहारसे वृत्रासुरका वध करना
०- महर्षि कपिलकी क्रोधाग्निसे सगरपुत्रोंका भस्म होना
महर्षि अगस्त्यका समुद्रपान
२- भगवान् परशुरामद्वारा सहखार्ज़ुनका वध
१४- राजा शिबिका कबूतरकी रक्षाके लिये बाजको अपने शरीरका मांस काटकर देना
१५- द्रौपदीका भीमसेनको सौगन्धिक पुष्प भेंट करके वैसे ही और पुष्प लानेका आग्रह
६- स्वर्गसे लौटकर अर्जुन धर्मराजको प्रणाम कर रहे हैं
वनमें पाण्डवोंसे श्रीकृष्ण-सत्यभामाका मिलना
- तपस्वीके वेशमें मण्डूकराजका राजाको आश्वासन
ययातिसे ब्राह्मणकी याचना
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- कौशिक ब्राह्मण और माता-पिताके भक्त धर्मव्याध - कार्तिकेयके द्वारा महिषासुरका वध
- द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद
अर्जुन-चित्रसेन-युद्ध
सीताजीका रावणको फटकारना
हनुमानजीकी श्रीसीताजीसे भेंट
यम-सावित्री
- कर्णको इन्द्रका शक्ति-दान
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युधिष्ठिर और बगुलारूपधारी यक्ष
विराटके यहाँ पाण्डव
विराटकी राजसभामें कीचकद्दारा सैरन्ध्रीका अपमान अर्जुनका शंखनाद
॥6०0 #0 | ॥/७ |९ ॥ ] ॥.. ॥॥
॥५० गए
॥ ३० श्रीपरमात्मने नम: ।।
श्रीमहाभारतम् वनपर्व
अरण्यपर्व
प्रथमो 5 ध्याय:
पाण्डवोंका वनगमन, पुरवासियोंद्वारा उनका अनुगमन और युधिष्ठिरके अनुरोध करनेपर उनमेंसे बहुतोंका लौटना तथा पाण्डवोका प्रमाणकोटितीर्थमें रात्रिवास
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् |
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
“अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्यसखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये।
जनमेजय उवाच
एवं द्यूतजिता: पार्था: कोपिताश्न दुरात्मभि: ।
धार्टराष्ट्रै: सहामात्यैर्निकृत्या द्विजसत्तम ।। १ ||
श्राविता: परुषा वाच: सृजद्धिर्वैरमुत्तमम् ।
किमकुर्वत कौरव्या मम पूर्वपितामहा: ।। २ ।।
जनमेजयने पूछा--विप्रवर! मन्त्रियोंसहित धृतराष्ट्रके दुरात्मा पुत्रोंने जब इस प्रकार कपट॒पूर्वक कुन्तीकुमारोंको जूएमें हगाकर कुपित कर दिया और घोर वैरकी नींव डालते हुए उन्हें अत्यन्त कठोर बातें सुनायीं, तब मेरे पूर्वपितामह युधिष्ठिर आदि कुरुवंशियोंने क्या किया? ।। १-२ ।।
कथं चैश्वर्यविभ्रष्टा: सहसा दुःखमेयुष: ।
वने विजद्रिरे पार्था: शक्रप्रतिमतेजस: ।। ३ ।।
तथा जो सहसा ऐश्वर्यसे वंचित हो जानेके कारण महान् दुःखमें पड़ गये थे, उन इन्द्रके तुल्य तेजस्वी पाण्डवोंने वनमें किस प्रकार विचरण किया? ।। ३ ।।
के वै तानन्ववर्तन्त प्राप्तान् व्यसनमुत्तमम् ।
किमाचारा: किमाहारा: क्व च वासो महात्मनाम् ।। ४ ।।
उस भारी संकटमें पड़े हुए पाण्डवोंके साथ वनमें कौन-कौन गये थे? वनमें वे किस आचार-व्यवहारसे रहते थे? क्या खाते थे? और उन महात्माओंका निवास-स्थान कहाँ था? ।। ४ ।।
कथं च द्वादश समा बने तेषां महामुने |
व्यतीयुत्रल्वमिणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम् ।। ५ ।।
महामुने! ब्राह्मणश्रेष्ठ! शत्रुओंका संहार करनेवाले उन शूरवीर महारथियोंके बारह वर्ष वनमें किस प्रकार बीते? ।। ५ ।।
कथं च राजपुत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम् ।
पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी ।। ६ ।।
वनवासमदु:खार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत |
एतदाचदक्ष्व मे सर्व विस्तरेण तपोधन ।। ७ ।॥।
तपोधन! संसारकी समस्त सुन्दरियोंमें श्रेष्ठ, पतिव्रता एवं सदा सत्य बोलनेवाली वह महाभागा राजकुमारी द्रौपदी, जो दुःख भोगनेके योग्य कदापि नहीं थी, वनवासके भयंकर कष्टको कैसे सह सकी? यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बतलाइये ।। ६-७ ।।
श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम् ।
कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे ।। ८ ।।
ब्रह्मन! मैं आपके द्वारा कहे जाते हुए महान् पराक्रम और तेजसे सम्पन्न पाण्डवोंके चरित्रको सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मनमें अत्यन्त कौतूहल हो रहा है ।। ८ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवं द्यूतजिता: पार्था: कोपिताश्च दुरात्मभि: |
धार्तराष्ट्रै: सहामात्यैर्निययुर्गजसाह्लयात् ।। ९ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--राजन्! इस प्रकार मन्त्रियोंसहित दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्रोंद्वारा जूएमें पराजित करके क़ुद्ध किये हुए कुन्तीकुमार हस्तिनापुरसे बाहर निकले ।। ९ ।।
वर्धमानपुरद्वारादभिनिष्क्रम्य पाण्डवा: ।
उदड्मुखा: शस्त्रभृत: प्रययु: सह कृष्णया ।। १० ।।
वर्धमानपुरकी दिशामें स्थित नगरद्वारसे निकलकर शणस्त्रधारी पाण्डवोंने द्रौपदीके साथ उत्तराभिमुख होकर यात्रा आरम्भ की ।। १० ।।
पडा
5 सी डा ४-५ को (.:25£. -श>: | गज 55% 2४ 82 सर्द (७ ] ॥ | > ॥:/- ९४ / | है >> हि ०४77२ तर | ँ न्ग्ब्यु हर कक । नए ० न छा कल ५ > ल् ध्य्य्जी ० | है! | शा नस / रे ४) ५ ९ ४0 ; पर ॥ मन । ४2
इन्द्रसेनादयश्ैव भृत्या: परि चतुर्दश ।
रथैरनुययु: शीघ्रै: स्त्रिय आदाय सर्वश: ।। ११ ।।
इन्द्रसेन आदि चौदहसे अधिक सेवक सारी स्त्रियोंको शीघ्रगामी रथोंपर बिठाकर उनके पीछे-पीछे चले ।। ११ ।।
गतानेतान् विदित्वा तु पौरा: शोकाभिपीडिता: ।
गर्हयन्तोडसकृद् भीष्मविदुरद्रोणगौतमान् ।। १२ ।।
ऊचुर्विगतसंत्रासा: समागम्य परस्परम् |
पाण्डव वनकी ओर गये हैं, यह जानकर हस्तिनापुरके निवासी शोकसे पीडित हो बिना किसी भयके भीष्म, विदुर, द्रोण और कृपाचार्यकी बारंबार निनन््दा करते हुए एक-दूसरेसे मिलकर इस प्रकार कहने लगे || १२६ ||
पौरा ऊचु.
नेदमस्ति कुलं सर्व न वयं न च नो गृहा: ।। १३ ।।
यत्र दुर्योधन: पाप: सौबलेनाभिपालित: ।
कर्णदु:शासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति ।। १४ ।।
पुरवासी बोले--अहो! हमारा यह समस्त कुल, हम तथा हमारे घर-द्वार अब सुरक्षित नहीं हैं; क्योंकि यहाँ पापात्मा दुर्योधन सुबलपुत्र शकुनिसे पालित हो कर्ण और दुःशासनकी सम्मतिसे इस राज्यका शासन करना चाहता है ।। १३-१४ ।।
न तत् कुलं न चाचारो न धर्मो<र्थ: कुतः सुखम् ।
यत्र पापसहायो<यं पापो राज्यं चिकीर्षति || १५ ।।
जहाँ पापियोंकी ही सहायतासे यह पापाचारी राज्य करना चाहता है वहाँ हमलोगोंके कुल, आचार, धर्म और अर्थ भी नहीं रह सकते, फिर सुख तो रह ही कैसे सकता है? ।। १५ ।।
दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जन: ।
अर्थलुब्धोडभिमानी च नीच: प्रकृतिनिर्घण: ।। १६ ।।
दुर्योधन गुरुजनोंसे द्वेष रखनेवाला है। उसने सदाचार और पाण्डवों-जैसे सुहृदोंको त्याग दिया है। वह अर्थलोलुप, अभिमानी, नीच और स्वभावतः ही निष्ठुर है ।। १६ ।।
नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृप: ।
साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवा: ।। १७ ।।
जहाँ दुर्योधन राजा है, वहाँकी यह सारी पृथ्वी नहींके बराबर है, अत: यही ठीक होगा कि हम सब लोग वहीं चलें जहाँ पाण्डव जा रहे हैं || १७ ।।
सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रव: ।
ह्वीमन्तः कीर्तिमन्तश्ष धर्माचारपरायणा: ।। १८ ॥।
पाण्डवगण दयालु, महात्मा, जितेन्द्रिय, शत्रुविजयी, लज्जाशील, यशस्वी, धर्मात्मा तथा सदाचारपरायण हैं ।। १८ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुकक््त्वानुजग्मुस्ते पाण्डवांस्तान् समेत्य च ।
ऊचुः प्राउज्जलय: सर्वे कौन्तेयान् माद्रिनन्दनान् ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--ऐसा कहकर वे पुरवासी पाण्डवोंके पास गये और उन कुन्तीकुमारों तथा माद्रीपुत्रोंस मिलकर वे सब-के-सब हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले -- || १९ ||
क्व गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान् दुःखभागिन: ।
वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ ।। २० ।।
'पाण्डवो! आपलोगोंका कल्याण हो। हम आपके वियोगसे बहुत दुःखी हैं। आपलोग हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हैं? आप जहाँ जायँगे वहीं हम भी आपके साथ चलेंगे || २० ।।
अधर्मेण जितान् श्र॒त्वा युष्मांस्त्यक्तघृणै: परै: ।
उद्विग्ना: स्मो भृशं सर्वे नास्मान् हातुमिहाहथ ।। २१ ।।
भक्तानुरक्तान् सुहृद: सदा प्रियहिते रतान् |
कुराजाधिषिते राज्ये न विनश्येम सर्वश: ।। २२ ।।
“निर्दयी शत्रुओंने आपको अधर्मपूर्वक जूएमें हराया है, यह सुनकर हम सब लोग अत्यन्त उद्विग्न हो उठे हैं। आपलोग हमारा त्याग न करें; क्योंकि हम आपके सेवक हैं, प्रेमी हैं, सुहृद् हैं और सदा आपके प्रिय एवं हितमें संलग्न रहनेवाले हैं। आपके बिना इस दुष्ट राजाके राज्यमें रहकर हम नष्ट होना नहीं चाहते || २१-२२ ।।
श्रूयतां चाभिधास्यामो गुणदोषान् नरर्षभा: |
शुभाशुभाधिवासेन संसर्ग: कुरुते यथा ।। २३ ।।
“नरश्रेष्ठ पाण्डवो! शुभ और अशुभ आश्रयमें रहनेपर वहाँका संसर्ग मनुष्यमें जैसे गुण- दोषोंकी सृष्टि करता है, उनका हम वर्णन करते हैं, सुनिये || २३ ।।
वस्त्रमापस्तिलान् भूमिं गन्धो वासयते यथा ।
पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणा: ।। २४ ।।
'जैसे फूलोंके संसर्गमें रहनेपर उनकी सुगन्ध वस्त्र, जल, तिल और भूमिको भी सुवासित कर देती है, उसी प्रकार संसर्गजनित गुण भी अपना प्रभाव डालते हैं || २४ ।।
मोहजालस्य योनिर्हि मूढेरेव समागम: ।
अहन्यहनि धर्मस्य योनि: साधुसमागम: || २५ |।
“मूढ मनुष्योंसे मिलना-जुलना मोहजालकी उत्पत्तिका कारण होता है। इसी प्रकार साधु-महात्माओंका रंग प्रतिदिन धर्मकी प्राप्ति करानेवाला है || २५ ।।
तस्मात् प्राजजैश्न वृद्धैश्न सुस्वभावैस्तपस्विभि: ।
सद्िश्व सह संसर्ग: कार्य: शमपरायणै: ।। २६ ।।
“इसलिये दिद्दवानों, वृद्ध पुरुषों तथा उत्तम स्वभाववाले शान्तिपरायण तपस्वी सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये || २६ ।।
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च ।
ते सेव्यास्तै: समास्या हि शास्त्रेभ्योडपि गरीयसी ।। २७ ।।
निरारम्भा हापि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु ।
पुण्यमेवाप्रुयामेह पापं पापोपसेवनात् ।। २८ ।।
“जिन पुरुषोंके विद्या, जाति और कर्म--ये तीनों उज्ज्वल हों, उनका सेवन करना चाहिये; क्योंकि उन महापुरुषोंके साथ बैठना शास्त्रोंके स्वाध्यायसे भी बढ़कर है। हमलोग अग्निहोत्र आदि शुभ कर्मोंका अनुष्ठान नहीं करते, तो भी पुण्यात्मा साधुपुरुषोंके समुदायमें रहनेसे हमें पुण्यकी ही प्राप्ति होगी। इसी प्रकार पापीजनोंके सेवनसे हम पापके ही भागी होंगे || २७-२८ ।।
असतां दर्शनात् स्पर्शात् संजल्पाच्च सहासनात् |
धर्माचारा: प्रहीयन्ते सिद्धयन्ति च न मानवा: || २९ |।
“दुष्ट मनुष्योंके दर्शन, स्पर्श, उनके साथ वार्तालाप अथवा उठने-बैठनेसे धार्मिक आचारोंकी हानि होती है। इसलिये वैसे मनुष्योंको कभी सिद्धि नहीं प्राप्त होती || २९ ।।
बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचै: सह समागमात् |
मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमै: ॥। ३० ।।
“नीच पुरुषोंका साथ करनेसे मनुष्योंकी बुद्धि नष्ट होती है। मध्यम श्रेणीके मनुष्योंका साथ करनेसे मध्यम होती है और उत्तम पुरुषोंका संग करनेसे उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होती है || ३० ।।
अनीचैनप्यविषयैर्नाधर्मिष्ठिविशेषत: ।
ये गुणा: कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसम्भवा: |
लोकाचारेषु सम्भूता वेदोक्ता: शिष्टसम्मता: || ३१ ।।
उत्तम, प्रसिद्ध एवं विशेषत: धर्मिष्ठ मनुष्योंने लोकमें धर्म, अर्थ और कामकी उत्पत्तिके हेतुभूत जो वेदोक्त गुण (साधन) बताये हैं वे ही लोकाचारमें प्रकट होते हैं--लोगोंद्वारा काममें लाये जाते हैं और शिष्ट पुरुष उन्हींका आदर करते हैं || ३१ ।।
ते युष्मासु समस्ताश्ष व्यस्ताश्वैवेह सदगुणा: । इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोडभिकाड्क्षिण: ।। ३२ ।।
“वे सभी सदगुण पृथक्ू-पृथक् और एक साथ आपलोगोंमें विद्यमान हैं, अतः हमलोग कल्याणकी इच्छासे आप-जैसे गुणवान् पुरुषोंके बीचमें रहना चाहते हैं! || ३२ ।। युधिछिर उवाच
धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययन्त्रिता: ।
असतोडपि गुणानाहु्ब्राह्मणप्रमुखा: प्रजा: ।। ३३ ।।
युधिष्ठिरने कहा--हमलोग धन्य हैं; क्योंकि ब्राह्मण आदि प्रजावर्गके लोग हमारे प्रति स्नेह और करुणाके पाशमें बँधकर जो गुण हमारे अंदर नहीं हैं, उन गुणोंको भी हममें बतला रहे हैं ।। ३३ ।।
तदहं भ्रातृसहित: सर्वान् विज्ञापयामि व: |
नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया ।। ३४ ।।
भाइयोंसहित मैं आप सब लोगोंसे कुछ निवेदन करता हूँ। आपलोग हमपर स्नेह और कृपा करके उसके पालनसे मुख न मोड़ें ।। ३४ ।।
भीष्म: पितामहो राजा विदुरो जननी च मे ।
सुहज्जनश्नच प्रायो मे नगरे नागसाह्लये ।। ३५ ।।
(आपलोगोंको मालूम होना चाहिये कि) हमारे पितामह भीष्म, राजा धृतराष्ट्र, विदुरजी, मेरी माता तथा प्राय: अन्य सगे-सम्बन्धी भी हस्तिनापुरमें ही हैं || ३५ ।।
ते त्वस्मद्धितकामार्थ पालनीया: प्रयत्नत: ।
युष्माभि: सहिता: सर्वे शोकसंतापविह्वला: ।। ३६ ।।
वे सब लोग आपलोगोंके साथ ही शोक और संतापसे व्याकुल हैं, अतः आपलोग हमारे हितकी इच्छा रखकर उन सबका यत्नपूर्वक पालन करें ।। ३६ ।।
निवर्ततागता दूरं समागमनशापिता: ।
स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मति: || ३७ ।।
अच्छा, अब लौट जाइये, आपलोग बहुत दूर चले आये हैं। मैं अपनी शपथ दिलाकर अनुरोध करता हूँ कि आपलोग मेरे साथ न चलें। मेरे स््व्जन आपके पास धरोहरके रूपमें हैं। उनके प्रति आपलोगोंके हृदयमें स्नेहभाव रहना चाहिये || ३७ ।।
एतद्धि मम कार्याणां परम॑ हृदि संस्थितम् ।
कृता तेन तु तुष्टिमें सत्कारश्न भविष्यति ।। ३८ ।।
मेरे हृदयमें स्थित सब कार्योमें यही कार्य सबसे उत्तम है, आपके द्वारा इसके किये जानेपर मुझे महान् संतोष प्राप्त होगा और इसीसे मेरा सत्कार भी हो जायगा ।। ३८ ।।
वैशम्पायन उवाच
तथानुमन्त्रितास्तेन धर्मराजेन ता: प्रजा: । चक्कुरार्तस्वरं घोरं हा राजन्निति संहता: ।। ३९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मराजके द्वारा इस प्रकार विनयपूर्वक अनुरोध किये जानेपर उन समस्त प्रजाओंने “हा! महाराज!” ऐसा कहकर एक ही साथ भयंकर आर्तनाद किया ।। ३९ |।
गुणान् पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ता: परमातुरा: ।
अकामा: संन्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान् ।। ४० ।।
कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके गुणोंका स्मरण करके प्रजावर्गके लोग दुःखसे पीडित और अत्यन्त आतुर हो गये। उनकी पाण्डवोंके साथ जानेकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी। वे केवल उनसे मिलकर लौट आये ।। ४० ।।
निवत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवा: |
आजममुर्जालह्नवीतीरे प्रमाणाख्यं महावटम् ।। ४१ ।।
पुरवासियोंके लौट जानेपर पाण्डवगण रथोंपर बैठकर गंगाजीके किनारे प्रमाणकोटि नामक महान् वटके समीप आये ।। ४१ ।।
ते तं दिवसशेषेण वर्टं गत्वा तु पाण्डवा: ।
ऊषुस्तां रजनीं वीरा: संस्पृश्य सलिलं शुचि || ४२ ।।
संध्या होते-होते उस वटके निकट पहुँचकर शूरवीर पाण्डवोंने पवित्र जलका स्पर्श (आचमन और संध्यावन्दन आदि) करके वह रात वहीं व्यतीत की ।। ४२ ।।
उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्षिता: ।
अनुजम्मुश्न तत्रैतान् स्नेहात् केचिद् द्विजातय: ।। ४३ ।।
दुःखसे पीड़ित हुए वे पाँचों पाण्डुकुमार उस रातमें केवल जल पीकर ही रह गये। कुछ ब्राह्मण-लोग भी इन पाण्डवोंके साथ स्नेहवश वहाँतक चले आये थे ।। ४३ ।।
साग्नयो5नग्नयश्वैव सशिष्यगणबान्धवा: ।
स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्म॒वादिभि: ।। ४४ ।।
उनमेंसे कुछ साग्नि (अग्निहोत्री) थे और कुछ निरग्नि। उन्होंने अपने शिष्यों तथा भाई- बन्धुओंको भी साथ ले लिया था। वेदोंका स्वाध्याय करनेवाले उन ब्राह्मणोंसे घिरे हुए राजा युधिष्ठिरकी बड़ी शोभा हो रही थी ।। ४४ ।।
तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहुर्ते रम्यदारुणे ।
ब्रह्मघोषपुरस्कार: संजल्प: समजायत ।। ४५ ।।
संध्याकालकी नैसर्गिक शोभासे रमणीय तथा राक्षस-पिशाचादिके संचरणका समय होनेसे अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाले उस मुहूर्तमें अग्नि प्रजजलित करके वेद-मन्त्रोंके घोषपूर्वक अग्निहोत्र करनेके बाद उन ब्राह्मणोंमें परस्पर संवाद होने लगा || ४५ ।।
राजानं तु कुरुश्रेष्ठ ते हंसमधुरस्वरा: ।
आश्वासयन्तो विप्राग्रया: क्षपां सर्वा व्यनोदयन् ।। ४६ ।।
हंसके समान मधुर स्वरमें बोलनेवाले उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुरुकुलरत्न राजा युधिष्ठिरको आश्वासन देते हुए सारी रात उनका मनोरंजन किया ।। ४६ ||
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पौरप्रत्यागमने प्रथमो5ध्याय: ।। १ ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें पुरवासियोंके लौटनेसे सम्बन्ध रखनेवाला पहला अध्याय पूरा हुआ ॥। १ ॥।
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द्वितीयो&्ध्याय:
धनके दोष, अतिथिसत्कारकी महत्ता तथा कल्याणके उपायोंके विषयमें धर्मराज युधिष्ठिरसे ब्राह्मणों तथा शौनकजीकी बातचीत
वैशम्पायन उवाच
प्रभातायां तु शर्वर्या तेषामक्लिष्टकर्मणाम् |
वन॑ यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजो5ग्रत: ।। १ ॥।
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन्! जब रात बीती और प्रभातका उदय हुआ तथा अनायास ही महान् पराक्रम करनेवाले पाण्डव वनकी ओर जानेके लिये उद्यत हुए, उस समय भिक्षान्नभोजी ब्राह्मण साथ चलनेके लिये उनके सामने खड़े हो गये ।। १ ।।
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: ।
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रिय: ।। २ ।।
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दु:ःखिता: ।
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसूपम् ।। ३ ।।
तब कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने उनसे कहा--“ब्राह्मणो! हमारा राज्य, लक्ष्मी और सर्वस्व जूएमें हरण कर लिया गया है। हम फल, मूल तथा अन्नके आहार-पर रहनेका निश्चय करके दुःखी होकर वनमें जा रहे हैं। वनमें बहुत-से दोष हैं। वहाँ सर्प-बिच्छू आदि असंख्य भयंकर जन्तु हैं ।। २-३ ।।
परिक्लेशश्व वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति ।
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत् ।
कि पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टत: ।। ४ ।।
“मैं समझता हूँ, वहाँ आपलोगोंको अवश्य ही महान् कष्टका सामना करना पड़ेगा। ब्राह्मणोंको दिया हुआ क्लेश तो देवताओंका भी विनाश कर सकता है, फिर मेरी तो बात ही क्या है? अतः ब्राह्मणो! आपलोग यहाँसे अपने अभीष्ट स्थानको लौट जाया ।। ४ ।।
ब्राह्मणा ऊचु
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यता: |
ना्हस्यस्मान् परित्यक्तुं भक्तान् सद्धर्मदर्शिन: ।। ५ ।॥।
ब्राह्मणोंने कहा--राजन्! आपकी जो गति होगी उसे भुगतनेके लिये हम भी उद्यत हैं। हम आपके भक्त तथा उत्तम धर्मपर दृष्टि रखनेवाले हैं। इसलिये आपको हमारा परित्याग नहीं करना चाहिये ।। ५ ।।
अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता हापि कुर्वते ।
विशेषतो ब्राह्म॒णेषु सदाचारावलम्बिषु ।। ६ ।।
देवता भी अपने भक्तोंपर विशेषत: सदाचारपरायण ब्राह्मणोंपर तो अवश्य ही दया करते हैं ।। ६ ।।
युधिछिर उवाच
ममापि परमा भक्तित्रह्मणेषु सदा द्विजा: ।
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम् ।। ७ ।।
आहरेयुरिमे येडषपि फलमूलमधूनि च ।
त इमे शोकजेैर्दु:खैर्भ्रातरो मे विमोहिता: ।। ८ ।।
युधिष्ठटिर बोले--विप्रगण! मेरे मनमें भी ब्राह्मणोंके प्रति उत्तम भक्ति है, किंतु यह सब प्रकारके सहायक साधनोंका अभाव ही मुझे दुःखमग्न-सा किये देता है। जो फल-मूल एवं शहद आदि आहार जुटाकर ला सकते थे वे ही ये मेरे भाई शोकजनित दुःखसे मोहित हो रहे हैं || ७-८ ।।
द्रौपद्या विप्रकर्षण राज्यापहरणेन च ।
दुःखार्दितानिमान् क्लेशैरनईहहं योक्तुमिहोत्सहे ।। ९ ।।
द्रौपदीके अपमान तथा राज्यके अपहरणके कारण ये दुःखसे पीडित हो रहे हैं, अतः मैं इन्हें (आहार जुटानेका आदेश देकर) अधिक क्लेशमें नहीं डालना चाहता ।। ९ ।।
ब्राह्मणा ऊचु
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत् ते हृदि पार्थिव ।
स्वयमाह्त्य चान्नानि त्वानुयास्यथामहे वयम् ।। १० ।।
ब्राह्मण बोले--पृथ्वीनाथ! आपके हृदयमें हमारे पालन-पोषणकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये। हम स्वयं ही अपने लिये अन्न आदिकी व्यवस्था करके आपके साथ चलेंगे || १० ।।
अनुध्यानेन जप्येन विधास्याम: शिवं तव ।
कथाभिश्चाभिरम्याभि: सह रंस्थामहे वयम् ।। ११ ।।
हम आपके अभीष्टचिन्तन और जपके द्वारा आपका कल्याण करेंगे तथा आपको सुन्दर-सुन्दर कथाएँ सुनाकर आपके साथ ही प्रसन्नतापूर्वक वनमें विचरेंगे || ११ ।।
युधिछिर उवाच एवमेतन्न संदेहो रमे5हं सतत द्विजै: । न्यूनभावात् तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मन: ।। १२ ।।
युधिष्ठिरने कहा--महात्माओ! आपका कहना ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि मैं सदा ब्राह्मणोंके साथ रहनेमें ही प्रसन्नताका अनुभव करता हूँ, किंतु इस समय धन आदिसे हीन होनेके कारण मैं देख रहा हूँ कि मेरे लिये यह अपकीर्तिकी-सी बात है || १२ ।।
कथं द्रक्ष्यामि व: सर्वान् स््वयमाहृतभोजनान् ।
मद्धक्त्या क्लिश्यतो<नर्हान् धिक् पापान् धृतराष्ट्रजान् ।। १३ ।।
आप सब लोग स्वयं ही आहार जुटाकर भोजन करें, यह मैं कैसे देख सकूँगा? आपलोग कष्ट भोगनेके योग्य नहीं हैं, तो भी मेरे प्रति स्नेह होनेके कारण इतना क्लेश उठा रहे हैं। धृतराष्ट्रके पापी पुत्रोंको धिकक््कार है ।। १३ ।।
वैशम्पायन उवाच
इत्युक्त्वा स नृप: शोचन् निषसाद महीतले ।
तमध्यात्मरतो विद्वान् शौनको नाम वै द्विज: ।। १४ ।।
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमत्रवीत् ।। १५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! इतना कहकर धर्मराज युधिष्ठिर शोकमग्न हो चुपचाप पृथ्वीपर बैठ गये। उस समय अध्यात्मविषयमें रत अर्थात् परमात्म-चिन्तनमें तत्पर विद्वान ब्राह्मण शौनकने, जो कर्मयोग और सांख्ययोग--दोनों ही निष्ठाओंके विचारमें प्रवीण थे, राजासे इस प्रकार कहा-- ।। १४--१५ ।।
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ।। १६ ।।
'शोकके सहस्रों और भयके सैकड़ों स्थान हैं। वे मूढ़ मनुष्यपर प्रतिदिन अपना प्रभाव डालते हैं; परंतु ज्ञानी पुरुषपर वे प्रभाव नहीं डाल सकते ।। १६ ।।
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु ।
श्रेयोधातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधा: ।। १७ ।।
“अनेक दोषोंसे युक्त, ज्ञानविरुद्ध एवं कल्याणनाशक कर्मोमें आप-जैसे ज्ञानवान् पुरुष नहीं फँसते हैं ।। १७ ।।
अष्टाज्जां बुद्धिमाहुर्या सर्वाश्रेयोडभिघातिनीम् ।
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन् सा त्वय्यवस्थिता ।। १८ ।।
“राजन! योगके आठ अंग--यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिसे सम्पन्न, समस्त अमंगलोंका नाश करनेवाली तथा श्रुतियों और स्मृतियोंके स्वाध्यायसे भलीभाँति दृढ़ की हुई जो उत्तम बुद्धि कही गयी है, वह आपमें स्थित है ।। १८ ।।
अर्थकृच्छेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च ।
शारीरमानसैर्द:खैर्न सीदन्ति भवद्विधा: ।। १९ ।।
“अर्थसंकट, दुस्तर दुःख तथा स्वजनोंपर आयी हुई विपत्तियोंमें आप-जैसे ज्ञानी शारीरिक और मानसिक दु:खोंसे पीडित नहीं होते |। १९ ।।
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा ।
आत्मव्यवस्थानकरा गीता: श्लोका महात्मना ।। २० ||
'पूर्वकालमें महात्मा राजा जनकने अन्तःकरणको स्थिर करनेवाले कुछ श्लोकोंका गान किया था। मैं उन श्लोकोंका वर्णन करता हूँ, आप सुनिये--- || २० ।।
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत् ।
तयोव्याससमासा भ्यां शमोपायमिमं शृणु || २१ ।।
“सारा जगत् मानसिक और शारीरिक दु:खोंसे पीडित है। उन दोनों प्रकारके दुःखोंकी शान्तिका यह उपाय संक्षेप और विस्तारसे सुनिये || २१ ।।
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छूमादिष्टविवर्जनात् ।
दुःखं चतुर्भि: शारीरं कारणै: सम्प्रवर्तते || २२ ।।
“रोग, अप्रिय घटनाओंकी प्राप्ति, अधिक परिश्रम तथा प्रिय वस्तुओंका वियोग--इन चार कारणोंसे शारीरिक दु:ख प्राप्त होता है ।। २२ ।।
तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात् ।
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्धयेन तु ।। २३ ।।
'समयपर इन चारों कारणोंका प्रतीकार करना एवं कभी भी उसका चिन्तन न करना --ये दो क्रियायोग (दुःखनिवारक उपाय) हैं। इन्हींसे आधि-व्याधिकी शान्ति होती है ।। २३ ।।
मतिमन्तो हातो वैद्या: शमं प्रागेव कुर्वते ।
मानसस्य प्रियाख्यानै: सम्भोगोपनयैर्नणाम् ।। २४ ।।
“अतः बुद्धिमान् तथा विद्दान् पुरुष प्रिय वचन बोलकर तथा हितकर भोगोंकी प्राप्ति कराकर पहले मनुष्योंके मानसिक दुःखोंका ही निवारण किया करते हैं |। २४ ।।
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते ।
अय:पिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम् ।। २५ ।।
“क्योंकि मनमें दुःख होनेपर शरीर भी संतप्त होने लगता है; ठीक वैसे ही, जैसे तपाया हुआ लोहेका गोला डाल देनेपर घड़ेमें रखा हुआ शीतल जल भी गरम हो जाता है ।। २५ ।।
मानसं शमयेत् तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना |
प्रशान्ते मानसे हास्य शारीरमुपशाम्यति ।। २६ ।।
“इसलिये जलसे अग्निको शान्त करनेकी भाँति ज्ञानके द्वारा मानसिक दुःखको शान्त करना चाहिये। मनका दुःख मिट जानेपर मनुष्यके शरीरका दुःख भी दूर हो जाता है ।। २६ ||
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते ।
स्नेहात् तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च ।। २७ ।।
“मनके दुःखका मूल कारण क्या है? इसका पता लगानेपर 'स्नेह' (संसारमें आसक्ति)- की ही उपलब्धि होती है। इसी स्नेहके कारण ही जीव कहीं आसक्त होता और दुःख पाता है || २७ |।
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च ।
शोकहर्षो तथा55यास: सर्व स्नेहात् प्रवर्तते | २८ ।।
स्नेहाद भावो<नुरागश्न प्रजज्ञे विषये तथा ।
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरु: स्मृत: ।। २९ ।।
“दुःखका मूल कारण है आसक्ति। आसक्तिसे ही भय होता है। शोक, हर्ष तथा क्लेश --इन सबकी प्राप्ति भी आसक्तिके कारण ही होती है। आसक्तिसे ही विषयोंमें भाव और अनुराग होते हैं। ये दोनों ही अमंगलकारी हैं। इनमें भी पहला अर्थात् विषयोंके प्रति भाव महान् अनर्थकारक माना गया है ।। २८-२९ |।
कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्
धर्मार्थो तु तथाल्पो5पि रागदोषो विनाशयेत् ।। ३० ।।
“जैसे खोखलेमें लगी हुई आग सम्पूर्ण वृक्षको जड़-मूलसहित जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार विषयोंके प्रति थोड़ी-सी भी आसक्ति धर्म और अर्थ दोनोंका नाश कर देती है || ३० ।।
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे ।
विरागं भजते जनन््तुर्निर्विरो निरवग्रह: || ३१ ।।
“विषयोंके प्राप्त न होनेपर जो उनका त्याग करता है, वह त्यागी नहीं है; अपितु जो विषयोंके प्राप्त होनेपर भी उनमें दोष देखकर उनका परित्याग करता है, वस्तुतः वही त्यागी है--वही वैराग्यको प्राप्त होता है। उसके मनमें किसीके प्रति द्वेषभाव न होनेके कारण वह निर्वेर तथा बन्धनमुक्त होता है ।। ३१ ।।
तस्मात् स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसंचयात् ।
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत् ॥। ३२ ।।
“इसलिये मित्रों तथा धनराशिको पाकर इनके प्रति स्नेह (आसक्ति) न करे। अपने शरीरसे उत्पन्न हुई आसक्तिको ज्ञानसे निवृत्त करे || ३२ ।।
ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु ।
न तेषु सज्जते स्नेह: पद्मपत्रेष्विवोदकम् ।। ३३ ।।
'जो ज्ञानी, योगयुक्त, शास्त्रज्ञ तथा मनको वशमें रखनेवाले हैं, उनपर आसक्तिका प्रभाव उसी प्रकार नहीं पड़ता, जैसे कमलके पत्तेपर जल नहीं ठहरता ।। ३३ ।।
रागाभिभूत: पुरुष: कामेन परिकृष्यते ।
इच्छा संजायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते ।। ३४ ।।
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता ।
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी ।। ३५ ।।
“रागके वशीभूत हुए पुरुषको काम अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। फिर उसके मनमें कामभोगकी इच्छा जाग उठती है। तत्पश्चात् तृष्णा बढ़ने लगती है। तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठ (पापमें प्रवृत्त करनेवाली) तथा नित्य उद्वेग करनेवाली बतायी गयी है। उसके द्वारा प्राय: अधर्म ही होता है। वह अत्यन्त भयंकर पापाबन्धनमें डालनेवाली है | ३४-३५ ।।
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्य॑ति जीर्यत: ।
योडसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजत: सुखम् ।। ३६ ।।
“खोटी बुद्धिवाले मनुष्योंके लिये जिसे त्यागना अत्यन्त कठिन है, जो शरीरके जरासे जीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण नहीं होती तथा जिसे प्राणनाशक रोग बताया गया है, उस तृष्णाको जो त्याग देता है, उसीको सुख मिलता है ।। ३६ ।।
अनाइम्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानल: ।। ३७ ।।
“यह तृष्णा यद्यपि मनुष्योंके शरीरके भीतर ही रहती है, तो भी इसका कहीं आदि- अन्त नहीं है। लोहेके पिण्डकी आगके समान यह तृष्णा प्राणियोंका विनाश कर देती है || ३७ ।।
यथैध: स्वसमुत्थेन वह्लिना नाशमृच्छति ।
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति ।। ३८ ।।
'जैसे काष्ठ अपनेसे ही उत्पन्न हुई आगसे जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार जिसका मन वशमें नहीं है, वह मनुष्य अपने शरीरके साथ उत्पन्न हुए लोभके द्वारा स्वयं नष्ट हो जाता है || ३८ ।।
राजत: सलिलादमन्नेश्षलोरत: स्वजनादपि ।
भयमर्थवतां नित्यं मृत्यो: प्राणभूतामिव ।। ३९ ।।
“धनवान् मनुष्योंको राजा, जल, अग्नि, चोर तथा स्वजनोंसे भी सदा उसी प्रकार भय बना रहता है, जैसे सब प्राणियोंको मृत्युसे | ३९ ।।
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिश्रि: श्वापदैर्भुवि ।
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान् । ४० ।।
'जैसे मांसके टुकड़ेको आकाशमें पक्षी, पृथ्वीपर हिंस्र जन्तु तथा जलमें मछलियाँ खा जाती हैं, उसी प्रकार धनवान् पुरुषको सब लोग सर्वत्र नोचते रहते हैं || ४० ।।
अर्थ एव हि केषांचिदनर्थ भजते नृणाम् |
अर्थश्रेयसि चासक्तो न श्रेयो विन्दते नर: ।। ४१ ।।
“कितने ही मनुष्योंके लिये अर्थ ही अनर्थका कारण बन जाता है; क्योंकि अर्थद्वारा सिद्ध होनेवाले श्रेय (सांसारिक भोग)-में आसक्त मनुष्य वास्तविक कल्याणको नहीं प्राप्त होता ।। ४१ ।।
तस्मादर्थागमा: सर्वे मनोमोहविवर्धना: ।
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च ।। ४२ ।।
अर्थजानि विदु: प्राज्ञा: दुःखान्येतानि देहिनाम् ।
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये ।। ४३ ।।
सहन्ति च महद् दु:खं घ्नन्ति चैवार्थकारणात् ।
अर्था दु:खं परित्यक्तुं पालिताश्वैव शत्रव: ।। ४४ ।।
“इसलिये धन-प्राप्तिके सभी उपाय मनमें मोह बढ़ानेवाले हैं। कृपणता, घमण्ड, अभिमान, भय और उद्वेग इन्हें विद्वानोंने देहधारियोंके लिये धनजनित दुःख माना है। धनके उपार्जन, संरक्षण तथा व्ययमें मनुष्य महान् दुःख सहन करते हैं और धनके ही कारण एक- दूसरेको मार डालते हैं। धनको त्यागनेमें भी महान् दुःख होता है और यदि उसकी रक्षा की जाय तो वह शत्रुका-सा काम करता है: ।। ४२--४४ ।।
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत् ।
असंतोषपरा मूढा: संतोष॑ यान्ति पण्डिता: ।। ४५ ।।
“धनकी प्राप्ति भी दुःखसे ही होती है। इसलिये उसका चिन्तन न करे; क्योंकि धनकी चिन्ता करना अपना नाश करना है। मूर्ख मनुष्य सदा असंतुष्ट रहते हैं और विद्वान् पुरुष संतुष्ट ।। ४५ ||
अन्तो नास्ति पिपासाया: संतोष: परमं सुखम् |
तस्मात् संतोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिता: ।। ४६ ।।
“धनकी प्यास कभी बुझती नहीं है; अतः संतोष ही परम सुख है। इसीलिये ज्ञानीजन संतोषको ही सबसे उत्तम समझते हैं || ४६ ।।
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचय: ।
ऐश्वर्य प्रियसंवासो गृध्येत् तत्र न पण्डित: ।। ४७ ।।
'यौवन, रूप, जीवन, रत्नोंका संग्रह, ऐश्वर्य तथा प्रियजनोंका एकत्र निवास--ये सभी अनित्य हैं; अतः विद्वान् पुरुष उनकी अभिलाषा न करे || ४७ ।।
त्यजेत संचयांस्तस्मात्तज्जान् क्लेशान् सहेत च |
न हि संचयवान् कश्रिद् दृश्यते निरुपद्रव: ।
अतश्न धार्मिकै: पुंभिरनीहार्थ: प्रशस्पते ॥। ४८ ।।
“इसलिये धन-संग्रहका त्याग करे और उसके त्यागसे जो क्लेश हो, उसे धैर्यपूर्वक सह ले। जिनके पास धनका संग्रह है, ऐसा कोई भी मनुष्य उपद्रवरहित नहीं देखा जाता। अतः
धर्मात्मा पुरुष उसी धनकी प्रशंसा करते हैं जो दैवेच्छासे न्यायपूर्वक स्वतः प्राप्त हो गया हो ।। ४८ ।।
धर्मार्थ यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता ।
प्रक्षालनाद्धि पंकस्य श्रेयो न स्पर्शन॑ नृणाम् ।। ४९ ।।
'जो धर्म करनेके लिये धनोपार्जनकी इच्छा करता है उसका धनकी इच्छा न करना ही अच्छा है। कीचड़ लगाकर धोनेकी अपेक्षा मनुष्योंके लिये उसका स्पर्श न करना ही श्रेष्ठ है ।। ४९ ||
युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमरहसि ।
धर्मेण यदि ते कार्य विमुक्तेच्छो भवार्थत: ।। ५० ।।
'युधिष्ठिर! इस प्रकार आपके लिये किसी भी वस्तुकी अभिलाषा करनी उचित नहीं है। यदि आपको थधर्मसे ही प्रयोजन हो तो धनकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दें" || ५० ।।
युधिछिर उवाच
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम ।
भरणार्थ तु विप्राणां ब्रह्मन् काडक्षे न लोभत: ।। ५१ ।।
युधिष्ठिरने कहा--ब्रह्मन! मैं जो धन चाहता हूँ वह इसलिये नहीं कि मुझे धनसम्बधी भोग भोगनेकी इच्छा है। मैं तो ब्राह्मणोंक भरण-पोषणके लिये ही धनकी इच्छा रखता हूँ, लोभवश नहीं ।। ५१ ।।
कथं हा[स्मद्विधो ब्रह्मन् वर्तमानो गृहाश्रमे ।
भरणं पालन चापि न कुर्यादनुयायिनाम् ।। ५२ ।।
विप्रवर! गृहस्थ-आश्रममें रहनेवाला मेरे-जैसा पुरुष अपने अनुयायियोंका भरण- पोषण भी न करे, यह कैसे उचित हो सकता है? ।। ५२ ।।
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते ।
तथैवापचमाने भ्य: प्रदेयं गृहमेधिना ।। ५३ ।।
गृहस्थके भोजनमें देवता, पितर, मनुष्य एवं समस्त प्राणियोंका हिस्सा देखा जाता है। गृहस्थका यह धर्म है कि वह अपने हाथसे भोजन न बनानेवाले संन्यासी आदिको अवश्य पका-पकाया अन्न दे || ५३ ।।
तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनूता ।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ।। ५४ ।।
आसनके लिये तृण (कुश), बैठनेके लिये स्थान, जल और चौथी मधुर वाणी, सत्पुरुषोंके घरमें इन चार वस्तुओंका अभाव कभी नहीं होता ।। ५४ ।।
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम् |
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम् ।। ५५ ।।
रोग आदिसे पीड़ित मनुष्यको सोनेके लिये शय्या, थके-माँदे हुएको बैठनेके लिये आसन, प्यासेको पानी और भूखेको भोजन तो देना ही चाहिये || ५५ ।।
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्यात् सुभाषिताम् ।
उत्थाय चासन दद्यादेष धर्म: सनातन: ।
प्रत्युत्थायाभिगमन कुर्यानन््यायेन चार्चनम् ।। ५६ ।।
जो अपने घरपर आ जाय, उसे प्रेमभरी दृष्टिसे देखे, मनसे उसके प्रति उत्तम भाव रखे, उससे मीठे वचन बोले और उठकर उसके लिये आसन दे। यह गृहस्थका सनातन धर्म है। अतिथिको आते देख उठकर उसकी अगवानी और यथोचित रीतिसे उसका आदर-सत्कार करे ।। ५६ ||
अग्निहोत्रमनड्वांश्व॒ ज्ञातयो5तिथिबान्धवा: ।
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्व निर्दहेयुरपूजिता: ।। ५७ ।।
यदि गृहस्थ मनुष्य अग्निहोत्र, साँड, जाति-भाई, अतिथि-अभ्यागत, बन्धु-बान्धव, स्त्री-पुत्र तथा भृत्यजनोंका आदर-सत्कार न करे तो वे अपनी क्रोधाग्निसे उसे जला सकते हैं ।। ५७ ।।
आत्मार्थ पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत् पशून् ।
न च तत् स्वयमश्रीयाद् विधिवद् यन्न निर्वपेत् ।। ५८ ।।
केवल अपने लिये अन्न न पकावे (देवता-पितरों एवं अतिथियोंके उद्देश्यसे ही भोजन बनानेका विधान है), निकम्मे पशुओंकी भी हिंसा न करे और जिस वस्तुको विधिपूर्वक देवता आदिके लिये अर्पित न करे, उसे स्वयं भी न खाय || ५८ ।।
श्वभ्यश्न श्वपचेभ्यश्व वयोभ्यश्वावपेद् भुवि ।
वैश्वदेवं हि नामैतत् सायं प्रातश्न॒ दीयते ।। ५९ ।।
कुत्तों, चाण्डालों और कौवोंके लिये पृथ्वीपर अन्न डाल दे। यह वैश्वदेव नामक महान् यज्ञ है, जिसका अनुष्ठान प्रातःकाल और सायंकालमें भी किया जाता है ।। ५९ ।।
विघसाशी भवेत् तस्मान्नित्यं चामृतभोजन: ।
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम् ।। ६० ।।
अतः गृहस्थ मनुष्य प्रतिदिन विघस एवं अमृत भोजन करे। घरके सब लोगोंके भोजन कर लेनेपर जो अन्न शेष रह जाय उसे “विघस” कहते हैं तथा बलि-वैश्वदेवसे बचे हुए अन्नका नाम 'अमृत' है || ६० ।।
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम् ।
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञ: पठचदक्षिण: ।। ६१ ।।
अतिथिको नेत्र दे (उसे प्रेमभरी दृष्टिसे देखे), मन दे (मनसे हित-चिन्तन करे) तथा मधुर वाणी प्रदान करे (सत्य, प्रिय, हितकी बात कहे)। जब वह जाने लगे तब कुछ दूरतक
उसके पीछे-पीछे जाय और जबतक वह घरपर रहे तबतक उसके पास बैठे (उसकी सेवामें लगा रहे)। यह पाँच प्रकारकी दक्षिणाओंसे युक्त अतिथि-यज्ञ है ।। ६१ ।।
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते |
भ्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत् ।। ६२ ।।
जो गृहस्थ अपरिचित थके-माँदे पथिकको प्रसन्नतापूर्वक भोजन देता है, उसे महान् पुण्यफलकी प्राप्ति होती है ।। ६२ ।।
एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे ।
तस्य धर्म परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे ।। ६३ ।।
ब्रह्मन! जो गृहस्थ इस वृत्तिसे रहता है, उसके लिये उत्तम धर्मकी प्राप्ति बतायी गयी है, अथवा इस विषयमें आपकी क्या सम्मति है? ।। ६३ ।।
शौनक उवाच
अहो बत महत् कष्ट विपरीतमिदं जगत् |
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति ।। ६४ ।।
शौनकजीने कहा--अहो! बहुत दुःखकी बात है, इस जगत्में विपरीत बातें दिखायी देती हैं। साधु पुरुष जिस कर्मसे लज्जित होते हैं, दुष्ट मनुष्योंको उसीसे प्रसन्नता प्राप्त होती है ।। ६४ ।।
शिक्षोदरकृते<प्राज्ञ: करोति विघसं बहु |
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुग: ।। ६५ ।।
अज्ञानी मनुष्य अपनी जननेन्द्रिय तथा उदरकी तृप्तिके लिये मोह एवं रागके वशीभूत हो विषयोंका अनुसरण करता हुआ नाना प्रकारकी विषय-सामग्रीको यज्ञावशेष मानकर उसका संग्रह करता है ।। ६५ ।।
हियते बुध्यमानो5पि नरो हारिभिरिन्द्रियै: ।
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुदभ्रान्तैरिव सारथि: ।। ६६ ।।
समझदार मनुष्य भी मनको हर लेनेवाली इन्द्रियोंद्रारा विषयोंकी ओर खींच लिया जाता है। उस समय उसकी विचारशक्ति मोहित हो जाती है। जैसे दुष्ट घोड़े वशमें न होनेपर सारथिको कुमार्गमें घसीट ले जाते हैं, यही दशा उस अजितेन्द्रिय पुरुषकी भी होती है ।। ६६ ||
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा ।
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसंकल्पजं मन: ।। ६७ ।।
जब मन और पाँचों इन्द्रियाँ अपने विषयोंमें प्रवृत्त होती हैं, उस समय प्राणियोंके पूर्वसंकल्पके अनुसार उसीकी वासनासे वासित मन विचलित हो उठता है ।। ६७ ।।
मनो यस्येन्द्रियस्पेह विषयान् याति सेवितुम् |
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्नोपजायते ।। ६८ ।।
मन जिस इन्द्रियके विषयोंका सेवन करने जाता है, उसीमें उस विषयके प्रति उत्सुकता भर जाती है और वह इन्द्रिय उस विषयके उपभोगमें प्रवृत्त हो जाती है ।। ६८ ।।
ततः संकल्पबीजेन कामेन विषयेषुभि: ।
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात् पतड़वत् ।। ६९ ।।
तदनन्तर संकल्प ही जिसका बीज है, उस कामके द्वारा विषयरूपी बाणोंसे बिंधकर मनुष्य ज्योतिके लोभसे पतंगकी भाँति लोभकी आगमें गिर पड़ता है ।। ६९ ।।
ततो विहारैराहारैमोहितश्न यथेप्सया ।
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते ॥। ७० ।।
इसके बाद इच्छानुसार आहार-विहारसे मोहित हो महामोहमय सुखमें निमग्न रहकर वह मनुष्य अपने आत्माके ज्ञानसे वंचित हो जाता है || ७० ।।
एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु ।
अविद्याकर्मतृष्णाभि भ्राम्यमाणो5थ चक्रवत् ।। ७१ ।।
इस प्रकार अविद्या, कर्म और तृष्णाद्वारा चक्रकी भाँति भ्रमण करता हुआ मनुष्य संसारकी विभिन्न योनियोंमें गिरता है || ७१ ।।
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते ।
जले भुवि तथा55काशे जायमान: पुन: पुन: ।। ७२ ।।
फिर तो ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियोंमें तथा जल, भूमि और आकाशमें वह मनुष्य बारंबार जन्म लेकर चक्कर लगाता रहता है || ७२ ।।
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु ।
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जना: ।। ७३ ।।
यह अविवेकी पुरुषोंकी गति बतायी गयी है। अब आप मुझसे विवेकी पुरुषोंकी गतिका वर्णन सुनें। जो धर्म एवं कल्याणमार्ममें तत्पर हैं और मोक्षके विषयमें जिनका निरन्तर अनुराग है, वे विवेकी हैं || ७३ ।।
तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च ।
तस्माद् धर्मानिमान् सर्वान् नाभिमानात् समाचरेत् || ७४ ।।
वेदकी यह आज्ञा है कि कर्म करो और कर्म छोड़ो; अतः आगे बताये जानेवाले इन सभी धर्मोका अहंकारशून्य होकर अनुष्ठान करना चाहिये ।। ७४ ।।
इज्याध्ययनदानानि तप: सत्यं क्षमा दम: ।
अलोभ इति मार्गो<यं धर्मस्याष्टविध: स्मृत: ।। ७५ ।।
यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम तथा लोभका परित्याग--ये धर्मके आठ मार्ग हैं || ७५ ।।
अत्र पूर्वक्षतुर्वर्ग: पितृयाणपथे स्थित: ।
कर्तव्यमिति यत् कार्य नाभिमानात् समाचरेत् ।। ७६ ।।
इनमें पहले बताये हुए चार धर्म पितृयानके मार्गमें स्थित हैं; अर्थात् इन चारोंका सकामभावसे अनुष्ठान करनेपर ये पितृयानमार्गसे ले जाते हैं। अग्निहोत्र और संध्योपासनादि जो अवश्य करनेयोग्य कर्म हैं, उन्हें कर्तव्य-बुद्धिसे ही अभिमान छोड़कर करे ।। ७६ |।
उत्तरो देवयानस्तु सद्धिराचरित: सदा ।
अष्ट ड्रेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत् | ७७ ।।
अन्तिम चार धर्मोंको देवयानमार्गका स्वरूप बताया गया है। साधु पुरुष सदा उसी मार्गका आश्रय लेते हैं। आगे बताये जानेवाले आठ अंगोंसे युक्त मार्गद्वारा अपने अन्तःकरणको शुद्ध करके कर्तव्य-कर्मोंका कर्तृत्वके अभिमानसे रहित होकर पालन करे ।। ७७ |।
सम्यक्संकल्पसंबन्धात् सम्यक् चेन्द्रियनिग्रहात् ।
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक् च गुरुसेवनात् ।। ७८ ।।
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक् चाध्ययनागमात् |
सम्यक्कर्मोपसंन्यासात् सम्यक् चित्तनिरोधनात् ।। ७९ ।।
पूर्णतया संकल्पोंको एक ध्येयमें लगा देनेसे, इन्द्रियोंको भली प्रकार वशमें कर लेनेसे, अहिंसादि व्रतोंका अच्छी प्रकार पालन करनेसे, भली प्रकार गुरुकी सेवा करनेसे, यथायोग्य योगसाधनोपयोगी आहार करनेसे, वेदादिका भली प्रकार अध्ययन करनेसे, कर्मोंको भलीभाँति भगवत्समर्पण करनेसे और चित्तका भली प्रकार निरोध करनेसे मनुष्य परम कल्याणको प्राप्त होता है ।। ७८-७९ ||
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषव: ।
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्य देवता गता: ।। ८० ।।
संसारको जीतनेकी इच्छावाले बुद्धिमान् पुरुष इसी प्रकार राग-द्वेषसे मुक्त होकर कर्म करते हैं। इन्हीं नियमोंके पालनसे देवतालोग एऐश्वर्यको प्राप्त हुए हैं || ८० ।।
रुद्रा: साध्यास्तथा55दित्या वसवो5थ तथाश्रिनौ ।
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमा: ।। ८१ ।।
रुद्र, साध्य, आदित्य, वसु तथा दोनों अश्विनीकुमार योगजनित ऐश्वर्यसे युक्त होकर इन प्रजाजनोंका धारण-पोषण करते हैं || ८१ ।।
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम् |
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत ।। ८२ ।।
कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार आप भी मन और इन्द्रियोंको भलीभाँति वशमें करके तपस्याद्वारा सिद्धि तथा योगजनित ऐश्वर्य प्राप्त करनेकी चेष्टा कीजिये || ८२ ।।
पितृमातृमयी सिद्धि: प्राप्ता कर्ममयी च ते ।
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै ॥। ८३ ।।
यज्ञ, युद्धादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाली सिद्धि पितृ-मातृमयी (परलोक और इहलोकमें भी लाभ पहुँचानेवाली) है, जो आपको प्राप्त हो चुकी है। अब तपस्याद्वारा वह योगसिद्धि प्राप्त करनेका प्रयत्न कीजिये जिससे ब्राह्मणोंका भरण-पोषण हो सके ।। ८३ ।।
सिद्धा हि यद् यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्
तस्मात्तप: समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम् ।। ८४ ।।
सिद्ध पुरुष जो-जो वस्तु चाहते हैं, उसे अपने तपके प्रभावसे प्राप्त कर लेते हैं। अतः आप तपस्याका आश्रय लेकर अपने मनोरथकी पूर्ति कीजिये ।। ८४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयो5ध्याय: ।। २ || इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें पाण्डवोंका प्रव्रजन (वनगमन)- विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥। २ ॥।
हि मय न हुक है ०
- धनके लोभसे मनुष्य धनके रक्षककी हत्या कर डालते हैं।
तृतीयो<थध्याय:
युधिष्ठिरके द्वारा अन्नके लिये भगवान् सूर्यकी उपासना और उनसे अक्षयपात्रकी प्राप्ति
वैशम्पायन उवाच शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: । पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येडब्रवीदिदम् ।। १ ।। वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! शौनकके ऐसा कहनेपर कुन्तीनन्दन युधिष्ठछिर अपने पुरोहितके पास आकर भाइयोंके बीचमें इस प्रकार बोले-- ।। १ ।। प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगा: । न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः ।। २ ।। “विप्रवर! ये वेदोंके पारंगत विद्वान ब्राह्मण मेरे साथ वनमें चल रहे हैं। परंतु मैं इनका पालन-पोषण करनेमें असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है || २ ।। परित्यक्तुं न शक्तो5स्मि दानशक्तिश्च नास्ति मे । कथमत्र मया कार्य तद् ब्रूहि भगवन् मम ।। ३ ।। “भगवन्! मैं इन सबका त्याग नहीं कर सकता; परंतु इस समय मुझमें इन्हें अन्न देनेकी शक्ति नहीं है। ऐसी अवस्थामें मुझे क्या करना चाहिये? यह कृपा करके बताइये” ।। ३ ।। वैशम्पायन उवाच
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम् ।
युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभूतां वर: ।। ४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ धौम्य मुनिने युधिष्ठिरका प्रश्न सुनकर दो घड़ीतक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपायका अन्वेषण करनेके पश्चात् उनसे इस प्रकार कहा ।। ४ ।।
धौग्य उवाच
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम् ।
ततो<नुकम्पया तेषां सविता स्वपिता यथा ।। ५ ।।
गत्वोत्तरायणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभि: ।
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रवि: ।। ६ ।।
धौम्य बोले--राजन्! सृष्टिके प्रारम्भकालमें जब सभी प्राणी भूखसे अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान् सूर्यने पिताकी भाँति उन सबपर दया करके उत्तरायणमें जाकर
अपनी किरणोंसे पृथ्वीका रस (जल) खींचा और दक्षिणायनमें लौटकर पृथ्वीको उस रससे आविष्ट किया ।। ५-६ ।।
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपति: ।
दिवस्तेज: समुद्धृत्य जनयामास वारिणा ।। ७ ।।
इस प्रकार जब सारे भूमण्डलमें क्षेत्र तैयार हो गया, तब ओषधियोंके स्वामी चन्द्रमाने अन्तरिक्षमें मेघोंके रूपमें परिणत हुए सूर्यके तेजको प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए जलसे अन्न आदि ओषधियोंको उत्पन्न किया || ७ ।।
निषिक्तश्नन्द्रतेजोभि: स्वयोनौ निर्गते रवि: ।
ओषध्य: षड़सा मेध्यास्तदन्न॑ प्राणिनां भुवि ।। ८ ।।
चन्द्रमाकी किरणोंसे अभिषिक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृतिमें स्थित हो जाता है, तब छः प्रकारके रसोंसे युक्त पवित्र ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं। वही पृथ्वीमें प्राणियोंके लिये अन्न होता है || ८ ।।
एवं भानुमयं हान्न॑ भूतानां प्राणधारणम् |
पितैष सर्वभूतानां तस्मात् तं शरणं व्रज ।। ९ ।।
इस प्रकार सभी जीवोंके प्राणोंकी रक्षा करनेवाला अन्न सूर्यरूप ही है। अतः भगवान् सूर्य ही समस्त प्राणियोंके पिता हैं, इसलिये तुम उनन््हींकी शरणमें जाओ ।। ९ ।।
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिता: ।
उद्धरन्ति प्रजा: सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम् ।। १० ।।
जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियोंसे परम उज्ज्वल हैं, ऐसे महात्मा राजा भारी तपस्याका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनोंका संकटसे उद्धार करते हैं || १० ।।
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च ।
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापद: प्रजा: ।। ११ ।।
भीम, कार्तवीर्य अर्जुन, वेनपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशोंने तपस्या, योग और समाधिमें स्थित होकर भारी आपत्तियोंसे प्रजाको उबारा है || ११ ।।
तथा त्वमपि धर्मात्मन् कर्मणा च विशोधित: ।
तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन् भर भारत ॥। १२ ।।
धर्मात्मा भारत! इसी प्रकार तुम भी सत्कर्मसे शुद्ध होकर तपस्याका आश्रय ले धर्मानुसार द्विजातियोंका भरण-पोषण करो ।। १२ ।।
जनमेजय उवाच कथर्थ॑ कुरूणामृषभ: स तु राजा युधिष्ठिर: । विप्रार्थमाराधितवान् सूर्यमद्भुतदर्शनम् ।। १३ ।।
जनमेजयने पूछा--भगवन्! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्छिरने ब्राह्मणोंके भरण-पोषणके लिये, जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान् सूर्यकी आराधना किस प्रकार की? ।। १३ ।।
वैशम्पायन उवाच
शृणुष्वावहितो राजन् शुचिर्भूत्वा समाहित: ।
क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषत: ।। १४ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--राजेन्द्र! मैं सब बातें बता रहा हूँ। तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त होकर सुनो और धैर्य रखो ।। १४ ।।
धौम्येन तु यथा पूर्व पार्थाय सुमहात्मने ।
नामाष्टशतमाख्यातं तच्छुणुष्व महामते ।। १५ ।।
महामते! धौम्यने जिस प्रकार महात्मा युधिष्ठिरको पहले भगवान् सूर्यके एक सौ आठ नाम बताये थे, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो || १५ ।।
धौम्य उवाच
सूर्योडर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क:ः सविता रवि: । गभस्तिमानज: कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर: ।। १६ ।। पृथिव्यापश्च तेजश्न खं वायुश्व॒ परायणम् ।
सोमो बृहस्पति: शूक्रो बुधो5ज़ारक एव च ।। १७ ।। इन्द्रो विवस्वान् दीप्तांशु: शुचि: शौरि: शनैश्वर: । ब्रह्मा विष्णुश्न रुद्रश्न स्कन्दो वै वरुणो यम: ।। १८ ।। वैद्युतो जाठरश्नाग्निरैन्धनस्तेजसां पति: ।
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाड़ो वेदवाहन: ।। १९ ।।
कृतं त्रेता द्वापरश्न कलि: सर्वमलाश्रय: ।
कला काष्टठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षण: ।। २० ।। संवत्सरकरोडश्वत्थ: कालचक्रो विभावसु: ।
पुरुष: शाश्व॒तो योगी व्यक्ताव्यक्त: सनातन: ।। २१ ।। कालाध्यक्ष: प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुद: ।
वरुण: सागरों5शुश्व जीमूतो जीवनोडरिहा ।। २२ ।। भूताश्रयो भूतपति: सर्वतलोकनमस्कृत: ।
स्रष्टा संवर्तको वह्नि: सर्वस्यादिरलोलुप: || २३ ।। अनन्त: कपिलो भानु: कामद: सर्वतोमुख: ।
जयो विशालो वरद: सर्वधातुनिषेचिता ।। २४ ।। मनःसुपर्णो भूतादि: शीघ्रग: प्राणधारक: ।
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवो $दिते: सुत: ।। २५ ।।
द्वादशात्मारविन्दाक्ष: पिता माता पितामह: ।
स्वर्गद्धारं प्रजद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् ।। २६ ।।
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुख: ।
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेय: करुणान्वित: ।। २७ ।।
एतद् वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजस: ।
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत् स्वयंभुवा | २८ ।।
धौम्य बोले--१ सूर्य, २ अर्यमा, ३ भग, ४ त्वष्टा, ५ पूषा, ६ अर्क, ७ सविता, ८ रवि, ९ गभस्तिमान, १० अज, ११ काल, १२ मृत्यु, १३ धाता, १४ प्रभाकर, १५ पृथिवी, १६ आप, १७ तेज, १८ ख (आकाश), १९ वायु, २० परायण, २१ सोम, २२ बृहस्पति, २३ शुक्र, २४ बुध, २५ अंगारक (मंगल) २६ इन्द्र, २७ विवस्वानू, २८ दीप्तांशु, २९ शुचि, ३० शौरि, ३१ शनैश्वर, ३२ ब्रह्मा, ३३ विष्णु, ३४ रुद्र, ३५ स्कन्द, ३६ वरुण, ३७ यम, ३८ वैद्युताग्नि, ३९ जाठराग्नि, ४० ऐन्धनाग्नि, ४१ तेज:पति, ४२ धर्मध्वज, ४३ वेदकर्ता, ४४ वेदांग, ४५ वेदवाहन, ४६ कृत, ४७ त्रेता, ४८ द्वापर, ४९ सर्वमलाश्रय कलि, ५० कला-काष्ठा-मुहूर्तरूप समय, ५१ क्षपा (रात्रि), ५२ याम, ५३ क्षण, ५४ संवत्सरकर ५५ अध्वत्थ, ५६ कालचक्रप्रवर्तक विभावसु, ५७ शाश्वत पुरुष, ५८ योगी, ५९ व्यक्ताव्यक्त, ६० सनातन, ६१ कालाध्यक्ष, ६२ प्रजाध्यक्ष, ६३ विश्वकर्मा, ६४ तमोनुद, ६५ वरुण, ६६ सागर, ६७ अंशु, ६८ जीमूत, ६९ जीवन, ७० अरिहा, ७१ भूताश्रय, ७२ भूतपति, ७३ सर्वलोक-नमस्कृत, ७४ स्रष्टा, ७५ संवर्तक, ७६ वह्लि, ७७ सर्वादि, ७८ अलोलुप, ७९ अनन्त, ८० कपिल, ८१ भानु, ८२ कामद, ८३ सर्वतोमुख, ८४ जय, ८५ विशाल, ८६ वरद, ८७ सर्वधातुनिषेचिता, ८८ मन:सुपर्ण, ८९-भूतादि, ९० शीघ्रग, ९१ प्राणधारक, ९२ धन्वन्तरि, ९३ धूमकेतु, ९४ आदिदेव, ९५ अदितिसुत, ९६ द्वादशात्मा, ९७ अरविन्दाक्ष, ९८ पिता-माता-पितामह, ९९ स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार, १०० मोक्षद्वार-त्रिविष्टप, १०१ देहकर्ता, १०२ प्रशान्तात्मा, १०३ विश्वात्मा, १०४ विश्वतोमुख, १०५ चराचरात्मा, १०६ सूक्ष्मात्मा, १०७ मैत्रेय तथा १०८ करुणान्वित--ये अमिततेजस्वी भगवान् सूर्यके कीर्तन करनेयोग्य एक सौ आठ नाम हैं, जिनका उपदेश साक्षात् ब्रह्माजीने किया है || १६--२८ ।।
सुरगणपितृयक्षसेवितं
हासुरनिशाचरसिद्धवन्दितम् । वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितो5स्मि हिताय भास्करम् ।। २९ |।
(इन नामोंका उच्चारण करके भगवान् सूर्यको इस प्रकार नमस्कार करना चाहिये।)
समस्त देवता, पितर और यक्ष जिनकी सेवा करते हैं, असुर, राक्षस तथा सिद्ध जिनकी
वन्दना करते हैं तथा जो उत्तम सुवर्ण और अग्निके समान कान्तिमान् हैं, उन भगवान् भास्करको मैं अपने हितके लिये प्रणाम करता हूँ ।। २९ ।। सूर्योदये यः सुसमाहित: पठेत् स पुत्रदारान् धनरत्नसंचयान् । लभेत जातिस्मरतां नर: सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान् ।। ३० ।। जो मनुष्य सूर्योदयके समय भलीभाँति एकाग्रचित्त हो इन नामोंका पाठ करता है वह स्त्री, पुत्र, धन, रत्नराशि, पूर्वजन्मकी स्मृति, धैर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त कर लेता है || ३० ।। इमं स्तवं देववरस्य यो नर: प्रकीर्तयेच्छुचिसुमना: समाहित: । विमुच्यते शोकदवाग्निसागरा- ल्लभेत कामान् मनसा यथेप्सितान् ।। ३१ ।। जो मानव स्नान आदि करके पवित्र, शुद्धचित्त एवं एकाग्र हो देवेश्वर 'भगवान्' सूर्यके इस नामात्मक स्तोत्रका कीर्तन करता है वह शोकरूपी दावानलसे युक्त दुस्तर संसारसागरसे मुक्त हो मनचाही वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है ।। ३१ ।। वैशम्पायन उवाच एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वच: । विप्रत्यागसमाधिस्थ: संयतात्मा दृढव्रत: ।। ३२ |। धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम् | पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम् ।। ३३ ।। सो<वगाहा जलं राजा देवस्याभिमुखो5 भवत् । योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रिय: ।। ३४ ।। वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पुरोहित धौम्यके इस प्रकार समयोचित बात कहनेपर ब्राह्मणोंको देनेके लिये अन्नकी प्राप्तिके उद्देश्यसे नियममें स्थित हो मनको वशमें रखकर दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए शुद्धचेता धर्मराज युधिष्ठिरने उत्तम तपस्याका अनुष्ठान आरम्भ किया। राजा युधिष्ठिरने गंगाजीके जलमें स्नान करके पुष्प और नैवेद्य आदि उपहारोंद्वारा भगवान् दिवाकरकी पूजा की और उनके सम्मुख मुँह करके खड़े हो गये। धर्मात्मा पाण्डुकुमार चित्तको एकाग्र करके इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए केवल वायु पीकर रहने लगे || ३२--३४ ।। गाड़ेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान् । शुचि: प्रयतवाग भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्तत: ।। ३५ ।।
गंगाजलका आचमन करके पवित्र हो वाणीको वशमें रखकर तथा प्राणायामपूर्वक स्थित रहकर उन्होंने पूर्वोक्त अष्टोत्तरशतनामात्मक स्तोत्रका जप किया ।। ३५ ।।
युधिछिर उवाच
त्वं भानो जगतत्नक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम् ।
त्वं योनि: सर्वभूतानां त्वमाचार: क्रियावताम् ।। ३६ ।।
युधिष्ठिर बोले--सूर्यदेव! आप सम्पूर्ण जगतके नेत्र तथा समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। आप ही सब जीवोंके उत्पत्तिस्थान और कर्मानुष्ठानमें लगे हुए पुरुषोंके सदाचार हैं ।। ३६ ||
त्वं गति: सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम् ।
अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम् ।। ३७ ।।
सम्पूर्ण सांख्ययोगियोंके प्राप्तव्य स्थान आप ही हैं। आप ही सब कर्मयोगियोंके आश्रय हैं। आप ही मोक्षके उन्मुक्त द्वार हैं और आप ही मुमुक्षुओंकी गति हैं ।। ३७ ।।
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोक: प्रकाश्यते ।
त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया ।। ३८ ।।
आप ही सम्पूर्ण जगत्को धारण करते हैं। आपसे ही यह प्रकाशित होता है। आप ही इसे पवित्र करते हैं और आपके ही द्वारा निःस्वार्थभावसे इसका पालन किया जाता है ।। ३८ ।।
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगा: ।
स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यषिगणार्चितम् ।। ३९ ।।
सूर्ययेव!! आप ऋषिगणोंद्वारा पूजित हैं। वेदके तत्त्वज्ञ ब्राह्मणलोग अपनी-अपनी वेदशाखाओंमें वर्णित मन्त्रोंद्रारा उचित समयपर उपस्थान करके आपका पूजन किया करते हैं ।। ३९ ।।
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिन: ।
सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्मुकपन्नगा: || ४० ।।
सिद्ध, चारण, गन्धर्व, यक्ष, गुह्क और नाग आपसे वर पानेकी अभिलाषासे आपके गतिशील दिव्य रथके पीछे-पीछे चलते हैं || ४० ।।
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणा: ।
सोपेन्द्रा: समहेन्द्राश्न॒ त्वामिष्टवा सिद्धिमागता: ।। ४१ ।।
तैंतीसः देवता एवं विमानचारी सिद्धगण भी उपेन्द्र तथा महेन्द्रसाहित आपकी आराधना करके सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ।। ४१ ।।
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथा: ।
दिव्यमन्दारमालाभि स्तूर्ण विद्याधरोत्तमा: || ४२ ।।
गुहाया: पितृगणा: सप्त ये दिव्या ये च मानुषा: ।
ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम् ।। ४३ ।।
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपा: ।
वालखिल्यादय: सिद्धा: श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गता: ।। ४४ ।॥
श्रेष्ठ विद्याधरगण दिव्य मन्दार-कुसुमोंकी मालाओंसे आपकी पूजा करके सफलमनोरथ हो तुरंत आपके समीप पहुँच जाते हैं। गुह्यक, सातः प्रकारके पितृगण तथा दिव्य मानव (सनकादि) आपकी ही पूजा करके श्रेष्ठ पदको प्राप्त करते हैं। वसुगण, मरुदगण, रुद्र, साध्य तथा आपकी किरणोंका पान करनेवाले वालखिल्य आदि सिद्ध महर्षि आपकी ही आराधनासे सब प्राणियोंमें श्रेष्ठ हुए हैं।। ४२-४४ ।।
सब्रद्यकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च ।
न तद्धूतमहं मनन््ये यदर्कादतिरिच्यते ।। ४५ ।।
सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च ।
न तु तेषां तथा दीप्ति: प्रभावो वा यथा तव ।। ४६ ।।
ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पति: ।
त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्व॒ साच्चिका: ।। ४७ ।।
त्वत्तेजसा कृतं॑ चक्र सुनाभं विश्वकर्मणा ।
देवारीणां मदो येन नाशित: शार्ज्र्धन्चना ।। ४८ ।।
ब्रद्मतोकसहित ऊपरके सातों लोकोंमें तथा अन्य सब लोकोंमें भी ऐसा कोई प्राणी नहीं दीखता जो आप भगवान् सूर्यसे बढ़कर हो। भगवन्! जगतमें और भी बहुत-से महान् शक्तिशाली प्राणी हैं; परंतु उनकी कान्ति और प्रभाव आपके समान नहीं हैं। सम्पूर्ण ज्योतिर्मय पदार्थ आपके ही अन्तर्गत हैं। आप ही समस्त ज्योतियोंके स्वामी हैं। सत्य, सत्त्व तथा समस्त सात्त्विक भाव आपमें ही प्रतिष्ठित हैं। 'शार्इ” नामक धनुष धारण करनेवाले भगवान् विष्णुने जिसके द्वारा दैत्योंका घमंड चूर्ण किया है उस सुदर्शन चक्रको विश्वकर्माने आपके ही तेजसे बनाया है || ४५--४८ ।।
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम् ।
सर्वोौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुडचसि ।। ४९ ।।
आप ग्रीष्म-ऋतुमें अपनी किरणोंसे समस्त देहधारियोंके तेज और सम्पूर्ण ओषधियोंके रसका सार खींचकर पुन: वर्षाकालमें उसे बरसा देते हैं || ४९ ।।
तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घना: ।
विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मय: ।। ५० ।।
वर्षा-ऋतुमें आपकी कुछ किरणें तपती हैं, कुछ जलाती हैं, कुछ मेघ बनकर गरजती, बिजली बनकर चमकती तथा वर्षा भी करती हैं || ५० ।।
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बला: |
शीतवातार्दितं लोक॑ यथा तव मरीचय: ।। ५१ ।।
शीतकालकी वायुसे पीड़ित जगत्को अग्नि, कम्बल और वस्त्र भी उतना सुख नहीं देते जितना आपकी किरणें देती हैं || ५१ ।।
त्रयोदशद्वीपवर्ती गोभिर्भासयसे महीम् ।
त्रयाणामपि लोकानां हितायैक: प्रवर्तसे || ५२ ।।
आप अपनी किरणोंद्वारा तेरहः द्वीपोंसे युक्त सम्पूर्ण पृथ्वीको प्रकाशित करते हैं; और अकेले ही तीनों लोकोंके हितके लिये तत्पर रहते हैं ।। ५२ ।।
तव यद्युदयो न स्यादन्ध॑ जगदिदं भवेत् |
न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरनू मनीषिण: ।। ५३ ।।
यदि आपका उदय न हो तो यह सारा जगत् अंधा हो जाय और मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ एवं कामसम्बन्धी क्मोंमें प्रवृत्त ही न हों ।। ५३ ।।
आधानपशुबन्न्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रिया: ।
त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्म॒क्षत्रविशां गणै: ।। ५४ ।।
गर्भाधान या अग्निकी स्थापना, पशुओंको बाँधना, इष्टि (पूजा), मन्त्र, यज्ञानुष्ठान और तप आदि समस्त क्रियाएँ आपकी ही कृपासे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यगणों द्वारा सम्पन्न की जाती हैं ।। ५४ ।।
यदहर्ब्रह्मण: प्रोक्ते सहस्रयुगसम्मितम् ।
तस्य त्वमादिरन्तश्ष॒ कालज्ञै: परिकीर्तित: ।। ५५ ।।
ब्रद्माजीका जो एक सहस्र युगोंका दिन बताया गया है, कालमानके जाननेवाले विद्वानोंने उसका आदि और अन्त आपको ही बताया है ।। ५५ ।।
मनूनां मनुपुत्राणां जगतो5मानवस्य च ।
मन्वन्तराणां सर्वेषामी श्वराणां त्वमी श्वर: ।। ५६ ।।
मनु और मनुपुत्रोंके, जगतके, (ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाले) अमानव पुरुषके, समस्त मन्वन्तरोंके तथा ईश्वरोंके भी ईश्वर आप ही हैं ।। ५६ ।।
संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनि:सृत: ।
संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते | ५७ ।।
प्रलयकाल आनेपर आपके ही क्रोधसे प्रकट हुई संवर्तक नामक अग्नि तीनों लोकोंको भस्म करके फिर आपमें ही स्थित हो जाती है || ५७ ।।
त्वद्वीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघना: ।
सैरावता: साशनय: कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम् ।। ५८ ।।
आपकी ही किरणोंसे उत्पन्न हुए रंग-बिरंगे ऐरावत आदि महामेघ और बिजलियाँ सम्पूर्ण भूतोंका संहार करती हैं ।। ५८ ।।
कृत्वा द्वादशधा55त्मानं द्वादशादित्यतां गत: ।
संहृत्यैकार्णवं सर्व त्वं शोषयसि रश्मिभि: ।। ५९ ||
फिर आप ही अपनेको बारह स्वरूपोंमें विभक्त करके बारह सूर्योके रूपमें उदित हो अपनी किरणोंद्वारा त्रिलोकीका संहार करते हुए एकार्णवके समस्त जलको सोख लेते हैं ।। ५९ |।
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापति: ।
त्वमग्निस्त्वं मन: सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम् ।। ६० ।।
आपको ही इन्द्र कहते हैं। आप ही रुद्र, आप ही विष्णु और आप ही प्रजापति हैं। अग्नि, सूक्ष्म मन, प्रभु तथा सनातन ब्रह्म भी आप ही हैं ।। ६० ।।
त्वं हंस: सविता भानुरंशुमाली वृषाकपि: ।
विवस्वान् मिहिर: पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च ।। ६१ ।।
सहस्नरश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पति: ।
मार्तण्डो<र्को रवि: सूर्य: शरण्यो दिनकृत् तथा ॥। ६२ ।।
दिवाकर: सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचन: ।
आशुगामी तमोष्नश्न हरिताश्वश्न कीर्त्यसे || ६३ ।।
आप ही हंस (शुद्धस्वरूप), सविता (जगतकी उत्पत्ति करनेवाले), भानु (प्रकाशमान), अंशुमाली (केरणसमूहसे सुशोभित), वृषाकपि (धर्मरक्षक), विवस्वान् [सर्वव्यापी), मिहिर (जलकी वृष्टि करनेवाले), पूषा (पोषक), मित्र (सबके सुहृद), धर्म (धारण करनेवाले), सहस्ररश्मि (हजारों किरणोंवाले), आदित्य (अदितिपुत्र), तपन (तापकारी), गवाम्पति (किरणोंके स्वामी), मार्तण्ड, अर्क (अर्चनीय), रवि, सूर्य (उत्पादक), शरण्य (शरणागतकी रक्षा करनेवाले), दिनकृत् (दिनके कर्ता), दिवाकर (दिनको प्रकट करनेवाले), सप्तसप्ति (सात घोड़ोंवाले), धामकेशी (ज्योतिर्मय किरणोंवाले), विरोचन (देदीप्यमान), आशुगामी (शीघ्रगामी), तमोघ्न (अन्धकारनाशक) तथा हरिताश्व (हरे रंगके घोड़ोंवाले) कहे जाते हैं | ६१--६३ ।।
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक््त्या पूजां करोति यः ।
अनिर्विण्णो5नहंकारी त॑ लक्ष्मीर्भजते नरम् । ६४ ।।
जो सप्तमी अथवा षष्ठीको खेद और अहंकारसे रहित हो भक्तिभावसे आपकी पूजा करता है, उस मनुष्यको लक्ष्मी प्राप्त होती है ।। ६४ ।।
न तेषामापद: सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा ।
ये तवानन्यमनस: कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम् ।। ६५ ।।
भगवन्! जो अनन्य चित्तसे आपकी अर्चना और वन्दना करते हैं, उनपर कभी आपत्ति नहीं आती। वे मानसिक चिन्ताओं तथा रोगोंसे भी ग्रस्त नहीं होते || ६५ ।।
सर्वरोगैर्विरहिता: सर्वपापविवर्जिता: ।
त्वद्धावभक्ता: सुखिनो भवन्ति चिरजीविन: ।। ६६ ।।
जो प्रेमपूर्वक आपके प्रति भक्ति रखते हैं वे समस्त रोगों तथा सम्पूर्ण पापोंसे रहित हो चिरंजीवी एवं सुखी होते हैं || ६६ ।।
त्वं ममापन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षत: ।
अन्नमन्नपते दातुमभित: श्रद्धयाहसि || ६७ ।।
अन्नपते! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करनेकी इच्छासे अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ। आप मुझे अन्न देनेकी कृपा करें || ६७ ।।
ये च ते$नुचरा: सर्वे पादोपान्तं समाश्रिता: ।
माठरारुणदण्डद्यास्तांस्तान् वन्देडशनिक्षुभान् ।। ६८ ।।
आपके चरणोंके निकट रहनेवाले जो माठर, अरुण तथा दण्ड आदि अनुचर (गण) हैं, वे विद्युतके प्रवर्तक हैं। मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ ।। ६८ ।।
क्षुभया सहिता मैत्री याश्वान्या भूतमातर: ।
ताश्न सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम् ।। ६९ ।।
क्षुभाके साथ जो मैत्रीदेवी तथा गौरी, पद्मा आदि अन्य भूतमाताएँ हैं, उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ। वे सभी मुझ शरणागतकी रक्षा करें ।। ६९ ।।
वैशमग्पायन उवाच
एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावन: ।
ततो दिवाकर: प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम् |
दीप्यमान: स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशन: || ७० ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--महाराज! जब युधिष्ठिरने लोकभावन भगवान् भास्करका इस प्रकार स्तवन किया, तब दिवाकरने प्रसन्न होकर उन पाण्डुकुमारको दर्शन दिया। उस समय उनके श्रीअंग प्रज्वलित अग्निके समान उद्भासित हो रहे थे || ७० ।।
विवस्वानुवाच
यत् तेडभिलषितं किंचित् तत् त्वं सर्वमवाप्स्यसि |
अहमन्न प्रदास्यामि सप्त पठच च ते समा: ।। ७१ ||
भगवान् सूर्य बोले--धर्मराज! तुम जो कुछ चाहते हो, वह सब तुम्हें प्राप्त होगा। मैं बारह वर्षोतक तुम्हें अन्न प्रदान करूँगा || ७१ ।।
4 स्ि नि
पर झ जय प् क्र
पाण्डवोंका वनगमन
उर्वशीका अर्जुनको शाप देना
नलका अपने पूर्वरूपमें प्रकट होकर दमयन्तीसे मिलना
भीताप्रेसे गो
जमदग्निका परशुरामसे कार्तवीर्य-अर्जुनका अपराध बताना
महाप्रलयके समय भगवान् मत्स्यके सींगमें बँधी हुई मनु और सप्तर्षियोंसहित नौका
मार्कण्डेय मुनिको अक्षयवटकी शाखापर बालमुकुन्दका दर्शन
#% कि।। ६ ।:६3
कौरवोंद्वारा विराटकी गायोंका हरण
गृह्नीष्व पिठरं ताम्र॑ं मया दत्त नराधिप ।
यावद् वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत ।। ७२ ।।
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे ।
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति ।। ७३ ।।
राजन! यह मेरी दी हुई ताँबेकी बटलोई लो। सुव्रत! तुम्हारे रसोईघरमें इस पात्रद्वारा फल, मूल, भोजन करनेके योग्य अन्य पदार्थ तथा साग आदि जो चार प्रकारकी भोजन- सामग्री तैयार होगी, वह तबतक अक्षय बनी रहेगी, जबतक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी || ७२-७३ ।।
इतश्नतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि |
आजसे चौदहवें वर्षमें तुम अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लोगे || ७३ ३ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुकक््त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्न्तरधीयत ।। ७४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! इतना कहकर भगवान् सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये ।। ७४ ।।
इमं स्तवं प्रयतमना: समाधिना
पठेदिहान्यो5पि वरं समर्थयन् | तत् तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्रुयाद् यद्यपि तत् सुदुर्लभम् ।। ७५ ।।
जो कोई अन्य पुरुष भी मनको संयममें रखकर चित्तवृत्तियोंको एकाग्र करके इस स्तोत्रका पाठ करेगा, वह यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वर भी माँगे तो भगवान् सूर्य उसकी उस मनोवांछित वस्तुको दे सकते हैं || ७५ ।।
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद् वाप्यभीक्षणश: ।
पुत्रार्थी लभते पुत्र धनार्थी लभते धनम् ।
विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषो5प्यथवा स्त्रिय: | ७६ ।।
जो प्रतिदिन इस स्तोत्रको धारण करता अथवा बार-बार सुनता है, वह यदि पुत्रार्थी हो तो पुत्र पाता है, धन चाहता हो तो धन पाता है, विद्याकी अभिलाषा रखता हो तो उसे विद्या प्राप्त होती है और पत्नीकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको पत्नी सुलभ होती है || ७६ ।।
उभे संध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि ।
आप प्राप्य मुच्येत बद्धों मुच्येत बन्धनात् ।। ७७ ।।
स्त्री हो या पुरुष यदि दोनों संध्याओंके समय इस स्तोत्रका पाठ करता है तो आपत्तिमें पड़कर भी उससे मुक्त हो जाता है। बन्धनमें पड़ा हुआ मनुष्य बन्धनसे मुक्त हो जाता है | ७७ |।
एतद् ब्रह्मा ददौ पूर्व शक्राय सुमहात्मने ।
शक्राच्च नारद: प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम् |
धौम्याद् युधिष्ठिर: प्राप्प सर्वान् कामानवाप्तवान् ।। ७८ ।।
यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्माजीने महात्मा इन्द्रको दी, इन्द्रसे नारदजीने और नारदजीसे धौम्यने इसे प्राप्त किया। धौम्यसे इसका उपदेश पाकर राजा युधिष्ठिरने अपनी सब कामनाएँ प्राप्त कर लीं || ७८ ।।
संग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्रुयाद् वसु ।
मुच्यते सर्वपापेभ्य: सूर्यलोक॑ स गच्छति ।। ७९ ।।
जो इसका अनुष्ठान करता है वह सदा संग्राममें विजयी होता है, बहुत धन पाता है, सब पापोंसे मुक्त होता और अन्तमें सूर्यलोकको जाता है ।। ७९ ।।
वैशम्पायन उवाच
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित् ।
जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातृश्च॒ परिषस्वजे ।। ८० ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पूर्वोक्त वर पाकर धर्मके ज्ञाता कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर गंगाजीके जलसे बाहर निकले। उन्होंने धौम्यजीके दोनों चरण पकड़े और भाइयोंको हृदयसे लगा लिया || ८० ।।
द्रौपद्या सह संगम्य वन्द्यमानस्तया प्रभु: ।
महानसे तदानीं तु साधयामास पाण्डव: ।। ८१ ।।
द्रौपदीने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने चूल्हेपर बटलोई रखकर रसोई तैयार करायी ।। ८१ ।।
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम् |
अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान् ।। ८२ ।।
उसमें तैयार की हुई चार प्रकारकी थोड़ी-सी भी रसोई उस पात्रके प्रभावसे बढ़ जाती और अक्षय हो जाती थी। उसीसे वे ब्राह्मणोंको भोजन कराने लगे ।। ८२ ।।
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि ।
शेषं विघससंतज्ञं तु पश्चाद् भुड्धक्ते युधिष्ठिर: ।। ८३ ।।
ब्राह्मणोंक भोजन कर लेनेपर अपने छोटे भाइयोंको भी भोजन करानेके पश्चात् “विघस' संज्ञक अवशिष्ट अन्नको युधिष्ठिर सबसे पीछे खाते थे ।। ८३ ।।
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती ।
द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्न॑ क्षयमेति च ।
एवं दिवाकरात् प्राप्प दिवाकरसमप्रभ: ।। ८४ ।।
कामान् मनो5भिलषितान् बाह्नाणेभ्योडददात् प्रभु: |
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु ।
यज्ञियार्था: प्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणत: || ८५ ।।
युधिष्ठिको भोजन कराकर द्रौपदी शेष अन्न स्वयं खाती थी। द्रौपदीके भोजन कर लेनेपर उस पात्रका अन्न समाप्त हो जाता था। इस प्रकार सूर्यसे मनोवांछित वरोंको पाकर उन्हींके समान तेजस्वी प्रभावशाली राजा युधिष्ठिर ब्राह्मणोंको नियमपूर्वक अन्नदान करने लगे। पुरोहितोंको आगे करके उत्तम तिथि, नक्षत्र एवं पर्वोपर विधि और मन्त्रके प्रमाणके अनुसार उनके यज्ञसम्बन्धी कार्य होने लगे || ८४-८५ ।।
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवा: ।
द्विजसड्घै: परिवृता: प्रययु: काम्यकं वनम् ।। ८६ ।।
तदनन्तर स्वस्तिवाचन कराकर ब्राह्मणसमुदायसे घिरे हुए पाण्डव धौम्यजीके साथ काम्यकवनको चले गये ।। ८६ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि काम्यकवनप्रवेशे तृतीयो5ध्याय: ।। ३ ।॥। इस प्रकार श्रीमह़्ा भारत वनपवकि अन्तर्गत अरण्यपर्वमें काम्यकवनप्रवेशविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥। ३ ॥।
ऑडज आरर | आओ अप
$. बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, आठ वसु, इन्द्र और प्रजापति--ये तैंतीस देवता हैं।
२. सभापर्वके ११ वें अध्याय श्लोक ४६, ४७ में सात पितरोंके नाम इस प्रकार बताये हैं--वैराज, अग्निष्वात्त, सोमपा, गार्हपत्य, एकश्ंग, चतुर्वेद और कला।
- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर--ये सात प्रधान द्वीप माने गये हैं। इनके सिवा, कई उपद्दीप हैं। उनको लेकर यहाँ १३ द्वीप बताये गये हैं।
चतुथों5 ध्याय:
विदुरजीका धृतराष्ट्रको हितकी सलाह देना और धृतराष्ट्रका रुष्ट होकर महलमें चला जाना
वैशम्पायन उवाच
वन॑ प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानो 5म्बिकेय: । धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धि सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा ।। १ ।। वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब पाण्डव वनमें चले गये, तब प्रज्ञाचक्षु अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र मन-ही-मन संतप्त हो उठे। उन्होंने अगाधबुद्धि धर्मात्मा विदुरको बुलाकर स्वयं सुखद आसनपर बैठे हुए उनसे इस प्रकार कहा ।। १ ।। धृतराष्ट्र रवाच प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम् । समक्ष त्वं सम्मत: कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि ।। २ ।। धृतराष्ट्र बोले--विदुर! तुम्हारी बुद्धि शुक्राचार्यके समान शुद्ध है। तुम सूक्ष्म-से-सूक्ष्म श्रेष्ठ धर्मको जानते हो। तुम्हारी सबके प्रति समान दृष्टि है और कौरव तथा पाण्डव सभी तुम्हारा सम्मान करते हैं। अतः मेरे तथा इन पाण्डवोंके लिये जो हितकर कार्य हो, वह मुझे बताओ ।। २ ।। एवंगते विदुर यदद्य कार्य पौराश्न मे कथमस्मान् भजेरन् । ते चाप्यस्मान् नोद्धरेयु: समूलां- स्तत्त्वं ब्रूया: साधुकार्याणि वेत्सि ।। ३ ।। विदुर! ऐसी दशामें अब हमारा जो कर्तव्य हो वह बताओ। ये पुरवासी कैसे हमलोगोंसे प्रेम करेंगे। तुम ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे वे पाण्डव हमलोगोंको जड़-मूलसहित उखाड़ न फेंके। तुम अच्छे कार्योको जानते हो। अतः हमें ठीक-ठीक कर्तव्यका निर्देश करो ।। ३ ।।
विदुर उवाच त्रिवर्गो5यं धर्ममूलो नरेन्द्र
राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति । धर्मे राजन् वर्तमान: स्वशकक््त्या पुत्रान् सर्वान् पाहि पाण्डो:सुतांश्ष ।। ४ ।। विदुरजीने कहा--नरेन्द्र! धर्म, अर्थ और काम इन तीनोंकी प्राप्तिका मूल कारण धर्म ही है। धर्मात्मा पुरुष इस राज्यकी जड़ भी धर्मको ही बतलाते हैं, अतः महाराज! आप धर्मके मार्गपर स्थिर रहकर यथाशक्ति अपने तथा पाण्डुके सब पुत्रोंका पालन कीजिये ।। ४ ।। स वै धर्मो विप्रलब्ध: सभायां पापात्मभि: सौबलेयप्रधानै: । आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत् सत्यसंधं सुतस्ते ।। ५ ।। शकुनि आदि पापात्माओंने द्यूतसभामें उस धर्मके साथ विश्वासघात किया; क्योंकि आपके पुत्रने सत्य-प्रतिज्ञ कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको बुलाकर उन्हें कपटपूर्वक पराजित किया है।। ५ ।। एतस्स्य ते दुष्प्रणीतस्य राजन् शेषस्याहं परिपश्याम्युपायम् । यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापा- न्मुक्तो लोके प्रतितिछेत साधु ।। ६ ।। कुरुराज! दुरात्माओंद्वारा पाण्डवोंके प्रति किये हुए इस दुर्व्यवहारकी शान्तिका उपाय मैं जानता हूँ, जिससे आपका पुत्र दुर्योधन पापसे मुक्त हो लोकमें भलीभाँति प्रतिष्ठा प्राप्त करे ।। ६ ।। तद् वै सर्व पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत् तद् राजन्नभिसूष्टं त्वया55सीत् । एष धर्म: परमो यत् स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत् ॥ ७ ।। आपने पाण्डवोंको जो राज्य दिया था, वह सब उन्हें मिल जाना चाहिये। राजाके लिये यह सबसे बड़ा धर्म है कि वह अपने धनसे संतुष्ट रहे। दूसरेके धनपर लोभभरी दृष्टि न डाले || ७ |। यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्न न स्याद् धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम् । एतत् कार्य तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टि: शकुनेश्चावमान: ॥। ८ ॥।
ऐसा कर लेनेपर आपके यशका नाश नहीं होगा, भाइयोंमें फ़ूट नहीं होगी और आपको धर्मकी भी प्राप्ति होगी। आपके लिये सबसे प्रमुख कार्य यह है कि पाण्डवोंको संतुष्ट करें और शकुनिका तिरस्कार करें || ८ ।। एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्या- देतद् राजंस्त्वरमाण: कुरुष्व | तथैतदेवं न करोषि राजन् ध्रुवं कुरूणां भविता विनाश: ॥। ९ ।। राजन! ऐसा करनेपर भी यदि आपके पुत्रोंका भाग्य शेष होगा तो उनका राज्य उनके पास रह जायगा; अतः आप शीघ्र ही यह काम कर डालिये। महाराज! यदि आप ऐसा न करेंगे तो कौरवकुलका निश्चय ही नाश हो जायगा ।। ९ ।। न हि क्रुद्धों भीमसेनो<र्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके । येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो भधनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम् ।। १० ।। येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके कि नु न प्राप्यमस्ति । उक्त पूर्व जातमात्रे सुते ते मया यत् ते हितमासीत् तदानीम् ।। ११ ।। क्रोधमें भरे हुए भीमसेन अथवा अर्जुन अपने शत्रुओंकी सेनामें किसीको जीवित नहीं छोड़ेंगे। अस्त्रविद्यामें निपुण सव्यसाची अर्जुन जिनके योद्धा हैं, सम्पूर्ण लोकोंका सारभूत गाण्डीव जिनका धनुष है तथा अपने बाहुबलसे सुशोभित होनेवाले भीमसेन जिनकी ओरसे युद्ध करनेवाले हैं, उन पाण्डवोंके लिये संसारमें ऐसी कौन-सी वस्तु है जो प्राप्त न हो सके। आपके पुत्र दुर्योधनके जन्म लेते ही मुझे उस समय जो हितकी बात जान पड़ी, वह मैंने पहले ही बता दी थी ।। १०-११ ।। पुत्र त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं॑ न च तत् त्वं चकर्थ । इदं च राजन् हितमुक्तं न चेत् त्व- मेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात् ।। १२ ।। मैंने साफ कह दिया था कि आपका यह पुत्र समस्त कुलका अहित करनेवाला है, अतः इसको त्याग दीजिये; परंतु आपने मेरी उत्तम और सात्त्विक सलाहके अनुसार कार्य नहीं किया। राजन्! इस समय भी मैंने जो यह आपके हितकी बात बतायी है यदि उसे आप नहीं करेंगे तो आपको बहुत पश्चात्ताप करना पड़ेगा ।। १२ ।। यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते
सम्प्रीयमाण: पाण्डवैरेकराज्यम् । तापो न ते भविता प्रीतियोगा- न्न चेन्निगृह्लीष्व सुतं सुखाय ।। १३ ।। यदि आपका पुत्र दुर्योधन प्रसन्नतापूर्वक पाण्डवोंके साथ एक राज्य बनानेकी बात मान ले तो आपको पश्चात्ताप नहीं होगा, प्रसन्नता ही प्राप्त होगी। यदि दुर्योधन आपकी बात न माने तो समस्त कुलको सुख पहुँचानेके लिये आप अपने उस पुत्रपर नियन्त्रण कीजिये ।। १३ ।। दुर्योधन त्वहितं वै निगृहा पाण्डो: पुत्र कुरुष्वाधिपत्ये । अजातशश्न्रुहि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन् ।। १४ ।। इस प्रकार अहितकारक दुर्योधनको काबूमें करके आप पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको राज्यपर अभिषिक्त कर दीजिये; क्योंकि वे अजातशत्रु हैं। उनका किसीसे राग या द्वेष नहीं है। राजन! वे ही इस पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन करेंगे ।। १४ ।। ततो राजन् पार्थिवा: सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठ न्तु सद्य: । दुर्योधन: शकुनि: सूतपुत्र: प्रीत्या राजन् पाण्डुपुत्रान् भजन्तु ।। १५ ।। महाराज! यदि ऐसा हुआ तो भूमण्डलके समस्त राजा वैश्योंकी भाँति उपहार ले हम कौरवोंकी सेवामें शीघ्र उपस्थित होंगे। राजराजेश्वर! दुर्योधन, शकुनि तथा सूतपुत्र कर्ण प्रेमपूर्वक पाण्डवोंको अपनावें ।। १५ ।। दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च । युधिष्टिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य ।। १६ ।। दुःशासन भरी सभामें भीमसेन तथा द्रौपदीसे क्षमा माँगे और आप युधिष्ठिरको भलीभाँति सान्त्वना दे सम्मानपूर्वक इस राज्यपर बिठा दीजिये ।। १६ ।। त्वया पृष्टः किमहमन्यद् वदेय- मेतत् कृत्वा कृतकृत्योडसि राजन् ।। १७ ।। कुरुराज! आपने हितकी बात पूछी है तो मैं इसके सिवा और क्या बताऊँ। यह सब कर लेनेपर आप कृतकृत्य हो जायँगे ।। १७ ।।
धघतयाट्र उवाच
एतद् वाक््यं विदुर यत् ते सभाया- मिह प्रोक्तं पाण्डवान् प्राप्य मां च । हित॑ तेषामहितं मामकाना- मेतत् सर्व मम नावैति चेत: ।। १८ ।। धृतराष्ट्रने कहा--विदुर! तुमने यहाँ सभामें पाण्डवोंके तथा मेरे विषयमें जो बात कही है वह पाण्डवोंके लिये तो हितकर है, पर मेरे पुत्रोंक लिये अहितकारक है, अत: यह सब मेरा मन स्वीकार नहीं करता है ।। १८ ।। इदं त्विदानीं गत एव निद्षितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ | तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्र पाण्डवार्थे त्यजेयम् ।। १९ ।। इस समय तुम जो कुछ कह रहे हो इससे यह भलीभाँति निश्चय होता है कि तुम पाण्डवोंके हितके लिये ही यहाँ आये थे। तुम्हारे आजके ही व्यवहारसे मैं समझ गया कि तुम मेरे हितैषी नहीं हो। मैं पाण्डवोंके लिये अपने पुत्रोंको कैसे त्याग दूँ || १९ ।। असंशयं तेडपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात् प्रसूत: । स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को नु ब्रूयात् समतामन्ववेक्ष्य ।। २० ।। इसमें संदेह नहीं कि पाण्डव भी मेरे पुत्र हैं, पर दुर्योधन साक्षात् मेरे शरीरसे उत्पन्न हुआ है। समताकी ओर दृष्टि रखते हुए भी कौन किसको ऐसी बातें कहेगा कि तुम दूसरेके हितके लिये अपने शरीरका त्याग कर दो ।। २० ।। स मां जिह्दां विदुर सर्व ब्रवीषि मानं च तेडहमधिकं धारयामि । यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति ।। २१ ।। विदुर! मैं तुम्हारा अधिक सम्मान करता हूँ; किंतु तुम मुझे सब कुटिलतापूर्ण सलाह दे रहे हो। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, चले जाओ या रहो। तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। कुलटा स्त्रीको कितनी ही सान्त्वना दी जाय, वह स्वामीको त्याग ही देती है || २१ ।।
वैशम्पायन उवाच
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोडन्वपद्य- दन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन् | नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाण:
सम्प्राद्रवद् यत्र पार्था बभूवु: ॥। २२ ।। वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र सहसा उठकर महलके भीतर चले गये। तब विदुरने यह कहकर कि अब इस कुलका नाश अवश्यम्भावी है, जहाँ पाण्डव थे वहाँ चले गये || २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थो 5ध्याय: ।। ४ ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें विदुरवाक्यप्रत्याख्यान-विषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥। ४ ॥
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पञठ्चमो<ध्याय:
पाण्डवोंका काम्यकवनमें प्रवेश और विदुरजीका वहाँ जाकर उनसे मिलना और बातचीत करना
वैशम्पायन उवाच
पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभा: ।
प्रययुर्जाह्नवीकूलात् कुरुक्षेत्र सहानुगा: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भरतवंश-शिरोमणि पाण्डव वनवासके लिये गंगाजीके तटसे अपने साथियोंसहित कुरक्षेत्रमें गये | १ ।।
सरस्वतीदृषद्धत्यौ यमुनां च निषेव्य ते ।
ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम् ।। २ ।।
उन्होंने क्रमशः सरस्वती, दृषद्वती और यमुना नदीका सेवन करते हुए एक वनसे दूसरे वनमें प्रवेश किया। इस प्रकार वे निरन्तर पश्चिम दिशाकी ओर बढ़ते गये ।॥ २ ।।
ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु ।
काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम् ।। ३ ।।
तदनन्तर सरस्वती-तट तथा मरुभूमि एवं वन्य प्रदेशोंकी यात्रा करते हुए उन्होंने काम्यकवनका दर्शन किया, जो ऋषि-मुनियोंके समुदायको बहुत ही प्रिय था ।। ३ ।।
तत्र ते न्यवसन् वीरा वने बहुमृगद्धिजे ।
अन्वास्यमाना मुनिश्रि: सान्त्व्यमानाश्न भारत ।। ४ ।।
भारत! उस वनमें बहुत-से पशु-पक्षी निवास करते थे। वहाँ मुनियोंने उन्हें बिठाया और बहुत सान्त्वना दी। फिर वे वीर पाण्डव वहीं रहने लगे ।। ४ ।।
विदुरस्त्वथ पाण्डूनां सदा दर्शनलालस: ।
जगामैकरयथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत् ।। ५ ।।
इधर विदुरजी सदा पाण्डवोंको देखनेके लिये उत्सुक रहा करते थे। वे एकमात्र रथके द्वारा काम्यकवनमें गये, जो वनोचित सम्पत्तियोंसे भरा-पूरा था || ५ |।
ततो गत्वा विदुर: काम्यकं त-
च्छीघ्रैरश्वेर्वाहिना स्यन्दनेन । ददर्शासीनं धर्मात्मानं विविक्ते सार्थ द्रौपद्या भ्रातृभिन्र्मिणैश्व ।। ६ ।।
शीघ्रगामी अश्वोंद्वारा खींचे जानेवाले रथसे काम्यक-वनमें पहुँचकर विदुरजीने देखा
धर्मात्मा युधिष्ठिर एकान्त प्रदेशमें द्रौपदी, भाइयों तथा ब्राह्मणोंके साथ बैठे हैं ।। ६ ।।
ततो<पश्यद् विदुरं तूर्णमारा-
दभ्यायान्तं सत्यसंध: स राजा । अथाब्रवीद् भ्रातरं भीमसेनं
कि नु क्षत्ता वक्ष्यति न: समेत्य ।। ७ ।।
सत्यप्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिरने जब बड़ी उतावलीके साथ विदुरजीको अपने निकट आते देखा तब भाई भीमसेनसे कहा--'ये विदुरजी हमारे पास आकर न जाने क्या कहेंगे || ७ ।।
कच्चिन्नायं वचनात् सौबलस्य
समाह्दाता देवनायोपयात: ।
कच्चित् क्षुद्र: शकुनिर्नायुधानि
जेष्यत्यस्मान् पुनरेवाक्षवत्याम् ।। ८ ।।
'ये शकुनिके कहनेसे हमें फिर जूआ खेलनेके लिये बुलाने तो नहीं आ रहे हैं। कहीं नीच शकुनि हमें फिर द्यूत-सभामें बुलाकर हमारे आयुधोंको तो जीत नहीं लेगा ।। ८ ।।
समाहूतः केनचिदाद्रवेति
नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम् | गाण्डीवे च संशयिते कथं नु राज्यप्राप्ति: संशयिता भवेन्न: ।। ९ ।।
'भीमसेन! आओ, कहकर यदि कोई मुझे (युद्ध या द्यूतके लिये) बुलावे तो मैं पीछे नहीं हट सकता। ऐसी दशामें यदि हम गाण्डीव धनुष किसी तरह जूएमें हार गये तो हमारी राज्य-प्राप्ति संशयमें पड़ जायगी” ।। ९ ।।
वैशम्पायन उवाच
तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेया: प्रत्यगृह्लन नृपते सर्व एव । तैः सत्कृत: स च तानाजमीढो यथोचितं पाण्डुपुत्रान् समेयात् । १० ।। वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर सब पाण्डवोंने उठकर विदुरजीकी अगवानी की। उनके द्वारा किया हुआ यथोचित स्वागत-सत्कार ग्रहण करके अजमीढवंशी विदुर पाण्डवोंसे मिले ।। १० ।। समाश्चस्तं विदुरं ते नरर्ष भा- स्ततो<पृच्छन्नागमनाय हेतुम् ।
स चापि तेभ्यो विस्तरत: शशंस यथावृत्तो धृतराष्ट्रोडम्बिकेय: ।। ११ ।। विदुरजीके आदर-सत्कार पानेपर नरश्रेष्ठ पाण्डवोंने उनसे वनमें आनेका कारण पूछा। उनके पूछनेपर विदुरने भी अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने जैसा बर्ताव किया था, वह सब विस्तारपूर्वक कह सुनाया ।। ११ ।।
विदुर उवाच अवोचन्मां धृतराष्ट्रो ईनुगुप्त- मजातशत्रो परिगृह्माभिपूज्य । एवं गते समतामभ्युपेत्य
पथ्य॑ तेषां मम चैव ब्रवीहि ।। १२ ।। विदुरजी बोले--अजातशत्रो! राजा धृतराष्ट्रने मुझे अपना रक्षक समझकर बुलाया और मेरा आदर करके कहा--“विदुर! आजकी परिस्थितिमें समभाव रखकर तुम ऐसा कोई उपाय बताओ जो मेरे और पाण्डवोंके लिये हितकर हो” | १२ ।। मयाप्युक्तं यत् क्षेमं कौरवाणां हित॑ पथ्य॑ धृतराष्ट्रस्य चैव ।
तद् वै तस्मै न रुचाम भ्युपैति ततक्षाहं क्षेममन्यन्न मन््ये ।। १३ ।। तब मैंने भी ऐसी बातें बतायीं जो सर्वधा उचित तथा कौरववंश एवं धृतराष्ट्रके लिये भी हितकर और लाभदायक थीं। वह बात उनको नहीं रुची और मैं उसके सिवा दूसरी कोई बात उचित नहीं समझता था ।। १३ ।। परं श्रेय: पाण्डवेया मयोक्तं न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेय: । यथा<5तुरस्येव हि पथ्यमन्ने न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम् ।। १४ ।। पाण्डवो! मैंने दोनों पक्षके लिये परम कल्याणकी बात बतायी थी, परंतु अम्बिकानन्दन महाराज धूृतराष्ट्रने मेरी वह बात नहीं सुनी। जैसे रोगीको हितकर भोजन अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार राजा धूृतराष्ट्रको मेरी कही हुई हितकर बात भी पसंद नहीं आती ।। १४ || न श्रेयसे नीयतेडजातशत्रो स्त्री श्रोत्रियस्थेव गृहे प्रदुष्टा । ध्रुवं न रोचेद् भरतर्षभस्य पति: कुमार्या इव षष्टिवर्ष: ।। १५ ।। अजातशशत्रो! जैसे श्रोत्रियके घरकी दुष्टा स्त्री श्रेयके मार्गपर नहीं लायी जा सकती, उसी प्रकार राजा धृतराष्ट्रको कल्याणके मार्गपर लाना असम्भव है। जैसे कुमारी कन्याको साठ वर्षका बूढ़ा पति अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्रको मेरी कही हुई बात निश्चय ही नहीं रुचती ।। १५ ।। ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां न वै श्रेयो धृतराष्ट्र: परैति । यथा च पर्णे पुष्करस्यावसिक्तं जल न तिषछेत् पथ्यमुक्ते तथास्मिन् ।। १६ ।। राजन! राजा धृतराष्ट्र कल्याणकारी उपाय नहीं ग्रहण करते हैं, अत: यह निश्चय जान पड़ता है कि कौरवकुलका विनाश अवश्यम्भावी है। जैसे कमलके पत्तेपर डाला हुआ जल नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार कही हुई हितकर बात राजा धृतराष्ट्रके मनमें स्थान नहीं पाती है ।। १६ || ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोडब्रवीन्मां यस्मिन् श्रद्धा भारत तत्र याहि । नाहं भूय: कामये त्वां सहायं महीमिमां पालयितु पुरं वा ।। १७ ।।
उस समय राजा धृतराष्ट्रने कृपित होकर मुझसे कहा--“भारत! जिसपर तुम्हारी श्रद्धा हो वहीं चले जाओ। अब मैं इस राज्य अथवा नगरका पालन करनेके लिये तुम्हारी सहायता नहीं चाहता' ।। १७ |। सोऊहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा प्रशासितुं त्वामुपयातो नरेन्द्र । तद् वै सर्व यन्मयोक्त सभायां तद् धार्यतां यत् प्रवक्ष्यामि भूय: ।। १८ ।। नरेन्द्र! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्रने मुझे त्याग दिया है; अतः मैं तुम्हें उपदेश देनेके लिये आया हूँ। मैंने सभामें जो कुछ कहा था और पुन: इस समय जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब तुम धारण करो ।। १८ ।। क्लेशैस्तीव्रैर्युज्यमान: सपत्नै: क्षमां कुर्वन्ू कालमुपासते यः । संवर्धयन् स्तोकमिवाग्निमात्मवान् स वै भुड्क्ते पृथिवीमेक एव ।। १९ ।। जो शत्रुओंद्वारा दुःसह कष्ट दिये जानेपर भी क्षमा करते हुए अनुकूल अवसरकी प्रतीक्षा करता है; तथा जिस प्रकार थोड़ी-सी आगको भी लोग घास-फूसके द्वारा प्रज्वलित करके बढ़ा लेते हैं, वैसे ही जो मनको वशमें रखकर अपनी शक्ति और सहायकोंको बढ़ाता है, वह अकेला ही सारी पृथ्वीका उपभोग करता है ।। १९ ।। यस्याविभक्तं वसु राजन् सहायै- स्तस्य दुःखे5प्यंशभाज: सहाया: । सहायानामेष संग्रहणे<ध्युपाय: सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहु: ॥। २० ।। राजन! जिसका धन सहायकोंके लिये बाँटा नहीं है; अर्थात् जिसके धनको सहायक भी अपना ही समझकर भोगते हैं, उसके दुःखमें भी वे सब लोग हिस्सा बँटाते हैं। सहायकोंके संग्रहका यही उपाय है। सहायकोंकी प्राप्ति हो जानेपर पृथ्वीकी ही प्राप्ति हो गयी, ऐसा कहा जाता है ।। २० ।। सत्यं श्रेष्ठ पाण्डव विप्रलापं तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायै: । आत्मा चैषामग्रतो न सम पूज्य एवंवृत्तिर्वर्धती भूमिपाल: ।। २१ ।। पाण्डुनन्दन! व्यर्थकी बकवादसे रहित सत्य बोलना ही श्रेष्ठ है। अपने सहायक भाई- बन्धुओंके साथ बैठकर समान अन्नका भोजन करना चाहिये। उन सबके आगे अपनी मान-
बड़ाई तथा पूजाकी बातें नहीं करनी चाहिये। ऐसा बर्ताव करनेवाला भूपाल सदा उन्नतिशील होता है || २१ ।।
युधिछिर उवाच
एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्त: । यच्चाप्यन्यद्रेशकालोपपन्नं तद् वै वाच्यं तत् करिष्यामि कृत्स्नम् ।। २२ ।। युधिष्ठिर बोले--विदुरजी! मैं उत्तम बुद्धिका आश्रय ले सतत सावधान रहकर आप जैसा कहते हैं वैसा ही करूँगा। और भी देश-कालके अनुसार आप जो कर्तव्य उचित समझें, वह बतावें। मैं उसका पूर्णरूपसे पालन करूँगा ।। २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरनिर्वासे पठचमो<ध्याय: ।। ५ ।। इस प्रकार श्रीमह्ाभारत वनपवके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें विदुरनिवासनविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५ ॥
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षष्ठो5 ध्याय:
धृतराष्ट्रका संजयको भेजकर विदुरको वनसे बुलवाना और उनसे क्षमा-प्रार्थना
वैशम्पायन उवाच
गते तु विदुरे राजन्नाश्रमं पाण्डवान् प्रति ।
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञ: पर्यतप्यत भारत ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! जब विदुरजी पाण्डवोंके आश्रमपर चले गये, तब महाबुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रको बड़ा पश्चात्ताप हुआ ।। १ ।।
विदुरस्य प्रभावं च संधिविग्रहकारितम् ।
विवृद्धि च परां मत्वा पाण्डवानां भविष्यति ॥। २ ।।
उन्होंने सोचा, विदुर संधि और विग्रह आदिकी नीतिको अच्छी तरह जानते हैं, जिसके कारण उनका बहुत बड़ा प्रभाव है। वे पाण्डवोंके पक्षमें हो गये तो भविष्यमें उनका महान् अभ्युदय होगा ।। २ ।।
स सभाद्वारमागम्य विदुरस्मारमोहितः ।
समक्ष॑ पार्थिवेन्द्राणां पपाताविष्टचेतन: ।। ३ ।।
विदुरका स्मरण करके वे मोहित-से हो गये और सभाभवनके द्वारपर आकर सब राजाओंके देखते-देखते अचेत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ३ ।।
स तु लब्ध्वा पुन: संज्ञां समुत्थाय महीतलात् |
समीपोपस्थितं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् ।। ४ ।।
फिर होशमें आनेपर वे पृथ्वीसे उठ खड़े हुए और समीप आये हुए संजयसे इस प्रकार बोले-- || ४ ।।
भ्राता मम सुदहृच्चैव साक्षाद् धर्म इवापर: ।
तस्य स्मृत्याद्य सुभृशं हृदयं दीर्यतीव मे ।। ५ ।।
“संजय! विदुर मेरे भाई और सुहृद् हैं। वे साक्षात् दूसरे धर्मके समान हैं। उनकी याद आनेसे आज मेरा हृदय अत्यन्त विदीर्ण-सा होने लगा है ।। ५ ।।
तमानयस्व धर्मज्ञं मम भ्रातरमाशु वै ।
इति ब्रुवन् स नृपति: कृपणं पर्यदेवयत् ।। ६ ।।
“तुम मेरे धर्मज्ञ भ्राता विदुरको शीघ्र यहाँ बुला लाओ।” ऐसा कहते हुए राजा धुृतराष्ट्र दीनभावसे फूट-फ़ूटकर रोने लगे || ६ ।।
पश्चात्तापाभिसंतप्तो विदुरस्मारमोहित: ।
भ्रातृस्नेहादिदं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् ।। ७ ।।
महाराज धुृतराष्ट्र विदुरकी याद आनेसे मोहित हो पश्चात्तापसे खिन्च हो उठे और भ्रातृस्नेहवश संजयसे पुन: इस प्रकार बोले-- ।। ७ ।।
गच्छ संजय जानीहि भ्रातरं विदुरं मम ।
यदि जीवति रोषेण मया पापेन निर्धुत: ।। ८ ।।
संजय! जाओ, मेरे भाई विदुरका पता लगाओ। मुझ पापीने क्रोधवश उन्हें निकाल दिया। वे जीवित तो हैं न? ।। ८ ।।
न हि तेन मम क्षात्रा सुसूक्ष्ममपि किंचन ।
व्यलीकं कृतपूर्व वै प्राज्ञेनामितबुद्धिना ।। ९ ।।
“अपरिमित बुद्धिवाले मेरे उन विद्वान भाईने पहले कभी कोई छोटा-सा भी अपराध नहीं किया है ।। ९ ।।
स व्यलीकं पर प्राप्तो मत्त: परमबुद्धिमान् ।
त्यक्ष्यामि जीवितं प्राज्ञ तं गच्छानय संजय ।। १० ।।
“बुद्धिमान् संजय! मुझसे परम मेधावी विदुरका बड़ा अपराध हुआ। तुम जाकर उन्हें ले आओ, नहीं तो मैं प्राण त्याग दूँगा” ।। १० ।।
तस्य तदू वचन श्रुत्वा राज्ञस्तमनुमान्य च |
संजयो बाढमित्युक्त्वा प्राद्रवत् काम्यकं प्रति ।। ११ ।।
सो<5चिरेण समासाद्य तद् वन यत्र पाण्डवा: ।
रौरवाजिनसंवीतं ददर्शाथ युधिष्िरम् ।। १२ ।।
विदुरेण सहासीन ब्राह्मणैश्व सहस्रश: ।
भ्रातृभिश्चाभिसंगुप्तं देवैरिव पुरंदरम् ।। १३ ।।
राजाका यह वचन सुनकर संजयने उनका आदर करते हुए “बहुत अच्छा” कहकर काम्यकवनको प्रस्थान किया। जहाँ पाण्डव रहते थे, उस वनमें शीघ्र ही पहुँचकर संजयने देखा, राजा युधिष्छिर मृगचर्म धारण करके विदुरजी तथा सहमों ब्राह्मणोंके साथ बैठे हुए हैं। और देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रकी भाँति अपने भाइयोंसे सुरक्षित हैं | ११--१३ ।।
युधिष्ठिरमुपागम्य पूजयामास संजय: ।
भीमार्जुनयमाश्चापि तद्युक्त प्रतिपेदिरे || १४ ।।
युधिष्ठिरके पास पहुँचकर संजयने उनका सम्मान किया। फिर भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेवने संजयका यथोचित सत्कार किया ।। १४ ।।
राज्ञा पृष्ट: स कुशलं सुखासीनश्न संजय: ।
शशंसागमने हेतुमिदं चैवाब्रवीद् वच: ।। १५ ।।
राजा युधिष्ठिरके कुशल-प्रश्न करनेके पश्चात् जब संजय सुखपूर्वक बैठ गया, तब अपने आनेका कारण बताते हुए उसने इस प्रकार कहा ।। १५ |।
संजय उवाच
राजा स्मरति ते क्षत्तर्धुतराष्ट्रो अम्बिकासुत: ।
त॑ पश्य गत्वा त्वं क्षिप्रं संजीवय च पार्थिवम् ।। १६ ।।
संजयने कहा--विदुरजी! अम्बिकानन्दन महाराज धृतराष्ट्र आपको स्मरण करते हैं। आप जल्दी चलकर उनसे मिलिये और उन्हें जीवनदान दीजिये ।। १६ ।।
सो<नुमान्य नरश्रेष्ठान् पाण्डवान् कुरुनन्दनान् ।
नियोगाद् राजसिंहस्य गन्तुमरहसि सत्तम || १७ ।।
साधुशिरोमणे! आप कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले इन नरश्रेष्ठ पाण्डवोंसे आदरपूर्वक विदा लेकर महाराजके आदेशसे शीघ्र उनके पास चलें || १७ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तस्तु विदुरो धीमान् स््वजनवल्लभ: ।
युधिष्ठटिरस्यानुमते पुनरायाद् गजाह्वयम् ।। १८ ।।
तमब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रो3म्बिकासुत: ।
दिष्ट्या प्राप्तोडसि धर्मज्ञ दिष्ट्या स्मरसि मेडनघ ।। १९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! स्वजनोंके परम प्रिय बुद्धिमान् विदुरजीसे जब संजयने इस प्रकार कहा, तब वे युधिष्ठिरकी अनुमति लेकर फिर हस्तिनापुरमें आये। वहाँ महातेजस्वी अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्रने उनसे कहा--'धर्मज्ञ विदुर! तुम आ गये, यह मेरे बड़े सौभाग्यकी बात है। अनघ! यह भी मेरे सौभाग्यकी बात है कि तुम मुझे भूले नहीं ।। १८-१९ ||
अद्य रात्रौ दिवा चाहं त्वत्कृते भरतर्षभ ।
प्रजागरे प्रपश्यामि विचित्र देहमात्मन: ।। २० ।।
“भरतकुलभूषण! मैं आज दिन-रात तुम्हारे लिये जागते रहनेके कारण अपने शरीरकी विचित्र दशा देख रहा हूँ! || २० ।।
सो<ड्कमानीय विदुरं मूर्थन्याप्राय चैव ह ।
क्षम्यतामिति चोवाच यदुक्तोडसि मयानघ ।। २१ ।।
ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्रने विदुरको अपने हृदयसे लगा लिया और उनका मस्तक सूँघते हुए कहा--“निष्पाप विदुर! मैंने तुमसे जो अप्रिय बात कह दी है, उसके लिये मुझे क्षमा करो” || २१ ।।
|| १ ।
4 ||
हे एक सजा " हि ््क््ट
विदुर उवाच क्षान्तमेव मया राजन गुरुर्मे परमो भवान् | एषो5हमागत: शीघ्र त्वद्दर्शनपरायण: ।। २२ ।। भवन्ति हि नरव्याप्र पुरुषा धर्मचेतस: । दीनाभिपातिनो राजन् नात्र कार्या विचारणा ॥। २३ ।।
विदुरने कहा--राजन्! मैंने तो सब क्षमा कर ही दिया है। आप मेरे परम गुरु हैं। मैं शीघ्रतापूर्वक आपके दर्शनके लिये आया हूँ। नरश्रेष्ठ! धर्मात्मा पुरुष दीन जनोंकी ओर अधिक झुकते हैं। आपको इसके लिये मनमें विचार नहीं करना चाहिये || २२-२३ ।।
पाण्डो: सुता यादृशा मे तादृशास्तव भारत । दीना इतीव मे बुद्धिरभिपन्नाद्य तान् प्रति ।। २४ ।।
भारत! मेरे लिये जैसे पाण्डुके पुत्र हैं, वैसे ही आपके भी। परंतु पाण्डव इन दिनों दीन
दशामें हैं, अतः उनके प्रति मेरे हृदयका झुकाव हो गया ।। २४ ।। वैशम्पायन उवाच
अन्योन्यमनुनीयैवं भ्रातरौ द्वौ महाद्युती । विदुरो धृतराष्ट्रश्न लेभाते परमां मुदम् ।। २५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! वे दोनों महातेजस्वी भाई विदुर और धूृतराष्ट्र एक-दूसरेसे अनुनय-विनय करके अत्यन्त प्रसन्न हो गये || २५ ।। इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरप्रत्यागमने षष्ठो5ध्याय: ।। ६ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें विदुरप्रत्यागयमनविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥। ६ ॥
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सप्तमो<्ध्याय:
दुर्योधन, दःशासन, शकुनि और कर्णकी सलाह, पाण्डवोंका वध करनेके लिये उनका वनमें जानेकी तैयारी तथा व्यासजीका आकर उनको रोकना
वैशम्पायन उवाच
श्र॒ुत्वा च विदुरं प्राप्त राज्ञा च परिसान्त्वितम् ।
धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मति: ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! विदुर आ गये और राजा धूृतराष्ट्रने उन्हें सान्त्वना देकर रख लिया, यह सुनकर दुष्ट बुद्धिवाला धृतराष्ट्रकुमार राजा दुर्योधन संतप्त हो उठा ।। १ ।।
स सौबलेयमानाय्य कर्णदुःशासनौ तथा ।
अब्रवीद् वचन राजा प्रविश्याबुद्धिजं तम: ।। २ ।।
उसने शकुनि, कर्ण और दुःशासनको बुलाकर अज्ञानजनित मोहमें मग्न हो इस प्रकार कहा-- || २ ||
एष प्रत्यागतो मन्त्रो धृतराष्ट्रस्य धीमत: ।
विदुर: पाण्डुपुत्राणां सुहृद् विद्वान् हिते रत: ॥। ३ ।।
“बुद्धिमान पिताजीका यह मन्त्री विदुर फिर लौट आया। विदुर विद्वान् होनेके साथ ही पाण्डवोंका सुहृद् और उन्हींके हितसाधनमें संलग्न रहनेवाला है ।। ३ ।।
यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति ।
पाण्डवानयने तावन्मन्त्रयध्वं हित॑ं मम ।। ४ ।।
“यह पिताजीके विचारको पुनः पाण्डवोंके लौटा लानेकी ओर जबतक नहीं खींचता, तभीतक मेरे हित-साधनके विषयमें तुमलोग कोई उत्तम सलाह दो ।। ४ ।।
अथ पश्याम्यहं पार्थान् प्राप्तानिह कथंचन ।
पुन: शोषं गमिष्यामि निरम्बुर्निरवग्रह: ।। ५ ।।
“यदि मैं किसी प्रकार पाण्डवोंको यहाँ आया देख लूँगा तो जलका भी परित्याग करके स्वेच्छासे अपने शरीरको सुखा डालूँगा ।। ५ ।।
विषमुद्धन्धनं चैव शस्त्रमग्निप्रवेशनम् ।
करिष्ये न हि तानृद्धान् पुनर्द्रष्टमिहोत्सहे ।। ६ ।।
“मैं जहर खा लूँगा, फाँसी लगा लूँगा, अपने-आपको ही शस्त्रसे मार दूँगा अथवा जलती आगममें प्रवेश कर जाऊँगा; परंतु पाण्डवोंको फिर बढ़ते या फलते-फूलते नहीं देख
सकूँगा” ।। ६ || शकुनिरुवाच
कि बालिशमतिं राजन्नास्थितो5सि विशाम्पते ।
गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति ।। ७ ।।
शकुनि बोला--राजन्! तुम भी क्या नादान बच्चोंके-से विचार रखते हो? पाण्डव प्रतिज्ञा करके वनमें गये हैं। वे उस प्रतिज्ञाको तोड़कर लौट आवें, ऐसा कभी नहीं होगा ।। ७ ।।
सत्यवाक्यस्थिता: सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ |
पितुस्ते वचन तात न ग्रहीष्यन्ति कहिचित् ।। ८ ।॥।
भरतवंशशिरोमणे! सब पाण्डव सत्य वचनका पालन करनेमें संलग्न हैं। तात! वे तुम्हारे पिताकी बात कभी स्वीकार नहीं करेंगे ।। ८ ।।
अथवाते ग्रहीष्यन्ति पुनरेष्यन्ति वा पुरम् ।
निरस्य समयं सर्वे पणो5स्माकं भविष्यति ।। ९ ।।
अथवा यदि वे तुम्हारे पिताकी बात मान लेंगे और प्रतिज्ञा तोड़कर इस नगरमें आ जायूँगे तो हमारा व्यवहार इस प्रकार होगा ।। ९ ।।
सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिन: ।
छिद्रं बहु प्रपश्यन्त: पाण्डवानां सुसंवृता: ।। १० ।।
हम सब लोग राजाकी आज्ञाका पालन करते हुए मध्यस्थ हो जायँगे और छिपे-छिपे पाण्डवोंके बहुत-से छिद्र देखते रहेंगे || १० ।।
दुःशासन उवाच
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल ।
नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्विरोचते ।। ११ ।।
दुःशासनने कहा--महाबुद्धिमान् मामाजी! आप जैसा कहते हैं, वही मुझे भी ठीक जान पड़ता है। आपके मुखसे जो विचार प्रकट होता है, वह मुझे सदा अच्छा लगता है ।। ११ ||
कर्ण उवाच
काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम् ।
ऐकमत्यं हि नो राजन् सर्वेषामेव लक्षये ।। १२ ।।
कर्ण बोला--ददुर्योधन! हम सब लोग तुम्हारी अभिलषित कामनाकी पूर्तिके लिये सचेष्ट हैं। राजन! इस विषयमें हम सभीका एक मत दिखायी देता है || १२ ।।
नागमिष्यन्ति ते धीरा अकृत्वा कालसंविदम् |
आगमिष्यन्ति चेन्मोहात् पुनर्यूतेन तान् जय ।। १३ ।। धीरबुद्धि पाण्डव निश्चित समयकी अवधिको पूर्ण किये बिना यहाँ नहीं आयँगे; और यदि वे मोहवश आ भी जायाँ तो तुम पुनः जूएके द्वारा उन्हें जीत लेना ।। १३ ।। वैशम्पायन उवाच
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा ।
नातिदृष्टमना: क्षिप्रमभवत् स पराड्मुख: ।। १४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कर्णके ऐसा कहनेपर उस समय राजा दुर्योधनको अधिक प्रसन्नता नहीं हुई। उसने तुरंत ही अपना मुँह फेर लिया ।। १४ ।।
उपलभ्य तत: कर्णो विवृत्य नयने शुभे ।
रोषाद् दुःशासनं चैव सौबलं च तमेव च ।। १५ ।।
उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना |
अथो मम मतं यत् तु तन्निबोधत भूमिपा: ।। १६ ।।
तब उसके आशयको समझकर कर्णने रोषसे अपनी सुन्दर आँखें फाड़कर दुःशासन, शकुनि और दुर्योधनकी ओर देखते हुए स्वयं ही उत्साहमें भरकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक कहा --“भूमिपालो! इस विषयमें मेरा जो मत है, उसे सुन लो || १५-१६ ।।
प्रियं सर्वे करिष्यामो राज्ञ: किड्करपाणय: ।
न चास्य शवनुमः स्थातु प्रिये सर्वे हमृतन्द्रिता: । १७ ।।
“हम सब लोग राजा दुर्योधनके किंकर और भुजाएँ हैं; अतः हम सब मिलकर इनका प्रिय कार्य करेंगे; परंतु हम आलस्य छोड़कर इनके प्रियसाधनमें लग नहीं पाते || १७ ।।
वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिता: ।
गच्छाम: सहिता हन्तुं पाण्डवान् वनगोचरान् ।। १८ ।।
“मेरी राय यह है कि हम कवच पहनकर अपने-अपने रथपर आखरूढ़ हो अस्त्र-शस्त्र लेकर वनवासी पाण्डवोंको मारनेके लिये एक साथ उनपर धावा करें ।। १८ ।।
तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम् ।
निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रस्त्था वयम् ।। १९ ।।
“जब वे सभी मरकर शान्त जो जाये और अज्ञात गतिको अर्थात्र परलोकको पहुँच जायँ, तब धृतराष्ट्रके पुत्र तथा हम सब लोग सारे झगड़ोंसे दूर हो जायँगे ।। १९ ।।
यावदेव परिद्यूना यावच्छोकपरायणा: ।
यावम्मित्रविहीनाक्ष॒ तावच्छक्या मतं मम ।। २० ।।
“वे जबतक क्लेशगमें पड़े हैं, जबतक शोकमें डूबे हुए हैं और जबतक मित्रों एवं सहायकोंसे वंचित हैं, तभीतक युद्धमें जीते जा सकते हैं, मेरा तो यही मत है" || २० ।।
तस्य तदू् वचन श्रुत्वा पूजयन्त: पुनः पुनः ।
बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचु: सूतजं तदा ।। २१ ।।
कर्णकी यह बात सुनकर सबने बार-बार उसकी सराहना की और कर्णकी बातके उत्तरमें सबके मुखसे यही निकला--“बहुत अच्छा, बहुत अच्छा” || २१ ।।
एवमुकक््त्वा सुसंरब्धा रथै: सर्वे पृथक्पृथक् ।
निर्ययु: पाण्डवान् हन्तुं सहिता: कृतनिश्चया: ।। २२ ।।
इस प्रकार आपसमें बातचीत करके रोष और जोशगमें भरे हुए वे सब पृथक्-पृथक् रथोंपर बैठकर पाण्डवोंके वधका निश्चय करके एक साथ नगरसे बाहर निकले ।। २२ |।
तान् प्रस्थितान् परिज्ञाय कृष्णद्वैपायन: प्रभु: ।
आजगाम विशुद्धात्मा दृष्टवा दिव्येन चक्षुषा || २३ ।।
उन्हें वनकी ओर प्रस्थान करते जान शक्तिशाली महर्षि शुद्धात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास दिव्य दृष्टिसे सब कुछ देखकर सहसा वहाँ आये ।। २३ ।।
प्रतिषिध्याथ तान् सर्वान् भगवॉल्लोकपूजित: ।
प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचा भ्येत्य सत्वरम् ।। २४ ।।
उन लोकपूजित भगवान् व्यासने उन सबको रोका और सिंहासनपर बैठे हुए प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्रके पास शीघ्र आकर कहा ।। २४ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासागमने सप्तमो5ध्याय: ।। ७ ।॥। इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें व्यासजीके आगमनसे सम्बन्ध रखनेवाला यसातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७ ॥।
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अष्टमो> ध्याय:
व्यासजीका धृतराष्ट्रसे दुर्योधनके अन्यायको रोकनेके लिये अनुरोध व्यास उवाच
धृतराष्ट्र महाप्राज्ञ निबोध वचनं मम ।
वक्ष्यामि त्वां कौरवाणां सर्वेषां हितमुत्तमम् ।। १ ।।
व्यासजीने कहा--महाप्राज्ञ धृतराष्ट्र! तुम मेरी बात सुनो, मैं तुम्हें समस्त कौरवोंके हितकी उत्तम बात बताता हूँ ।। १ ।।
न मे प्रियं महाबाहो यद् गता: पाण्डवा वनम् |
निकृत्या निकृताश्चैव दुर्योधनपुरोगमै: ।। २ ।।
महाबाहो! पाण्डवलोग जो वनमें भेजे गये हैं, यह मुझे अच्छा नहीं लगा है। दुर्योधन आदिने उन्हें छलपूर्वक जूएमें हराया है ।। २ ।।
ते स्मरन्त: परिक््लेशान् वर्षे पूर्णे त्रयोदशे ।
विमोक्ष्यन्ति विषं क्रुद्धा: कौरवेयेषु भारत ।। ३ ||
भारत! वे तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर अपनेको दिये हुए क्लेश याद करके कुपित हो कौरवोंपर विष उगलेंगे, अर्थात् विषके समान घातक अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करेंगे || ३ ।।
तदयं कि नु पापात्मा तव पुत्र: सुमन्दधी: ।
पाण्डवान् नित्यसंक्रुद्धों राज्यहेतोर्जिधांसति ।। ४ ।।
ऐसा जानते हुए भी तुम्हारा यह पापात्मा एवं मूर्ख पुत्र क्यों सदा रोषमें भरा रहकर राज्यके लिये पाण्डवोंका वध करना चाहता है || ४ ।।
वार्यतां साध्वयं मूढ: शमं गच्छतु ते सुतः ।
वनस्थांस्तानयं हन्तुमिच्छन् प्राणान् विमोक्ष्यति ।। ५ ।।
तुम इस मूढ़को रोको। तुम्हारा यह पुत्र शान्त हो जाय। यदि इसने वनवासी पाण्डवोंको मार डालनेकी इच्छा की तो यह स्वयं ही अपने प्राणोंको खो बैठेगा ।। ५ ।।
यथा हि विदुरः प्राज्ञो यथा भीष्मो यथा वयम् |
यथा कृपश्च द्रोणश्व॒ तथा साधुर्भवानपि ।। ६ ।।
जैसे ज्ञानी विदुर, भीष्म, मैं, कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य हैं, वैसे ही साधुस्वभाव तुम भी हो ।। ६ |।
विग्रहो हि महाप्राज्ञ स्वजनेन विगर्लितः ।
अधर्म्यमयशस्यं च मा राजन् प्रतिपद्यताम् ।। ७ ।।
महाप्राज्ञ! स्वजनोंके साथ कलह अत्यन्त निन्दित माना गया है। वह अधर्म एवं अयश बढ़ानेवाला है; अतः राजन! तुम स्वजनोंके साथ कलहमें न पड़ो || ७ ।।
समीक्षा यादृशी हास्य पाण्डवान् प्रति भारत ।
उपेक्ष्यमाणा सा राजन् महान्तमनयं स्पृशेत् ।। ८ ।।
भारत! पाण्डवोंके प्रति इस दुर्योधनका जैसा विचार है, यदि उसकी उपेक्षा की गयी-- उसका शमन न किया गया तो उसका वह विचार महान् अत्याचारकी सृष्टि कर सकता है | ८ ।।
अथवायं सुमन्दात्मा वनं गच्छतु ते सुत: ।
पाण्डवै: सहितो राजन्नेक एवासहायवान् ।। ९ ।।
अथवा तुम्हारा यह मन्दबुद्धि पुत्र अकेला ही दूसरे किसी सहायकको लिये बिना पाण्डवोंके साथ वनमें जाय ।। ९ ।।
ततः संसर्गज: स्नेह: पुत्रस्य तव पाण्डवै: ।
यदि स्यात् कृतकार्योड्द्य भवेस्त्वं मनुजेश्वर ।। १० ।।
मनुजेश्वर! वहाँ पाण्डवोंके संसर्गमें रहनेसे तुम्हारे पुत्रके प्रति उनके हृदयमें स्नेह हो जाय, तो तुम आज ही कृतार्थ हो जाओगे ।। १० ।।
अथवा जायमानस्य यच्छीलमनुजायते ।
श्रूयते तन्महाराज नामृतस्यापसर्पति ।। ११ ।।
कथं वा मन्यते भीष्मो द्रोणो5थ विदुरो5पि वा।
भवान् वात्र क्षमं कार्य पुरा वोडर्थोडभिवर्धते ।। १२ ।।
किंतु महाराज! जन्मके समय किसी वस्तुका जैसा स्वभाव बन जाता है वह दूर नहीं होता। भले ही वह वस्तु अमृत ही क्यों न हो? यह बात मेरे सुननेमें आयी है। अथवा इस विषयमें भीष्म, द्रोण, विदुर या तुम्हारी क्या सम्मति है? यहाँ जो उचित हो, वह कार्य पहले करना चाहिये, उसीसे तुम्हारे प्रयोजनकी सिद्धि हो सकती है || ११-१२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासवाक्ये अष्टमो5ध्याय: ॥। ८ ।॥। इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें व्यासवाक्यविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८ ॥।
अनार (0) है
नवमो<्ध्याय:
व्यासजीके द्वारा सुरभि और इन्द्रके उपाख्यानका वर्णन तथा उनका पाण्डवोंके प्रति दया दिखलाना
धृतराष्ट उवाच भगवन् नाहमप्येतद् रोचये द्यूतसम्भवम् | मन्ये तद्विधिना55कृष्य कारितो<स्मीति वै मुने ।। १ ।। धृतराष्ट्रने कहा--भगवन्! यह जूएका खेल मुझे भी पसंद नहीं था। मुने! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि विधाताने मुझे बलपूर्वक खींचकर इस कार्यमें लगा दिया ।। १ ।। नैतद् रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च । गान्धारी नेच्छति द्यूतं तत्र मोहात् प्रवर्तितम् ।। २ ।॥। भीष्म, द्रोण और विदुरको भी यह द्यूतका आयोजन अच्छा नहीं लगता था। गान्धारी भी नहीं चाहती थी कि जूआ खेला जाय; परंतु मैंने मोहवश सबको जूएमें लगा दिया ।। २ ।। परित्यक्तुंन शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम् । पुत्रस्नेहेन भगवन् जानन्नपि प्रियव्रत ।। ३ ।। भगवन! प्रियव्रत! मैं यह जानता हूँ कि दुर्योधन अविवेकी है, तो भी पुत्रस्नेहके कारण मैं उसका त्याग नहीं कर सकता ।। ३ ।। व्यास उवाच
वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान् |
दृढं विद्य: परं पुत्र परं पुत्रान्न विद्यते | ४ ।।
व्यासजी बोले--राजन्! विचित्रवीर्यनन्दन! तुम ठीक कहते हो, हम अच्छी तरह जानते हैं कि पुत्र परम प्रिय वस्तु है। पुत्रसे बढ़कर संसारमें और कुछ नहीं है || ४ ।।
इन्द्रोडप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधित: ।
अन्यै: समृद्धैरप्यर्थर्न सुतान्मन्यते परम् ।। ५ ।।
सुरभिने पुत्रके लिये आँसू बहाकर इन्द्रको भी यह बात समझायी थी, जिससे वे अन्य समृद्धिशाली पदार्थोंसे सम्पन्न होनेपर भी पुत्रसे बढ़कर दूसरी किसी वस्तुको नहीं मानते हैं ।। ५ |।
अत्र ते कीर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम् ।
सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशाम्पते ।। ६ ।।
जनेश्वर! इस विषयमें मैं तुम्हें एक परम उत्तम इतिहास सुनाता हूँ; जो सुरभि तथा इन्द्रके संवादके रूपमें है || ६ ।। त्रिविष्टपगता राजन् सुरभी प्रारूुदत् किल | गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोडन्वकृपायत ।। ७ ।। राजन! पहलेकी बात है, गोमाता सुरभि स्वर्गलोकमें जाकर फूट-फ़ूटकर रोने लगी। तात! उस समय इन्द्रको उसपर बड़ी दया आयी ।। ७ ।। इन्द्र रवाच
किमिदं रोदिषि शुभे कच्चित् क्षेमं दिवौकसाम् | मानुषेष्वथ वा गोषु नैतदल्पं भविष्यति ।॥। ८ ।। इन्द्रने पूछा--शुभे! तुम क्यों इस तरह रो रही हो? देवलोकवासियोंकी कुशल तो है न? मनुष्यों तथा गौओंमें तो सब लोग कुशलसे हैं न? तुम्हारा यह रोदन किसी अल्प कारणसे नहीं हो सकता? ।। ८ ।। युराभिरुवाच
विनिपातो न वः वच्चिद् दृश्यते त्रिदशाधिप ।
अहं तु पुत्र शोचामि तेन रोदिमि कौशिक ।। ९ ।।
सुरभिने कहा--देवेश्वर! आपलोगोंकी अवनति नहीं दिखायी देती। इन्द्र! मुझे तो अपने पुत्रके लिये शोक हो रहा है, इसीसे रोती हूँ ।। ९ ।।
पश्यैनं कर्षकं क्षुद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम् ।
प्रतोदेनाभिनिधघ्नन्तं लाड़्लेन च पीडितम् ॥। १० ।।
देखो, इस नीच किसानको जो मेरे दुर्बल बेटेको बार-बार कोड़ेसे पीट रहा है और वह हलसे जुतकर अत्यन्त पीड़ित हो रहा है || १० ।।
निषीदमान सोत्कण्ठं वध्यमानं सुराधिप ।
कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्लोद्विजते मम ।
एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्ग॒हतेडधिकाम् ।। ११ ।।
अपरोअप्यबलप्राण: कृशो धमनिसंततः ।
कृच्छादुद्गहते भारं तं वै शोचामि वासव ।। १२ ।।
वध्यमान: प्रतोदेन तुद्यमान: पुन: पुनः ।
नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव ।। १३ ।।
सुरेश्वर! वह तो विश्रामके लिये उत्सुक होकर बैठ रहा है और वह किसान उसे डंडे मारता है। देवेन्द्र! यह देखकर मुझे अपने बच्चेके प्रति बड़ी दया हो आयी है और मेरा मन उद्विग्न हो उठा है। वहाँ दो बैलोंमेंसे एक तो बलवान है जो भारयुक्त जूएको खींच सकता है; परंतु दूसरा निर्बल है, प्राणशून्य-सा जान पड़ता है। वह इतना दुबला-पतला हो गया है
कि उसके सारे शरीरमें फैली हुई नाड़ियाँ दीख रही हैं। वह बड़े कष्टसे उस भारयुक्त जूएको खींच पाता हैं। वासव! मुझे उसीके लिये शोक हो रहा है। इन्द्र! देखो-देखो, चाबुकसे मार- मारकर उसे बार-बार पीड़ा दी जा रही है, तो भी उस जूएके भारको वहन करनेमें वह असमर्थ हो रहा है | ११--१३ ।।
ततो<हं तस्य शोकार्ता विरौमि भृशदुः:खिता ।
अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती ।। १४ ।।
यही देखकर मैं शोकसे पीड़ित हो अत्यन्त दु:खी हो गयी हूँ और करुणामग्न हो दोनों नेत्रोंस आँसू बहाती हुई रो रही हूँ ।। १४ ।।
शक्र उवाच
तव पुत्रसहस््रेषु पीड्यमानेषु शो भने । कि कृपायितवत्यत्र पुत्र एकत्र हन्यति ।। १५ ।। इन्द्रने कहा--कल्याणी! तुम्हारे तो सहस्रों पुत्र इसी प्रकार पीड़ित हो रहे हैं, फिर तुमने एक ही पुत्रके मार खानेपर यहाँ इतनी करुणा क्यों दिखायी? ।। १५ ।। युराभिरुवाच
यदि पुत्रसहस््राणि सर्वत्र समतैव मे । दीनस्यथ तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा ।। १६ ।। सुरभि बोली--देवेन्द्र! यदि मेरे सहस्ौरों पुत्र हैं, तो मैं उन सबके प्रति समानभाव ही रखती हूँ; परंतु दीन-दुःखी पुत्रके प्रति अधिक दया उमड़ आती है ।। १६ ।। व्यास उवाच
तदिन्द्र: सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मित: ।
जीवितेनापि कौरव्य मेने5भ्यधिकमात्मजम् ।। १७ ।।
व्यासजी कहते हैं--कुरुराज! सुरभिकी यह बात सुनकर इन्द्र बड़े विस्मित हो गये। तबसे वे पुत्रको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानने लगे ।। १७ ।।
प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम् ।
कर्षकस्याचरन् विधघ्नं भगवान् पाकशासन: ।। १८ ।।
उस समय वहाँ पाकशासन भगवान् इन्द्रने किसानके कार्यमें विध्न डालते हुए सहसा भयंकर वर्षा की || १८ ।।
तद् यथा सुरकि: प्राह समवेतास्तु ते तथा ।
सुतेषु राजन् सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा ।। १९ ।।
इस प्रसंगमें सुरभिने जैसा कहा है, वह ठीक है, कौरव और पाण्डव सभी मिलकर तुम्हारे ही पुत्र हैं। परंतु राजन! सब पुत्रोंमें जो हीन हों, दयनीय दशामें पड़े हों, उन्हींपर
अधिक कृपा होनी चाहिये ।। १९ ।।
यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मे5सि पुत्रक |
विदुरश्न महाप्राज्ञ: स्नेहादेतद् ब्रवीम्पहम् ।। २० ।।
वत्स! जैसे पाण्डु मेरे पुत्र हैं, वैसे ही तुम भी हो, उसी प्रकार महाज्ञानी विदुर भी हैं। मैंने स्नेहवश ही तुमसे ये बातें कही हैं || २० ।।
चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्न भारत ।
पाण्डो: पज्चैव लक्ष्यन्ते तेडपि मन्दा: सुदु:ःखिता: ।। २१ ।।
भारत! दीर्घकालसे तुम्हारे एक सौ एक पुत्र हैं, किंतु पाण्डुके पाँच ही पुत्र देखे जाते हैं। वे भी भोले-भाले, छल-कपटसे रहित हैं और अत्यन्त दुःख उठा रहे हैं | २१ ।।
कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि ।
इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते ।। २२ ।।
“वे कैसे जीवित रहेंगे और कैसे वृद्धिको प्राप्त होंगे?” इस प्रकार कुन्तीके उन दीन पुत्रोंके प्रति सोचते हुए मेरे मनमें बड़ा संताप होता है || २२ ।।
यदि पार्थिव कौरव्याज्जीवमानानिहेच्छसि ।
दुर्योधनस्तव सुत: शमं गच्छतु पाण्डवै: ।। २३ ।।
राजन! यदि तुम चाहते हो कि समस्त कौरव यहाँ जीवित रहें तो तुम्हारा पुत्र दुर्योधन पाण्डवोंसे मेल करके शान्तिपूर्वक रहे || २३ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि सुरभ्युपाख्याने नवमो5ध्याय: ।। ९ ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें सुराभिे-उपाख्यानविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९ ॥
अऑडआ हर (0) है 7-2
दशमो< ध्याय:
व्यासजीका जाना, मैत्रेयजीका धृतराष्ट्र और दुर्योधनसे पाण्डवोंके प्रति सद्भावका अनुरोध तथा दुर्योधनके अशिष्ट व्यवहारसे रुष्ट होकर उसे शाप देना
धृतराष्ट उवाच
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि नो मुने ।
अहं चैव विजानामि सर्वे चेमे नराधिपा: ।। १ ।।
धृतराष्ट्र बोले--महाप्राज्ञ मुने! आप जैसा कहते हैं, यही ठीक है। मैं भी इसे ही ठीक मानता हूँ तथा ये सब राजालोग भी इसीका अनुमोदन करते हैं ।। १ ।।
भवांश्ष मन्यते साधु यत् कुरूणां महोदयम् ।
तदेव विदुरो<प्याह भीष्मो द्रोणश्न मां मुने | २ ।।
मुने! आप भी वही उत्तम मानते हैं जो कुरुवंशके महान् अभ्युदयका कारण है। मुने! यही बात विदुर, भीष्म और द्रोणाचार्यने भी मुझे कही है ।। २ ।।
यदि त्वहमनुग्राह्म: कौरव्येषु दया यदि ।
अन्वशाधि दुरात्मानं पुत्र दुर्योधनं मम ।। ३ ।।
यदि आपका मुझपर अनुग्रह है और यदि कौरव-कुलपर आपकी दया है तो आप मेरे दुरात्मा पुत्र दुर्योधनको स्वयं ही शिक्षा दीजिये ।। ३ ।।
व्यास उवाच
अयमायाति वै राजन मैत्रेयो भगवानृषि: ।
अन्विष्य पाण्डवान् भ्रातृनिहैत्यस्मद्दिदृक्षया || ४ ।।
व्यासजीने कहा--राजन! ये महर्षि भगवान् मैत्रेय आ रहे हैं। पाँचों पाण्डवबन्धुओंसे मिलकर अब ये हमलोगोंसे मिलनेके लिये यहाँ आते हैं ।। ४ ।।
एष दुर्योधन पुत्रं तव राजन् महानृषि: ।
अनुशास्ता यथान्यायं शमायास्य कुलस्य च ।। ५ ।।
महाराज! ये महर्षि ही इस कुलकी शान्तिके लिये तुम्हारे पुत्र दुर्योधनको यथायोग्य शिक्षा देंगे ।। ५ ।।
ब्रूयाद् यदेष कौरव्य तत् कार्यमविशड्कया ।
अक्रियायां तु कार्यस्य पुत्र ते शप्स्यते रुषा ।। ६ ।।
कुरुनन्दन! मैत्रेय जो कुछ कहें, उसे निःशंक होकर करना चाहिये। यदि उनके बताये हुए कार्यकी अवहेलना की गयी तो वे कुपित होकर तुम्हारे पुत्रको शाप दे देंगे ।। ६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक््त्वा ययौ व्यासो मैत्रेय: प्रत्यदृश्यत ।
पूजया प्रतिजग्राह सपुत्रस्तं नराधिप: ।। ७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर व्यासजी चले गये और मैत्रेयजी आते हुए दिखायी दिये। राजा धुृतराष्ट्रने पुत्रसहित उनकी अगवानी की और स्वागत- सत्कारके साथ उन्हें अपनाया ।। ७ ।।
अध्यद्धाभि: क्रियाभिरवव विश्रान्तं मुनिसत्तमम् ।
प्रश्रयेणाब्रवीद् राजा धृतराष्ट्रोडम्बिकासुत: ।। ८ ।।
पाद्य, अर्घ्य आदि उपचारोंद्वारा पूजित हो जब मुनिश्रेष्ठ मैत्रेय विश्राम कर चुके, तब अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्रने नम्रतापूर्वक पूछा-- || ८ ।।
सुखेनागमनं कच्चिद् भगवन् कुरुजाड्लान् ।
कच्चित् कुशलिनो वीरा भ्रातर: पञ्च पाण्डवा: ।। ९ |।
“भगवन्! इस कुरुदेशमें आपका आगमन सुख-पूर्वक तो हुआ है न? वीर भ्राता पाँचों पाण्डव तो कुशलसे हैं न? ।। ९ ।।
समये स्थातुमिच्छन्ति कच्चिच्च भरतर्षभा: |
कच्चित् कुरूणां सौक्षात्रमव्युच्छिन्नं भविष्यति ।। १० ।।
“क्या वे भरतश्रेष्ठ पाण्डव अपनी प्रतिज्ञापर स्थिर रहना चाहते हैं? क्या कौरवोंमें उत्तम भ्रातृभाव अखण्ड बना रहेगा?” ।। १० ।।
मैत्रेय उदाच
तीर्थयात्रामनुक्रामन् प्राप्तो5स्मि कुरुजाड्लान् ।
यदृच्छया धर्मराजं दृष्टवान् काम्यके वने ।। ११ ।।
मैत्रेयजीने कहा--राजन! मैं तीर्थयात्राके प्रसंगसे घूमता हुआ अकस्मात् कुरुजांगल देशमें चला आया हूँ। काम्यकवनमें धर्मराज युधिष्ठिरसे भी मेरी भेंट हुई थी ।। ११ ।।
त॑ं जटाजिनसंवीतं तपोवननिवासिनम् ।
समाजममुर्महात्मान द्रष्ट मुनिगणा: प्रभो ।। १२ ।।
प्रभो! जटा और मृगचर्म धारण करके तपोवनमें निवास करनेवाले उन महात्मा धर्मराजको देखनेके लिये वहाँ बहुत-से मुनि पधारे थे | १२ ।।
तत्राश्रीषं महाराज पुत्राणां तव विभ्रमम् |
अनयं द्यूतरूपेण महाभयमुपस्थितम् ।। १३ ।।
महाराज! वहीं मैंने सुना कि तुम्हारे पुत्रोंकी बुद्धि भ्रान्त हो गयी है। वे ह्यूतरूपी अनीतिमें प्रवृत्त हो गये और इस प्रकार जूएके रूपमें उनके ऊपर बड़ा भारी भय उपस्थित हो गया है ।। १३ ।।
ततोऊहं त्वामनुप्राप्त: कौरवाणामवेक्षया ।
सदा हभ्यधिकः: स्नेहः प्रीतिश्न त्वयि मे प्रभो ।। १४ ।।
यह सुनकर मैं कौरवोंकी दशा देखनेके लिये तुम्हारे पास आया हूँ। राजन! तुम्हारे ऊपर सदासे ही मेरा स्नेह और प्रेम अधिक रहा है ।। १४ ।।
नैतदौपयिकं राजंस्त्वयि भीष्मे च जीवति ।
यदन्योन्येन ते पुत्रा विरुध्यन्ते कथंचन ।। १५ ।।
महाराज! तुम्हारे और भीष्मके जीते-जी यह उचित नहीं जान पड़ता कि तुम्हारे पुत्र किसी प्रकार आपसमें विरोध करें ।। १५ ।।
मेढी भूत: स्वयं राजन निग्रहे प्रग्रहे भवान् ।
किमर्थमनयं घोरमुत्पद्यन्तमुपेक्षसे | १६ ।।
महाराज! तुम स्वयं इन सबको बाँधकर नियन्त्रणमें रखनेके लिये खंभेके समान हो; फिर पैदा होते हुए इस घोर अन्यायकी क्यों उपेक्षा कर रहे हो || १६ ।।
दस्यूनामिव यद् वृत्तं सभायां कुरुनन्दन ।
तेन न भ्राजसे राजंस्तापसानां समागमे ।। १७ ।।
कुरुनन्दन! तुम्हारी सभामें डाकुओंकी भाँति जो बर्ताव किया गया है, उसके कारण तुम तपस्वी मुनियोंके समुदायमें शोभा नहीं पा रहे हो || १७ ।।
वैशम्पायन उवाच
ततो व्यावृत्य राजानं दुर्योधनममर्षणम् ।
उवाच श्लक्षणया वाचा मैत्रेयो भगवानृषि: ॥। १८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर महर्षि भगवान् मैत्रेय अमर्षशील राजा दुर्योधनकी ओर मुड़कर उससे मधुर वाणीमें इस प्रकार बोले || १८ ।।
मैत्रेय उवाच
दुर्योधन महाबाहो निबोध वदतां वर |
वचन मे महाभाग ब्रुवतो यद्धितं तव ।। १९ ।।
मैत्रेयजीने कहा--महाबाहु दुर्योधन! तुम वक्ताओंमें श्रेष्ठ हो; मेरी एक बात सुनो। महाभाग! मैं तुम्हारे हितकी बात बता रहा हूँ ।। १९ ।।
मा द्रुह: पाण्डवान् राजन् कुरुष्व प्रियमात्मन: ।
पाण्डवानां कुरूणां च लोकस्य च नरर्षभ ।। २० ।।
राजन! तुम पाण्डवोंसे द्रोह न करो। नरश्रेष्ठ] अपना, पाण्डवोंका, कुरुकुलका तथा सम्पूर्ण जगत्का प्रिय साधन करो || २० ।।
ते हि सर्वे नरव्यात्रा: शूरा विक्रान्तयोधिन: ।
सर्वे नागायुतप्राणा वज्ञसंहनना दृढा: || २१ ।।
मनुष्योंमें श्रेष्ठ सब पाण्डव शूरवीर, पराक्रमी और युद्धकुशल हैं। उन सबमें दस हजार हाथियोंका बल है। उनका शरीर वज्रके समान दृढ़ है || २१ ।।
सत्यव्रतधरा: सर्वे सर्वे पुरुषमानिन: ।
हन्तारो देवशत्रूणां रक्षमां कामरूपिणाम् ।। २२ ।।
हिडिम्बबकमुख्यानां किर्मीरस्य च रक्षस: ।
वे सब-के-सब सत्यव्रतधारी और अपने पौरुषपर अभिमान रखनेवाले हैं। इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले देवद्रोही हिडिम्ब आदि राक्षसोंका तथा राक्षसजातीय किर्मीरका वध भी उन्होंने ही किया है || २२३ ।।
इतः प्रद्रवतां रात्रौ यः स तेषां महात्मनाम् ।। २३ ।।
आवृत्य मार्ग रौद्रात्मा तस्थौ गिरिरिवाचल: ।
त॑ भीम: समरश्लाघी बलेन बलिनां वर: | २४ ।।
जघान पशुमारेण व्याघ्र: क्षुद्रमूगं यथा ।
पश्य दिग्विजये राजन् यथा भीमेन पातितः ।। २५ ।।
जरासंधो महेष्वासो नागायुतबलो युधि ।
सम्बन्धी वासुदेवश्व श्याला: सर्वे च पार्षता: ।। २६ ।।
यहाँसे रातमें जब वे महात्मा पाण्डव चले जा रहे थे, उस समय उनका मार्ग रोककर भयंकर और पर्वतके समान विशालकाय किर्मीर उनके सामने खड़ा हो गया। युद्धकी श्लाघा रखनेवाले बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेनने उस राक्षसको बलपूर्वक पकड़कर पशुकी तरह वैसे ही मार डाला, जैसे व्याप्र छोटे मृगको मार डालता है। राजन्! देखो, दिग्विजयके समय भीमसेनने उस महान धनुर्धर राजा जरासंधको भी युद्धमें मार गिराया, जिसमें दस हजार हाथियोंका बल था। (यह भी स्मरण रखना चाहिये कि) वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उनके सम्बन्धी हैं तथा द्रपदके सभी पुत्र उनके साले हैं | २३--२६ ।।
कस्तान् युधि समासीत जरामरणवान् नर: ।
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ ।। २७ ।।
जरा और मृत्युके वशमें रहनेवाला कौन मनुष्य युद्धमें उन पाण्डवोंका सामना कर सकता है। भरतकुल-भूषण! ऐसे महापराक्रमी पाण्डवोंके साथ तुम्हें शान्तिपूर्वक मिलकर ही रहना चाहिये || २७ ।।
कुरु मे वचन राजन् मा मन्युवशमन्वगा: ।
राजन! तुम मेरी बात मानो; क्रोधके वशमें न होओ ।। २७६ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवं तु ब्रुवतस्तस्य मैत्रेयस्य विशाम्पते ॥। २८ ।। ऊरु गजकराकारं करेणाभिजघान स: |
दुर्योधन: स्मितं कृत्वा चरणेनोल्लिखन् महीम् ।। २९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन! मैत्रेयजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय दुर्योधनने मुसकराकर हाथीके सूँड़के समान अपनी जाँघको हाथसे ठोंका और पैरसे पृथ्वीको कुरेदने लगा || २८-२९ ।।
न किंचिदुक्त्वा दुर्मेधास्तस्थी किंचिदवाड्मुख: ।
तमशुश्रूषमाणं तु विलिखन्तं वसुंधराम् ।। ३० ।।
दृष्टवा दुर्योधन राजन् मैत्रेयं कोप आविशतू ।
स कोपवशमापन्नो मैत्रेयो मुनिसत्तम: ।। ३१ ।।
उस दुर्बृद्धिने मैत्रेयजीको कुछ भी उत्तर न दिया। वह अपने मुँहको कुछ नीचा किये चुपचाप खड़ा रहा। राजन! मैत्रेयजीने देखा, दुर्योधन सुनना नहीं चाहता, वह पैरोंसे धरतीको कुरेद रहा है। यह देख उनके मनमें क्रोध जाग उठा। फिर तो वे मुनिश्रेष्ठ मैत्रेय कोपके वशीभूत हो गये ।। ३०-३१ ।।
विधिना सम्प्रणुदित: शापायास्य मनो दे |
ततः स वार्युपस्पृश्य कोपसंरक्तलोचन: ।
मैत्रेयो धार्तराष्ट्र तमशपद् दुष्टचेतसम् ।। ३२ ।।
विधातासे प्रेरित होकर उन्होंने दुर्योधनको शाप देनेका विचार किया। तदनन्तर मैत्रेयने क्रोधसे लाल आँखें करके जलका आचमन किया और उस दुष्ट चित्तवाले धृतराष्ट्रपुत्रको इस प्रकार शाप दिया-- || ३२ ।।
यस्मात् त्वं मामनादृत्य नेमां वाचं चिकीर्षसि ।
तस्मादस्याभिमानस्य सद्यः: फलमवाप्लुहि ।। ३३ ।।
“दुर्योधन! तू मेरा अनादर करके मेरी बात मानना नहीं चाहता; अतः तू इस अभिमानका तुरंत फल पा ले ।। ३३ ।।
4432 )
त्वदभिद्रोहसंयुक्तं युद्धमुत्पत्स्यते महत् ।
तत्र भीमो गदाघातैस्तवोरं भेत्स्यते बली ।। ३४ ।।
"तेरे द्रोहके कारण बड़ा भारी युद्ध छिड़ेगा, उसमें बलवान् भीमसेन अपनी गदाकी चोटसे तेरी जाँघ तोड़ डालेंगे” || ३४ ।।
इत्येवमुक्ते वचने धृतराष्ट्रो महीपति: ।
प्रसादयामास मुनि नैतदेवं भवेदिति ।। ३५ ।।
उनके ऐसा कहनेपर महाराज धूृतराष्ट्रने मुनिको प्रसन्न किया और कहा--“भगवन्! ऐसा न हो' ॥| ३५ ||
मैत्रेय उवाच
शमं यास्यति चेत् पुत्रस्तव राजन् यदा तदा ।
शापो न भविता तात विपरीते भविष्यति ।। ३६ ।।
मैत्रेयजीने कहा--राजन्! जब तुम्हारा पुत्र शान्ति धारण करेगा (पाण्डवोंसे वैर- विरोध न करके मेल-मिलाप कर लेगा), तब यह शाप इसपर लागू न होगा। तात! यदि इसने विपरीत बर्ताव किया तो यह शाप इसे अवश्य भोगना पड़ेगा ॥। ३६ ।।
वैशम्पायन उवाच विलक्षयंस्तु राजेन्द्रो दुर्योधनपिता तदा ।
मैत्रेयं प्राह किर्मीर: कथं भीमेन पातित: ।। ३७ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! तब दुर्योधनके पिता महाराज धूृतराष्ट्रने भीमसेनके बलका विशेष परिचय पानेके लिये मैत्रेयजीसे पूछा--“मुने! भीमने किर्मीरको कैसे मारा?” ।। ३७ ||
मैत्रेय उवाच
नाहं वक्ष्यामि ते भूयो न ते शुश्रूषते सुत: ।
एष ते विदुर: सर्वमाख्यास्यति गते मयि ॥। ३८ ।।
मैत्रेयजीने कहा--राजन्! तुम्हारा पुत्र मेरी बात सुनना नहीं चाहता, अतः मैं तुमसे इस समय फिर कुछ नहीं कहूँगा। ये विदुरजी मेरे चले जानेपर वह सारा प्रसंग तुम्हें बतायेंगे || ३८ ।।
वैशम्पायन उवाच
इत्येवमुक्त्वा मैत्रेय: प्रातिष्तत यथा55गतम् ।
किर्मीरवधसंविग्नो बहिर्दुर्योधनो ययौ ।। ३९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! ऐसा कहकर मैत्रेयजी जैसे आये थे वैसे ही चले गये। किर्मीरवधका समाचार सुनकर उद्विग्न हो दुर्योधन भी बाहर निकल गया ।। ३९ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्व॑णि मैत्रेयशापे दशमो<ध्याय: ।। १० |। इस प्रकार श्रीमह्या भारत वनपवके अन्तर्गत अरण्यपर्वमें मैत्रेयशापविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १० ॥
#::2:7 #पड- (0) हि 2 7
(किर्मीरवधपर्व)
एकादशो< ध्याय: भीमसेनके द्वारा किर्मीरके वधकी कथा
धृतराष्ट उवाच
किर्मीरस्य वध क्षत्त: श्रोतुमिच्छामि कथ्यताम् |
रक्षसा भीमसेनस्य कथमासीत् समागम: ।। १ ।।
धृतराष्ट्रने पूछा--विदुर! मैं किर्मीरवधका वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ, कहो। उस राक्षसके साथ भीमसेनकी मुठभेड़ कैसे हुई? ।। १ ।।
विदुर उवाच
शृणु भीमस्य कर्मेदमतिमानुषकर्मण: ।
श्रुतपूर्व मया तेषां कथान्तेषु पुन: पुन: ॥। २ ।।
विदुरजीने कहा--राजन! मानवशक्तिसे अतीत कर्म करनेवाले भीमसेनके इस भयानक कर्मको आप सुनिये, जिसे मैंने उन पाण्डवोंके कथाप्रसंगमें (ब्राह्मणोंसे) बार-बार सुना है ।। २ ।।
इत:ः प्रयाता राजेन्द्र पाण्डवा द्यूतनिर्जिता: ।
जम्मुस्त्रिभिरहोरात्रै: काम्यकं नाम तद् वनम् ॥। ३ ।।
राजेन्द्र! पाण्डव जूएमें पराजित होकर जब यहाँसे गये, तब तीन दिन और तीन रातमें काम्यकवनमें जा पहुँचे ।। ३ ।।
रात्रौ निशी्थे त्वाभीले गते<र्धसमये नृप ।
प्रचारे पुरुषादानां रक्षसां घोरकर्मणाम् ।। ४ ।।
तद् वन॑ तापसा नित्यं गोपाश्न वनचारिण: ।
दूरात् परिहरन्ति सम पुरुषादभयात् किल ।। ५ ।।
आधी रातके भयंकर समयमें, जब कि भयानक कर्म करनेवाले नरभक्षी राक्षस विचरते रहते हैं, तपस्वी मुनि और वनचारी गोपगण भी उस राक्षसके भयसे उस वनको दूरसे ही त्याग देते थे ।। ४-५ ।।
तेषां प्रविशतां तत्र मार्गमावृत्य भारत ।
दीप्ताक्ष॑ भीषण रक्ष: सोल्मुकं प्रत्यपद्यत ।। ६ ।।
भारत! उस वनमें प्रवेश करते ही वह राक्षस उनका मार्ग रोककर खड़ा हो गया। उसकी आँखें चमक रही थीं। वह भयानक राक्षस मशाल लिये आया था || ६ ।।
बाहू महान्तौ कृत्वा तु तथा55स्यं च भयानकम् |
स्थितमावृत्य पन्थानं येन यान्ति कुरूद्वहा: ।। ७ ।।
अपनी दोनों भुजाओंको बहुत बड़ी करके मुँहको भयानकरूपसे फैलाकर वह उसी मार्गको घेरकर खड़ा हो गया, जिससे वे कुरुवंशशिरोमणि पाण्डव यात्रा कर रहे थे | ७ ।।
स्पष्टाष्टदंष्टं ताम्राक्ष॑ प्रदीप्तोर्ध्वशिरोरुहम् ।
सार्करश्मितडिच्चक्रं सबलाकमिवाम्बुदम् ।। ८ ।।
उसकी आठ दाढ़ें स्पष्ट दिखायी देती थीं, आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं एवं सिरके बाल ऊपरकी ओर उठे हुए और प्रज्वलित-से जान पड़ते थे। उसे देखकर ऐसा मालूम होता था, मानो सूर्यकी किरणों, विद्युन्मण्डल और बकपंक्तियोंके साथ मेघ शोभा पा रहा हो ॥। ८ ।।
सृजन्तं राक्षसीं मायां महानादनिनादितम् ।
मुज्चन्तं विपुलान्ू नादान् सतोयमिव तोयदम् ।। ९ ।।
वह भयंकर गर्जनाके साथ राक्षसी मायाकी सृष्टि कर रहा था। सजल जलधरके समान जोर-जोरसे सिंहनाद करता था ।। ९ |।
तस्य नादेन संत्रस्ता: पक्षिण: सर्वतोदिशम् |
विमुक्तनादा: सम्पेतु: स्थलजा जलजै: सह ।। १० ।।
उसकी गर्जनासे भयभीत हुए स्थलचर पक्षी जलचर पक्षियोंके साथ चीं-चीं करते हुए सब दिशाओंमें भाग चले ।। १० ।।
सम्प्रद्रुतमृगद्वीपिमहिषर्क्षममाकुलम् ।
तद् वन॑ तस्य नादेन सम्प्रस्थितमिवाभवत् ।। ११ ।।
भागते हुए मृग, भेड़िये, भैंसे तथा रीछोंसे भरा हुआ वह वन उस राक्षसकी गर्जनासे ऐसा हो गया, मानो वह वन ही भाग रहा हो ।। ११ ।।
तस्योरुवाताभिहतास्ताम्रपल्लवबाहव: ।
विदूरजाताश्न लता: समाश्लिष्यन्ति पादपान् ।। १२ ।।
उसकी जाँघोंकी हवाके वेगसे आहत हो ताम्रवर्णके पल्लवरूपी बाँहोंद्वारा सुशोभित दूरकी लताएँ भी मानो वृक्षोंसे लिपटी जाती थीं ।। १२ ।।
तस्मिन् क्षणेडथ प्रववो मारुतो भूशदारुण: ।
रजसा संवृतं तेन नष्टज्योतिरभून्नरभ: ।। १३ ।।
इसी समय बड़ी प्रचण्ड वायु चलने लगी। उसकी उड़ायी हुई धूलसे आच्छादित हो आकाशके तारे भी अस्त हो गये-से जान पड़ते थे || १३ ॥।
पज्चानां पाण्डुपुत्राणामविज्ञातो महारिपु: ।
पञ्चानामिन्द्रियाणां तु शोकावेश इवातुल: ।। १४ ।।
जैसे पाँचों इन्द्रियोंको अकस्मात् अतुलित शोकावेश प्राप्त हो जाय, उसी प्रकार पाँचों पाण्डवोंका वह तुलनारहित महान् शत्रु सहसा उनके पास आ पहुँचा; पर पाण्डवोंको उस राक्षसका पता नहीं था ।। १४ ।।
स दृष्टवा पाण्डवान् दूरात् कृष्णाजिनसमावृतान् |
आवृणोत् तद्वनद्वारं मैनाक इव पर्वतः ।। १५ ।।
उसने दूरसे ही पाण्डवोंको कृष्ण-मृगचर्म धारण किये आते देख मैनाक पर्वतकी भाँति उस वनके प्रवेश-द्धारको घेर लिया ।। १५ ।।
त॑ समासाद्य वित्रस्ता कृष्णा कमललोचना ।
अदृष्टपूर्व संत्रासान्न्यमीलयत लोचने ।। १६ ।।
उस अदृष्टपूर्व राक्षषके निकट पहुँचकर कमल-लोचना कृष्णाने भयभीत हो अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये || १६ ।।
दुःशासनकरोत्सृष्टविप्रकीर्णशिरोरुहा ।
पज्चपर्वतमध्यस्था नदीवाकुलतां गता ।। १७ ।।
दुःशासनके हाथोंसे खुले हुए उसके केश सब ओर बिखरे हुए थे। वह पाँच पर्वतोंके बीचमें पड़ी हुई नदीकी भाँति व्याकुल हो उठी ।। १७ ।।
मोमुहामानां तां तत्र जगृहुः पञ्च पाण्डवा: ।
इन्द्रियाणि प्रसक्तानि विषयेषु यथा रतिम् ।। १८ ।।
उसे मूर्छित होती हुई देख पाँचों पाण्डवोंने सहारा देकर उसी तरह थाम लिया, जैसे विषयोंमें आसक्त हुई इन्द्रियाँ तत्सम्बन्धी अनुरक्तिको धारण किये रहती हैं ।। १८ ।।
अथ तां राक्षसीं मायामुत्थितां घोरदर्शनाम् ।
रक्षोघ्नैविविधैर्मन्त्रैधौम्य: सम्यक्प्रयोजितै: ।। १९ ।।
पश्यतां पाण्डुपुत्राणां नाशयामास वीर्यवान् ।
स नष्टमायो5तिबल: क्रोधविस्फारितेक्षण: ।। २० ।।
काममूर्तिधर: क्रूर: कालकल्पो व्यदृश्यत ।
तमुवाच ततो राजा दीर्घप्रज्ञो युधिष्ठिर: ।। २१ ।।
तदनन्तर वहाँ प्रकट हुई अत्यन्त भयानक राक्षसी मायाको देख शक्तिशाली धौम्य मुनिने अच्छी तरह प्रयोगमें लाये हुए राक्षसविनाशक विविध मन्त्रोंद्वारा पाण्डवोंके देखते- देखते उस मायाका नाश कर दिया। माया नष्ट होते ही वह अत्यन्त बलवान् एवं इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला क्रूर राक्षस क्रोधसे आँखें फाड़-फाड़कर देखता हुआ कालके समान दिखायी देने लगा। उस समय परम बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिरने उससे पूछा-- || १९-- २१ ||
को भवान् कस्य वा किं ते क्रियतां कार्यमुच्यताम् ।
प्रत्युवाचाथ तद् रक्षो धर्मराजं युधिष्ठिरम् । २२ ।।
“तुम कौन हो, किसके पुत्र हो अथवा तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पादन किया जाय? यह सब बताओ।' तब उस राक्षसने धर्मराज युधिष्ठिरसे कहा-- || २२ ।।
अहं बकस्य वै भ्राता किर्मीर इति विश्रुत: ।
वने5स्मिन् काम्यके शून्ये निवसामि गतज्वर: | २३ ।।
“मैं बकका भाई हूँ, मेरा नाम किर्मीर है, इस निर्जन काम्यकवनमें निवास करता हूँ। यहाँ मुझे किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं है |। २३ ।।
युधि निर्जित्य पुरुषानाहारं नित्यमाचरन् |
के यूयमभिसम्प्राप्ता भक्ष्यभूता ममान्तिकम् ।
युधि निर्जित्य व: सर्वान् भक्षयिष्ये गतज्वर: ।। २४ ।।
“यहाँ आये हुए मनुष्योंको युद्धमें जीतकर सदा उन्हींको खाया करता हूँ। तुमलोग कौन हो? जो स्वयं ही मेरा आहार बननेके लिये मेरे निकट आ गये? मैं तुम सबको युद्धमें परास्त करके निश्चिन्त हो अपना आहार बनाऊँगा” ।। २४ ।।
वैशम्पायन उवाच
युधिष्ठिरस्तु तच्छुत्वा वचस्तस्य दुरात्मन: ।
आचचतक्षे ततः सर्व गोत्रनामादि भारत ॥। २५ ||
वैशम्पायनजी कहते हैं--भारत! उस दुरात्माकी बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने उसे गोत्र एवं नाम आदि सब बातोंका परिचय दिया ।। २५ ।।
युधिछिर उवाच
पाण्डवो धर्मराजो<हं यदि ते श्रोत्रमागत: ।
सहितो भ्रातृभि: सर्वैर्भीमसेनार्जुनादिभि: ।। २६ ।।
ह्ृतराज्यो वने वासं वस्तुं कृतमतिस्ततः ।
वनमभ्यागतो घोरमिदं तव परिग्रहम् ।। २७ ।।
युधिष्ठिर बोले--मैं पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हूँ। सम्भव है, मेरा नाम तुम्हारे कानोंमें भी पड़ा हो। इस समय मेरा राज्य शत्रुओंने जूएमें हरण कर लिया है। अतः मैं भीमसेन, अर्जुन आदि सब भाइयोंके साथ वनमें रहनेका निश्चय करके तुम्हारे निवासस्थान इस घोर काम्यकवनमें आया हूँ || २६-२७ ।।
विदुर उवाच किर्मीरिस्त्वब्रवीदेनं दिष्ट्या देवैरिदं मम । उपपादितमद्येह चिरकालान्मनोगतम् ।। २८ ।।
विदुरजी कहते हैं--राजन्! तब किर्मीरने युधिष्ठिससे कहा--'आज सौभाग्यवश देवताओं ने यहाँ मेरे बहुत दिनोंके मनोरथकी पूर्ति कर दी ।। २८ ।।
भीमसेनवधार्थ हि नित्यमभ्युद्यतायुध: ।
चरामि पृथिवीं कृत्स्नां नैनं चासादयाम्यहम् ।। २९ ।।
“मैं प्रतिदिन हथियार उठाये भीमसेनका वध करनेके लिये सारी पृथ्वीपर विचरता था; किंतु यह मुझे मिल नहीं रहा था ।। २९ ।।
सो<5यमासादितो दिष्ट्या भ्रातृहा काड्क्षितश्चिरम् ।
अनेन हि मम भ्राता बको विनिहत: प्रिय: ।॥॥ ३० ।।
वैत्रकीयवने राजन ब्राह्मणच्छह्मरूपिणा ।
विद्याबलमुपश्रित्य न हुस्त्यस्यौरसं बलम् ।। ३१ ।।
“आज सौभाग्यवश यह स्वयं मेरे यहाँ आ पहुँचा। भीम मेरे भाईका हत्यारा है, मैं बहुत दिनोंसे इसकी खोजमें था। राजन्! इसने (एकचक्रा नगरीके पास) वैत्रकीयवनमें ब्राह्मणका कपटवेष धारण करके वेदोक्त मन्त्ररूप विद्याबलका आश्रय ले मेरे प्यारे भाई बकासुरका वध किया था; वह इसका अपना बल नहीं था | ३०-३१ ।।
हिडिम्बश्न सखा महां दयितो वनगोचर: ।
हतो दुरात्मनानेन स्वसा चास्य हृता पुरा ।। ३२ ।।
“इसी प्रकार वनमें रहनेवाले मेरे प्रिय मित्र हिडिम्बको भी इस दुरात्माने मार डाला और उसकी बहिनका अपहरण कर लिया। ये सब बहुत पहलेकी बातें हैं || ३२ ।।
सो<5यमभ्यागतो मूढो ममेदं गहनं वनम् ।
प्रचारसमये<5स्माकमर्धरात्रे स्थिते स मे ।। ३३ ।।
“वही यह मूढ़ भीमसेन हमलोगोंके घूमने-फिरनेकी बेलामें आधी रातके समय मेरे इस गहन वनमें आ गया है ।। ३३ ।।
अद्यास्य यातयिष्यामि तद् वैरं चिरसम्भृतम् ।
तर्पयिष्यामि च बकं रुधिरेणास्य भूरिणा ।। ३४ ।।
“आज इससे मैं उस पुराने वैरका बदला लूँगा और इसके प्रचुर रक्तसे बकासुरका तर्पण करूँगा ।। ३४ ।।
अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातु: सख्युस्तथैव च ।
शान्तिं लब्धास्मि परमां हत्वा राक्षषकण्टकम् ॥। ३५ ।।
“आज मैं राक्षसोंके लिये कण्टकरूप इस भीमसेनको मारकर अपने भाई तथा मित्रके ऋणसे उऋण हो परम शान्ति प्राप्त करूँगा ।। ३५ ।।
यदि तेन पुरा मुक्तो भीमसेनो बकेन वै ।
अद्यैनं भक्षयिष्यामि पश्यतस्ते युधिछ्िर ।। ३६ ।।
'युधिष्ठिर! यदि पहले बकासुरने भीमसेनको छोड़ दिया, तो आज मैं तुम्हारे देखते- देखते इसे खा जाऊँगा ।। ३६ ।।
एनं हि विपुलप्राणमद्य हत्वा वृकोदरम् ।
सम्भक्ष्य जरयिष्यामि यथागस्त्यो महासुरम् ।। ३७ ।।
'जैसे महर्षि अगस्त्यने वातापि नामक महान् राक्षसको खाकर पचा लिया, उसी प्रकार मैं भी इस महाबली भीमको मारकर खा जाऊँगा और पचा लूँगा' || ३७ ।।
एवमुक्तस्तु धर्मात्मा सत्यसंधो युधिष्ठिर: ।
नैतदस्तीति सक्रोधो भर्त्सयामास राक्षसम् ।। ३८ ।।
उसके ऐसा कहनेपर धर्मात्मा एवं सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिरने कुपित हो उस राक्षसको फटकारते हुए कहा--'ऐसा कभी नहीं हो सकता” || ३८ ।।
ततो भीमो महाबाहुरारुज्य तरसा द्रुमम् ।
दशव्याममथोद्विद्धं निष्पत्रमकरोत् तदा ।। ३९ |।
तदनन्तर महाबाहु भीमसेनने बड़े वेगसे हिलाकर एक दस व्याम- लम्बे वृक्षको उखाड़ लिया और उसके पत्ते झाड़ दिये || ३९ ।।
चकार सज्यं गाण्डीवं वज्ननिष्पेषगौरवम् |
निमेषान्तरमात्रेण तथैव विजयोडर्जुन: ।। ४० ।।
इधर विजयी अर्जुनने भी पलक मारते-मारते अपने उस गाण्डीव धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ा दी, जिसे वज़को भी पीस डालनेका गौरव प्राप्त था || ४० ।।
निवार्य भीमो जिष्णुं तं॑ तद् रक्षो मेघनि:स्वनम् |
अभिद्र॒त्याब्रवीद् वाक््यं तिष्ठ तिछठेति भारत ।। ४१ ।।
भारत! भीमसेनने अर्जुनको रोक दिया और मेघके समान गर्जना करनेवाले उस राक्षसपर आक्रमण करते हुए कहा--“अरे! खड़ा रह, खड़ा रह” ।। ४१ ।।
इत्युक्त्वैनमतिक्रुद्धः कक्ष्यामुत्पीड्य पाण्डव: ।
निष्पिष्य पाणिना पार्णिं संदष्टौष्पपुटो बली ।। ४२ ।।
तमभ्यधावद् वेगेन भीमो वृक्षायुधस्तदा ।
यमदण्डप्रतीकाशं ततस्तं तस्य मूर्थनि ॥। ४३ ।।
पातयामास वेगेन कुलिशं मघवानिव ।
असमभ्रान्तं तु तद् रक्ष: समरे प्रत्यदृश्यत ।। ४४ ।।
ऐसा कहकर अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए बलवान् पाण्डुनन्दन भीमने वस्त्रसे अच्छी तरह अपनी कमर कस ली और हाथ-से-हाथ रगड़कर दाँतोंसे ओंठ चबाते हुए वृक्षको ही आयुध बनाकर बड़े वेगसे उसकी तरफ दौड़े और जैसे इन्द्र वज्जका प्रहार करते हैं, उसी प्रकार यमदण्डके समान उस भयंकर वृक्षको राक्षसके मस्तकपर उन्होंने बड़े जोरसे दे मारा। तो भी वह निशाचर युद्धमें अविचलभावसे खड़ा दिखायी दिया || ४२--४४ ।।
चिक्षेप चोल्मुकं दीप्तमशनिं ज्वलितामिव ।
तदुदस्तमलातं तु भीम: प्रहरतां वर: ।। ४५ ।।
पदा सव्येन चिक्षेप तद् रक्ष: पुनराव्रजत्
किर्मीरश्वापि सहसा वृक्षमुत्पाट्य पाण्डवम् ।। ४६ ।।
दण्डपाणिरिव क्ुद्ध: समरे प्रत्यधावत ।
तद् वृक्षयुद्धमभवन्महीरुहविनाशनम् ।। ४७ ।।
वालिसुग्रीवयो भ्रंत्रोर्यथा स्त्रीकाड्क्षिणो: पुरा ।
तत्पश्चात् उसने भी प्रज्वलित वज़्के समान जलता हुआ काठ भीमके ऊपर फेंका, परंतु योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीमने उस जलते काठको अपने बाँयें पैरसे मारकर इस तरह फेंका कि वह पुनः उस राक्षसपर ही जा गिरा। फिर तो किर्मीरने भी सहसा एक वृक्ष उखाड़ लिया और क्रोधमें भरे हुए दण्डपाणि यमराजकी भाँति उस युद्धमें पाण्डुकुमार भीमपर आक्रमण किया। जैसे पूर्वकालमें स्त्रीकी अभिलाषा रखनेवाले वाली और सुग्रीव दोनों भाइयोंमें भारी युद्ध हुआ था, उसी प्रकार उन दोनोंका वह वृक्षयुद्ध वनके वृक्षोंका विनाशक था ।। ४५-- ४७३ ||
शीर्षयो: पतिता वृक्षा बिभिदुर्नैकधा तयो: ।। ४८ ।।
यथैवौत्पलपत्राणि मत्तयोर्द्धिपयोस्तथा ।
जैसे दो मतवाले गजराजोंके मस्तकपर पड़े हुए कमलपत्र क्षणभरमें छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाते हैं, वैसे ही उन दोनोंके मस्तकपर पड़े हुए वृक्षोंके अनेक टुकड़े हो जाते थे।। ४८३ ||
मुज्जवज्जर्जरीभूता बहवस्तत्र पादपा: || ४९ ।।
चीराणीव व्युदस्तानि रेजुस्तत्र महावने ।
तद् वृक्षयुद्धम भवन्मुहूर्त भरतर्षभ ।
राक्षसानां च मुख्यस्य नराणामुत्तमस्य च ।। ५० ||
वहाँ उस महान् वनमें बहुत-से वृक्ष मूँजकी भाँति जर्जर हो गये थे। वे फटे चीथड़ोंकी तरह इधर-उधर फैले हुए सुशोभित होते थे। भरतश्रेष्ठ! राक्षसराज किर्मीर और मनुष्योंमें श्रेष्ठ भीमसेनका वह वृक्षयुद्ध दो घड़ीतक चलता रहा ।। ४९-५० ।।
ततः शिलां समुत्क्षिप्प भीमस्य युधि तिष्ठत: ।
प्राहिणोद् राक्षस: क्रुद्धो भीमश्ष न चचाल ह ।। ५१ ।।
तदनन्तर राक्षसने कुपित हो एक पत्थरकी चट्टान लेकर युद्धमें खड़े हुए भीमसेनपर चलायी। भीम उसके प्रहारसे जडवत् हो गये ।। ५१ ।।
तं शिलाताडनजडं पर्यधावत राक्षस: ।
बाहुविक्षिप्तकिरण: स्वर्भानुरिव भास्करम् ।। ५२ ।।
वे शिलाके आघातसे जडवत् हो रहे थे। उस अवस्थामें वह राक्षस भीमसेनकी ओर उसी तरह दौड़ा जैसे राहु अपनी भुजाओंसे सूर्यकी किरणोंका निवारण करते हुए उनपर आक्रमण करता है ।। ५२ ।।
तावन्योन्यं समा श्लिष्य प्रकर्षन्तौ परस्परम् |
उभावपि चकाशे ते प्रवृद्धौ वृषभाविव ।। ५३ ।।
वे दोनों वीर परस्पर भिड़ गये और दोनों दोनोंको खींचने लगे। दो हृष्ट-पुष्ट साँड़ोंकी भाँति परस्पर भिड़े हुए उन दोनों योद्धाओंकी बड़ी शोभा हो रही थी || ५३ ।।
तयोरासीत् सुतुमुल: सम्प्रहार: सुदारुण: ।
नखदंष्टायुधवतोर्व्याच्रयोरिव दृप्तयो: ।। ५४ ।।
नख और दाढ़ोंसे ही आयुधका काम लेनेवाले दो उन्मत्त व्याप्रोंकी भाँति उन दोनोंमें अत्यन्त भयंकर एवं घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था ।। ५४ ।।
दुर्योधननिकाराच्च बाहुवीर्याच्च दर्पित: ।
कृष्णानयनदृष्टश्न व्यवर्धत वृकोदर: ।। ५५ ||
दुर्योधनके द्वारा प्राप्त हुए तिरस्कारसे तथा अपने बाहुबलसे भीमसेनका शौर्य एवं अभिमान जाग उठा था। इधर द्रौपदी भी प्रेमपूर्ण दृष्टिसि उनकी ओर देख रही थी; अतः वे उस युद्धमें उत्तरोत्तर उत्साहित हो रहे थे || ५५ ।।
अभिपद्य च बाहुभ्यां प्रत्यगृह्नादमर्षित: ।
मातड़मिव मातड़ः प्रभिन्नकरटामुखम् ।। ५६ ।।
उन्होंने अमर्षमें भरकर सहसा आक्रमण करके दोनों भुजाओंसे उस राक्षसको उसी तरह पकड़ लिया, जैसे मतवाला गजराज गण्डस्थलसे मदकी धारा बहानेवाले दूसरे हाथीसे भिड़ जाता है ।। ५६ |।
स चाप्येनं ततो रक्ष: प्रतिजग्राह वीर्यवान् ।
तमाक्षिपद् भीमसेनो बलेन बलिनां वर: ।। ५७ ||
उस बलवान राक्षसने भी भीमसेनको दोनों भुजाओंसे पकड़ लिया; तब बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेनने उसे बलपूर्वक दूर फेंक दिया ।। ५७ ।।
तयोर्भुजविनिष्पेषादुभयोबलिनोस्तदा ।
शब्द: समभवद् घोरो वेणुस्फोटसमो युधि ।॥। ५८ ।।
अथैनमाक्षिप्य बलाद् गृह मध्ये वृकोदर: ।
धूनयामास वेगेन वायुश्नण्ड इव द्रुमम् ।। ५९ ।।
युद्धमें उन दोनों बलवानोंकी भुजाओंकी रगड़से बाँसके फटनेके समान भयंकर शब्द हो रहा था। जैसे प्रचण्ड वायु अपने वेगसे वृक्षको झकझोर देती है, उसी प्रकार भीमसेनने बलपूर्वक उछलकर उसकी कमर पकड़ ली और उस राक्षसको बड़े वेगसे घुमाना आरम्भ किया ।। ५८-५९ ||
स भीमेन परामृष्टो दुर्बलो बलिना रणे |
व्यस्पन्दत यथाप्राणं विचकर्ष च पाण्डवम् ।। ६० ।।
बलवान् भीमकी पकड़में आकर वह दुर्बल राक्षस अपनी शक्तिके अनुसार उनसे छूटनेकी चेष्टा करने लगा। उसने भी पाण्डुनन्दन भीमसेनको इधर-उधर खींचा ।। ६० ।।
तत एनं परिश्रान्तमुपलक्ष्य वृकोदर: ।
योक््त्रयामास बाहुभ्यां पशुं रशनया यथा ।। ६३ ।।
तदनन्तर उसे थका हुआ देख भीमसेनने अपनी दोनों भुजाओंसे उसे उसी तरह कस लिया, जैसे पशुको डोरीसे बाँध देते हैं || ६१ ।।
विनदन्तं महानादं भिन्नभेरीस्वनं बली ।
भ्रामयामास सुचिरं विस्फुरन्तमचेतसम् ।। ६२ ।।
राक्षस किर्मीर फूटे हुए नगारेकी-सी आवाजमें बड़े जोर-जोरसे चीत्कार करने और छटपटाने लगा। बलवान भीम उसे देरतक घुमाते रहे, इससे वह मूर्छित हो गया ।। ६२ ।।
त॑ विषीदन्तमाज्ञाय राक्षसं पाण्डुनन्दन: ।
प्रगृह् तरसा दोर्भ्या पशुमारममारयत् ।। ६३ ।।
उस राक्षसको विषादमें डूबा हुआ जान पाण्डुनन्दन भीमने दोनों भुजाओंसे वेगपूर्वक दबाते हुए पशुकी तरह उसे मारना आरम्भ किया ।। ६३ ।।
आक्रम्य च कटीदेशे जानुना राक्षसाधमम् |
पीडयामास पाणिभ्यां कण्ठं तस्थ वृकोदर: ।। ६४ ।।
भीमने उस राक्षसके कटिप्रदेशको अपने घुटनेसे दबाकर दोनों हाथोंसे उसका गला मरोड़ दिया ।। ६४ ।।
अथ जर्जरसर्वाड्गं व्यावृत्तनयनोल्बणम् |
भूतले भ्रामयामास वाक्यं चेदमुवाच ह ।। ६५ ।।
किर्मीरका सारा अंग जर्जर हो गया और उसकी आँखें घूमने लगीं, इससे वह और भी भयंकर प्रतीत होता था। भीमने उसी अवस्थामें उसे पृथ्वीपर घुमाया और यह बात कही -- || ६५ ||
हिडिम्बबकयो: पाप न त्वमश्रुप्रमार्जनम् । करिष्यसि गतश्लापि यमस्य सदन प्रति | ६६ ।। '“ओ पापी! अब तू यमलोकमें जाकर भी हिडिम्ब और बकासुरके आँसू न पोंछ सकेगा” ।। ६६ ।। इत्येवमुक्त्वा पुरुषप्रवीर- स्तं राक्षसं क्रोधपरीतचेता: । विस्नस्तवस्त्राभरणं स्फुरन्त- मुद्भ्रान्तचित्तं व्यसुमुत्ससर्ज ।। ६७ ।। ऐसा कहकर क्रोधसे भरे हृदयवाले नरवीर भीमने उस राक्षसको, जिसके वस्त्र और आभूषण खिसककर इधर-उधर गिर गये थे और चित्त भ्रान्त हो रहा था, प्राण निकल जानेपर छोड़ दिया ।। ६७ ।। तस्मिन् हते तोयदतुल्यरूपे कृष्णां पुरस्कृत्य नरेन्द्रपुत्रा: । भीम॑ प्रशस्थाथ गुणैरनेकै- हशस्ततो द्वैतवनाय जग्मु: ।। ६८ ।।
उस राक्षसका रूप-रंग मेघके समान काला था। उसके मारे जानेपर राजकुमार पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए और भीमसेनके अनेक गुणोंकी प्रशंसा करते हुए द्रौपदीको आगे करके वहाँसे द्वैतववनकी ओर चल दिये ।। ६८ ।।
विदुर उवाच
एवं विनिहत: संख्ये किर्मीरो मनुजाधिप ।
भीमेन वचनात् तस्य धर्मराजस्य कौरव ।। ६९ ।।
विदुरजी कहते हैं--नरेश्वर! इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञासे भीमसेनने किर्मीरको युद्धमें मार गिराया ।। ६९ |।
ततो निष्कण्टकं कृत्वा वनं तदपराजित: ।
द्रौपद्या सह धर्मज्ञो वसतिं तामुवास ह ।। ७० |।
तदनन्तर विजयी एवं धर्मज्ञ पाण्डुकुमार उस वनको निष्कण्टक (राक्षसरहित) बनाकर द्रौपदीके साथ वहाँ रहने लगे || ७० ।।
समाश्चास्य च ते सर्वे द्रौपद्रीं भरतर्षभा: ।
प्रहृष्टमनस: प्रीत्या प्रशशंसुर्व॑कोदरम् ।। ७१ ।।
भरतकुलके भूषणरूप उन सभी वीरोंने द्रौधदीको आश्वासन देकर प्रसन्नचित्त हो प्रेमपूर्वक भीमसेनकी सराहना की || ७१ ।।
भीमबाहुबलोप्पिष्टे विनष्टे राक्षसे ततः ।
विविशुस्ते वन॑ वीरा: क्षेमं निहतकण्टकम् ।। ७२ ।।
भीमसेनके बाहुबलसे पिसकर जब वह राक्षस नष्ट हो गया, तब उस अकण्टक एवं कल्याणमय वनमें उन सभी वीरोंने प्रवेश किया || ७२ ।।
स मया गच्छता मार्गे विनिकीर्णो भयावह: ।
वने महति दुष्टात्मा दृष्टो भीमबलाद्धत: ।। ७३ ।।
मैंने महान् वनमें जाते और आते समय रास्तेमें मरकर गिरे हुए उस भयानक एवं दुष्टात्मा राक्षषके शवको अपनी आँखों देखा था, जो भीमसेनके बलसे मारा गया था ।। ७३ ||
तत्राऔ्षमहं चैतत् कर्म भीमस्य भारत ।
ब्राह्मणानां कथयतां ये तत्रासन् समागता: ।। ७४ ।।
भारत! मैंने वनमें उन ब्राह्मणोंके मुखसे, जो वहाँ आये हुए थे, भीमसेनके इस महान् कर्मका वर्णन सुना ।। ७४ ।।
वैशम्पायन उवाच एवं विनिहतं संख्ये किर्मीरें रक्षसां वरम् । श्रुत्वा ध्यानपरो राजा निशश्चासार्तवत् तदा | ७५ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस प्रकार राक्षसप्रवर किर्मीरिका युद्धमें मारा जाना सुनकर राजा धृतराष्ट्र किसी भारी चिन्तामें डूब गये और शोकातुर मनुष्यकी भाँति लंबी साँस खींचने लगे ।। ७५ ।।
इति श्रीमहा भारते वनपर्वणि किर्मीरवधपर्वणि विदुरवाक्ये एकादशो<5ध्याय: ।। १३ || इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत किर्मीरवधपर्वमें विदुरवाक्यसम्बन्धी ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११ ॥
हि आह न (0) है 7 7
- दोनों भुजाओंको दोनों ओर फैलानेपर एक हाथकी अँगुलियोंके सिरेसे दूसरे हाथकी अँगुलियोंके सिरेतक जितनी दूरी होती है, उसे “व्याम” कहते हैं। यही पुरुषप्रमाण है। इसकी लम्बाई लगभग ३ ह हाथकी होती है।
(अर्जुनाभिगमनपर्व) द्वादशो<5 ध्याय:
अर्जुन और द्रौपदीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति, ट्रोपदीका भगवान् श्रीकृष्णसे अपने प्रति किये गये अपमान और दुःखका वर्णन और भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं धृष्टद्युम्नका उसे आश्वासन देना
वैशम्पायन उवाच
भोजा: प्रव्रजिताउदूुत्वा वृष्णयश्चान्धकै: सह ।
पाण्डवान् दुःखसंतप्तान् समाजम्मुर्महावने ।। १ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! जब भोज, वृष्णि और अन्धकवंशके वीरोंने सुना कि पाण्डव अत्यन्त दुःखसे संतप्त हो राजधानीसे निकलकर चले गये, तब वे उनसे मिलनेके लिये महान् वनमें गये ।। १ ।।
पाञज्चालस्य च दायादो धृष्टकेतुश्न चेदिप: ।
केकयाश्व महावीर्या भ्रातरो लोकविश्रुता: ।। २ ।॥।
बने द्रष्टं ययु: पार्थान् क्रोधामर्षसमन्विता: ।
गर्हयन्तो धार्तराष्ट्रानू कि कुर्म इति चाब्रुवन् ।। ३ ।।
पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न, चेदिराज धृष्टकेतु तथा महापराक्रमी लोकविख्यात केकयराजकुमार सभी भाई क्रोध और अमर्षमें भरकर धृतराष्ट्रपुत्रोंकी निन्दा करते हुए कुन्तीकुमारोंसे मिलनेके लिये वनमें गये और आपसमें इस प्रकार कहने लगे, “हमें क्या करना चाहिये” ।। २-३ ।।
वासुदेवं पुरस्कृत्य सर्वे ते क्षत्रियर्षभा: ।
परिवार्योपविविशुर्धर्मराजं युधिष्ठिरम् ।
अभिवाद्य कुरुश्रेष्ठ विषण्ण: केशवो<ब्रवीत् ।। ४ ।।
भगवान् श्रीकृष्णको आगे करके वे सभी क्षत्रियशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिरको चारों ओरसे घेरकर बैठे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण विषादग्रस्त हो कुरुप्रवर युधिष्ठिरको नमस्कार करके इस प्रकार बोले ।। ४ ।।
वायुदेव उवाच
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्न दुरात्मन: ।
दुःशासनचतुर्थानां भूमि: पास्यति शोणितम् ॥। ५ ।।
श्रीकृष्णने कहा--राजाओ! जान पड़ता है, यह पृथ्वी दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि और चौथे दुःशासन--इन सबके रक्तका पान करेगी ।। ५ ।।
एतान् निहत्य समरे ये च तस्य पदानुगा: ।
तांश्व सर्वान् विनिर्जित्य सहितान् सनराधिपान् ।। ६ ।।
ततः सर्वेडभिषिज्चामो धर्मराजं युधिष्ठिरम् ।
निकृत्योपचरन् वध्य एष धर्म: सनातन: ।। ७ ।।
युद्धमें इनको और इनके सब सेवकोंको अन्य राजाओंसहित परास्त करके हम सब लोग धर्मराज युधिष्ठिरको पुनः चक्रवर्ती नरेशके पदपर अभिषिक्त करें। जो दूसरेके साथ छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा हो उसे मार डालना चाहिये, यह सनातन धर्म है ।। ६-७ ।।
वैशग्पायन उवाच
पार्थानामभिषड्लेण तथा क्रुद्धं जनार्दनम् ।
अर्जुन: शमयामास दिथक्षन्तमिव प्रजा: ।। ८ ।।
संक्रुद्धं केशवं दृष्टवा पूर्वदेहेषु फाल्गुन: ।
कीर्तयामास कर्माणि सत्यकीर्तेर्महात्मन: ।। ९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुन्तीपुत्रोंके अपमानसे भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे कुपित हो उठे, मानो वे समस्त प्रजाको जलाकर भस्म कर देंगे। उन्हें इस प्रकार क्रोध करते देख अर्जुनने उन्हें शान्त किया और उन सत्यकीर्ति महात्माद्वारा पूर्व शरीरोंमें किये हुए कर्मोका कीर्तन आरम्भ किया ।। ८-९ |।
पुरुषस्याप्रमेयस्य सत्यस्थामिततेजस: ।
प्रजापतिपतेरविष्णोलॉकनाथस्य धीमत: ।। १० ।।
भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्यामी, अप्रमेय, सत्यस्वरूप, अमिततेजस्वी, प्रजापतियोंके भी पति, सम्पूर्ण लोकोंके रक्षक तथा परम बुद्धिमान श्रीविष्णु ही हैं (अर्जुनने उनकी इस प्रकार स्तुति की) ।। १० ।।
अजुन उवाच
दश वर्षसहस्राणि यत्रसायंगृहो मुनि: ।
व्यचरस्त्वं पुरा कृष्ण पर्वते गन्धमादने ।। ११ ।।
अर्जुन बोले--श्रीकृष्ण! पूर्वकालमें गन्धमादन पर्वतपर आपने यत्रसायंगृह- मुनिके रूपमें दस हजार वर्षोतक विचरण किया है; अर्थात् नारायण ऋषिके रूपमें निवास किया है ।। ११ |।
दश वर्षसहस्त्राणि दश वर्षशतानि च ।
पुष्करेष्ववस: कृष्ण त्वमपो भक्षयन् पुरा ।। १२ ।।
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! पूर्वकालमें कभी इस धराधाममें अवतीर्ण हो आपने ग्यारह हजार वर्षो-तक केवल जल पीकर रहते हुए पुष्करतीर्थमें निवास किया है || १२ ।।
ऊर्ध्वबाहुर्विशालायां बदर्या मधुसूदन ।
अतिष्ठ एकपादेन वायुभक्ष: शतं समा: ।। १३ ।।
मधुसूदन! आप विशालापुरीके बदरिकाश्रममें दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये केवल वायुका आहार करते हुए सौ वर्षोतक एक पैरसे खड़े रहे हैं || १३ ।।
अवकृष्टोत्तरासड्र: कृशो धमनिसंततः ।
आसी: कृष्ण सरस्वत्यां सत्रे द्वादशवार्षिके ।। १४ ।।
कृष्ण! आप सरस्वती नदीके तटपर उत्तरीय वस्त्रतकका त्याग करके द्वादशवार्षिक यज्ञ करते समयतक शरीरसे अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। आपके सारे शरीरमें फैली हुई नस- नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं ।। १४ ।।
प्रभासमप्यथासाद्य तीर्थ पुण्यजनोचितम् ।
तथा कृष्ण महातेजा दिव्यं वर्षमहस्रकम् ।। १५ ।।
अतिष्ठस्त्वमथैकेन पादेन नियमस्थित: ।
लोवप्रवृत्तिहेतुस्त्वमिति व्यासो ममाब्रवीत् ।। १६ ।।
गोविन्द! आप पुण्यात्मा पुरुषोंके निवासयोग्य प्रभासतीर्थमें जाकर लोगोंको तपमें प्रवृत्त करनेके लिये शौच-संतोषादि नियमोंमें स्थित हो महातेजस्वी स्वरूपसे एक सहस्र दिव्य वर्षोतक एक ही पैरसे खड़े रहे। ये सब बातें मुझसे श्रीव्यासजीने बतायी हैं ।। १५-१६ ।।
क्षेत्रज्ञ: सर्वभूतानामादिरन्तश्न केशव ।
निधानं तपसां कृष्ण यज्ञस्त्वं च सनातन: ।। १७ ।।
केशव! आप क्षेत्रज्ञ (सबके आत्मा), सम्पूर्ण भूतोंक आदि और अन्त, तपस्याके अधिष्ठान, यज्ञ और सनातन पुरुष हैं ।। १७ ।।
निहत्य नरकं॑ भौममाहृत्य मणिकुण्डले ।
प्रथमोत्पतितं कृष्ण मेध्यमश्वमवासृज: ।। १८ ।।
आप भूमिपुत्र नरकासुरको मारकर अदितिके दोनों मणिमय कुण्डलोंको ले आये थे; एवं आपने ही सृष्टिके आदिमें उत्पन्न होनेवाले यज्ञके उपयुक्त घोड़ेकी रचना की थी ।। १८ ।।
कृत्वा तत् कर्म लोकानामृषभ: सर्वलोकजित् ।
अवधीस्त्वं रणे सर्वान् समेतान् दैत्यदानवान् ॥। १९ |।
सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पानेवाले आप लोकेश्चर प्रभुने वह कर्म करके सामना करनेके लिये आये हुए समस्त दैत्यों और दानवोंका युद्धस्थलमें वध किया ।। १९ ।।
ततः: सर्वेश्वरत्वं च सम्प्रदाय शचीपते: ।
मानुषेषु महाबाहो प्रादुर्भूतोईसि केशव ।। २० ।।
महाबाहु केशव! तदनन्तर शचीपतिको सर्वेश्वर-पद प्रदान करके आप इस समय मनुष्योंमें प्रकट हुए हैं || २० ।।
स त्वं नारायणो भूत्वा हरिरासी: परंतप ।
ब्रह्मा सोमश्च सूर्यक्ष धर्मों धाता यमोडनल: ।। २१ |।
वायुर्वैश्रवणो रुद्र: काल: खं पृथिवी दिश: ।
अजकश्षराचरगुरु: स्रष्टा त्वं पुरुषोत्तम || २२ ।।
परंतप! पुरुषोत्तम! आप ही पहले नारायण होकर फिर हरिरूपमें प्रकट हुए। ब्रह्मा, सोम, सूर्य, धर्म, धाता, यम, अनल, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ, चराचरगुरु तथा सृष्टिकर्ता एवं अजन्मा आप ही हैं ।। २१-२२ ।।
परायणं देवमूर्धा क्रतुभिर्मधुसूदन ।
अयजो भूरितेजा वै कृष्ण चैत्ररथे वने ॥। २३ ।।
मधुसूदन श्रीकृष्ण! आपने चैत्ररथवनमें अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान किया है। आप सबके उत्तम आश्रय, देवशिरोमणि और महातेजस्वी हैं ।। २३ ।।
शतं शतसहस्त्राणि सुवर्णस्य जनार्दन |
एकैकस्मिंस्तदा यज्ञे परिपूर्णानि भागश: ।। २४ ।।
जनार्दन! उस समय आपने प्रत्येक यज्ञमें पृथक्ू-पृथक् एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दक्षिणाके रूपमें दीं || २४ ।।
अदितेरपि पुत्रत्वमेत्य यादवनन्दन ।
त्वं विष्णुरिति विख्यात इन्द्रादवरजो विभु: ॥। २५ ।।
यदुनन्दन! आप अदितिके पुत्र हो, इन्द्रके छोटे भाई होकर सर्वव्यापी विष्णुके नामसे विख्यात हैं ।। २५ ।।
शिशुर्भूत्वा दिवं खं च पृथिवीं च परंतप ।
त्रिभिविक्रमणै: कृष्ण क्रान्तवानसि तेजसा ।। २६ ।।
परंतप श्रीकृष्ण! आपने वामनावतारके समय छोटे-से बालक होकर भी अपने तेजसे तीन डगोंद्वारा द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूलोक--तीनोंको नाप लिया || २६ ।।
सम्प्राप्प दिवमाकाशमादित्यस्यन्दने स्थित: ।
अत्यरोचश्व भूतात्मन् भास्करं स्वेन तेजसा ।। २७ ।।
भूतात्मन! आपने सूर्यके रथपर स्थित हो द्युलोक और आकाशमें व्याप्त होकर अपने तेजसे भगवान् भास्करको भी अत्यन्त प्रकाशित किया है || २७ ।।
प्रादुर्भावसहस्रेषु तेषु तेषु त्वया विभो ।
अधर्मरुचय: कृष्ण निहता: शतशो<सुरा: ।। २८ ।।
विभो! आपने सहस्रों अवतार धारण किये हैं और उन अवतारोंमें सैकड़ों असुरोंका, जो अधर्ममें रुचि रखनेवाले थे, वध किया है || २८ ।।
सादिता मौरवा: पाशा निसुन्दनरकौ हतौ ।
कृत: क्षेम: पुनः पन्था: पुरं प्राग्ज्योतिषं प्रति ।। २९ ।।
आपने मुर दैत्यके लोहमय पाश काट दिये, निसुन्द और नरकासुरको मार डाला और पुनः प्राग्ज्योतिषपुरका मार्ग सकुशल यात्रा करनेयोग्य बना दिया || २९ ।।
जारूथ्यामाहुति: क्राथ: शिशुपालो जनै: सह ।
जरासंधश्ष शैब्यक्ष शतधन्वा च निर्जित: ।। ३० ।।
भगवन्! आपने जारूथी नगरीमें आहुति, क्राथ, साथियोंसहित शिशुपाल, जरासंध, शैब्य और शतधन्वाको परास्त किया ।। ३० ।।
तथा पर्जन्यघोषेण रथेनादित्यवर्चसा ।
अवाप्सीर्महिषीं भोज्यां रणे निर्जित्य रुक्मिणम् ।। ३१ ।।
इसी प्रकार मेघके समान घर्घर शब्द करनेवाले सूर्यतुल्य तेजस्वी रथके द्वारा कुण्डिनपुरमें जाकर आपने रुक््मीको युद्धमें जीता और भोजवंशकी कन्या रुक्मिणीको अपनी पटरानीके रूपमें प्राप्त किया || ३१ ।।
इन्द्रद्युम्नो हतः कोपाद् यवनश्न कसेरुमान् |
हतः सौभपति: शाल्वस्त्वया सौभं च पातितम् ॥। ३२ ।।
प्रभो! आपने क्रोधसे इन्द्रद्युम्मको मारा और यवनजातीय कसेरुमान् एवं सौभपति शाल्वको भी यमलोक पहुँचा दिया। साथ ही शाल्वके सौभ विमानको भी छित्न-भिन्न करके धरतीपर गिरा दिया ।। ३२ ।।
एवमेते युधि हता भूयश्चान्याञ्छूणुष्व ह ।
इरावत्यां हतो भोज: कार्तवीर्यसमो युधि ।॥। ३३ ।।
इस प्रकार इन पूर्वोक्त राजाओंको आपने युद्धमें मारा है। अब आपके द्वारा मारे हुए औरोंके भी नाम सुनिये। इरावतीके तटपर आपने कार्तवीर्य अर्जुनके सदृश पराक्रमी भोजको युद्धमें मार गिराया || ३३ ।।
गोपतिस्तालकेतुश्न त्वया विनिहतावुभौ ।
तां च भोगवतीं पुण्यामृषिकान्तां जनार्दन ।। ३४ ।।
द्वारकामात्मसात् कृत्वा समुद्र गमयिष्यसि ।
गोपति और तालकेतु--ये दोनों भी आपके ही हाथसे मारे गये। जनार्दन! भोग- सामग्रियोंसे सम्पन्न तथा ऋषि-मुनियोंकी प्रिय अपने अधीन की हुई पुण्यमयी द्वारका नगरीको आप अन्तमें समुद्रमें विलीन कर देंगे ।। ३४ ६ ।।
न क्रोधो न च मात्सर्य नानृतं मधुसूदन ।
त्वयि तिष्ठति दाशार्ह न नृशंस्यं कुतो5नृजु ।। ३५ ।।
आसीन चैत्यमध्ये त्वां दीप्पमानं स्वतेजसा ।
आगम्य ऋषय: सर्वेड्याचन्ताभयमच्युत ।। ३६ ।।
मधुसूदन! वास्तवमें आपमें न तो क्रोध है, न मात्सर्य है, न असत्य है, न निर्दयता ही है। दाशाई! फिर आपमें कठोरता तो हो ही कैसे सकती है? अच्युत! महलके मध्यभागमें बैठे और अपने तेजसे उद्भासित हुए आपके पास आकर सम्पूर्ण ऋषियोंने अभयकी याचना की ।। ३५-३६ ।।
युगान्ते सर्वभूतानि संक्षिप्प मधुसूदन ।
आत्मनैवात्मसात् कृत्वा जगदासी: परंतप ।। ३७ ।।
परंतप मधुसूदन! प्रलयकालमें समस्त भूतोंका संहार करके इस जगत्को स्वयं ही अपने भीतर रखकर आप अकेले ही रहते हैं | ३७ ।।
युगादौ तव वार्ष्णेय नाभिपडझ्मादजायत ।
ब्रह्मा चराचरगुरुर्यस्येदे सकल॑ जगत् ।। ३८ ।।
वार्ष्णेय! सृष्टिके प्रारम्भकालमें आपके नाभि-कमलसे चराचरगुरु ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनका रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत् है ।। ३८ ।।
त॑ हन्तुमुद्यतौ घोरो दानवौ मधुकैटभौ ।
तयोरव्यतिक्रमं दृष्टवा क्रुद्धस्य भवतो हरे: ।। ३९ ।।
ललाटाज्जातवाउछम्भु: शूलपाणिस्त्रिलोचन: ।
इत्थं तावपि देवेशौ त्वच्छरीरसमुद्धवी ।। ४० ।।
जब ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण लेनेको उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोधमें भरे हुए आप श्रीहरिके ललाटसे भगवान् शंकरका प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथोंमें त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्मा और शिव आपके ही शरीरसे उत्पन्न हुए हैं | ३९-४० ।।
त्वन्नियोगकरावेताविति मे नारदोडब्रवीत् |
तथा नारायण पुरा क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।। ४१ ।।
इष्टवांस्त्वं महासत्रं कृष्ण चैत्ररथे वने ।
नैवं परे नापरे वा करिष्यन्ति कृतानि वा ॥। ४२ ।।
यानि कर्माणि देव त्वं बाल एव महाबल: ।
कृतवान् पुण्डरीकाक्ष बलदेवसहायवान् |
कैलासभवने चापि ब्राह्मुणैन्यवस: सह ।। ४३ ।।
वे दोनों आपकी ही आज्ञाका पालन करनेवाले हैं, यह बात मुझे नारदजीने बतलायी थी। नारायण श्रीकृष्ण! इसी प्रकार पूर्वकालमें चैत्ररथवनके भीतर आपने प्रचुर
दक्षिणाओंसे सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्रका अनुष्ठान किया था। भगवान् पुण्डरीकाक्ष! आप महान् बलवान् हैं। बलदेवजी आपके नित्य सहायक हैं। आपने बचपनमें ही जो-जो महान् कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषोंने न तो किया है और न करेंगे। आप ब्राह्मणोंके साथ कुछ कालतक कैलास पर्वतपर भी रहे हैं | ४१-- ४३ ।।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक््त्वा महात्मानमात्मा कृष्णस्य पाण्डव: ।
तूष्णीमासीत् ततः पार्थमित्युवाच जनार्दन: ।। ४४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! श्रीकृष्णके आत्मस्वरूप पाण्डुनन्दन अर्जुन उन महात्मासे ऐसा कहकर चुप हो गये। तब भगवान् जनार्दनने कुन्तीकुमारसे इस प्रकार कहा -- || ४४ ।।
ममैव त्वं तवैवाहं ये मदीयास्तवैव ते ।
यस्त्वां द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्त्वामनु स मामनु ।। ४५ ।।
'पार्थ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है, वह मुझसे भी रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है || ४५ ।।
नरस्त्वमसि दुर्धर्ष हरिनारायणो हाहम् ।
काले लोकमिमं प्राप्ती नरनारायणावृषी ।। ४६ ।।
“दुर्द्धध वीर! तुम नर हो और मैं नारायण श्रीहरि हूँ। इस समय हम दोनों नर-नारायण ऋषि ही इस लोकमें आये हैं || ४६ ।।
अनन्य: पार्थ मत्तस्त्वं त्वत्तश्नाहं तथैव च ।
नावयोरन्तरं शक््यं वेदितुं भरतर्षभ ।। ४७ ।।
“कुन्तीकुमार! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठी हम दोनोंका भेद जाना नहीं जा सकता” ।। ४७ |।
वैशम्पायन उवाच
एवमुक्ते तु वचने केशवेन महात्मना ।
तस्मिन् वीरसमावाये संरब्धेष्वथ राजसु ।। ४८ ।।
धृष्टद्युम्नमुखैर्वरिर्श्रातृभि: परिवारिता ।
पाज्चाली पुण्डरीकाक्षमासीनं भ्रातृभि: सह ।
अभिगम्याब्रवीत् क्रुद्धा शरण्यं शरणैषिणी ।। ४९ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! रोषावेशसे भरे हुए राजाओंकी मण्डलीमें उस वीरसमुदायके मध्य महात्मा केशवके ऐसा कहनेपर धृष्टद्युम्म आदि भाइयोंसे घिरी और
कुपित हुई पांचालराजकुमारी द्रौपदी भाइयोंके साथ बैठे हुए शरणागतवत्सल श्रीकृष्णके पास जा उनकी शरणकी इच्छा रखती हुई उनसे बोली || ४८-४९ ।।
द्रौपहुवाच
पूर्वे प्रजाभिसर्गे त्वामाहुरेकं प्रजापतिम् ।
स्रष्टारं सर्वतोकानामसितो देवलो<ब्रवीत् ।। ५० ।।
द्रौपदीने कहा--प्रभो! ऋषिलोग प्रजासृष्टिके प्रारम्भकालमें एकमात्र आपको ही सम्पूर्ण जगत्का स्रष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवलका यही मत है ।। ५० ।।
विष्णुस्त्वमसि दुर्धर्ष त्वं यज्ञो मधुसूदन ।
यष्टा त्वमसि यष्टव्यो जामदग्न्यो यथाब्रवीत् ।। ५१ ।।
दुर्द्धध मधुसूदन! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही यजन करने योग्य श्रीहरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन परशुरामका कथन है ।। ५१ ।।
ऋषयपस्त्वां क्षमामाहु: सत्यं च पुरुषोत्तम |
सत्याद् यज्ञोडसि सम्भूत: कश्यपस्त्वां यथाब्रवीत् ।। ५२ ।।
पुरुषोत्तम! कश्यपजीका कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्यका स्वरूप कहते हैं। सत्यसे प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं ।। ५२ ।।
साध्यानामपि देवानां शिवानामीश्ररेश्वर |
भूतभावन भूतेश यथा त्वां नारदोउब्रवीत् ।। ५३ ।।
भूतभावन भूतेश्वरर आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रोंके अधीश्वर हैं। नारदजीने आपके विषयमें यही विचार प्रकट किया है || ५३ ।।
ब्रह्मशंकरशक्राद्यैर्देववृन्दै: पुन: पुनः ।
क्रीडसे त्वं नरव्याप्र बाल: क्रीडनकैरिव ।। ५४ ।।
नरश्रेष्ठ! जैसे बालक खिलौनोंसे खेलता है, उसी प्रकार आप ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि देवताओंसे बारंबार क्रीडा करते रहते हैं ।। ५४ ।।
द्यौश्न ते शिरसा व्याप्ता पद्धयां च पृथिवी प्रभो ।
जठरं त इमे लोका: पुरुषोडसि सनातन: ।। ५५ ||
प्रभो! स्वर्गलोेक आपके मस्तकसे और पृथ्वी आपके चरणोंसे व्याप्त है। ये सब लोक आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं ।। ५५ ।।
विद्यातपो$भितप्तानां तपसा भावितात्मनाम् |
आत्मदर्शनतृप्तानामृषीणामसि सत्तम: ।। ५६ ।।
विद्या और तपस्यासे सम्पन्न तथा तपके द्वारा शोधित अन्त:ःकरणवाले आत्मज्ञानसे तृप्त महर्षियोंमें आप ही परम श्रेष्ठ हैं || ५६ ।।
राजर्षीणां पुण्यकृतामाहवेष्वनिवर्तिनाम् ।
सर्वधर्मोपपन्नानां त्वं गति: पुरुषर्षभ ।
त्वं प्रभुस्त्वं विभुश्न त्वं भूतात्मा त्वं विचेष्टसे || ५७ ।।
पुरुषोत्तम! युद्धमें कभी पीठ न दिखानेवाले, सब धर्मोसे सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियोंके आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभु (सबके स्वामी), आप ही विभु [सर्वव्यापी) और आप ही सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियोंके रूपमें नाना प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहे हैं ।। ५७ ।।
लोकपालाश्न लोकाश्ष नक्षत्राणि दिशो दश ।
नभभश्रन्द्रश्न सूर्यश्ष त्वयि सर्व प्रतेष्ठितम् ।। ५८ ।।
लोक, लोकपाल, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, आकाश, चन्द्रमा और सूर्य सब आपमें प्रतिष्ठित हैं ।। ५८ ।।
मर्त्यता चैव भूतानाममरत्वं दिवौकसाम् |
त्वयि सर्व महाबाहो लोककार्य प्रतिष्ठितम् ।। ५९ ।।
महाबाहो! भूलोकके प्राणियोंकी मृत्युपरवशता, देवताओंकी अमरता तथा सम्पूर्ण जगत्का कार्य सब कुछ आपमें ही प्रतिष्ठित है ।। ५९ ।।
सा ते5हं दुःखमाख्यास्ये प्रणयान्मधुसूदन ।
ईशस्त्वं सर्वभूतानां ये दिव्या ये च मानुषा: ।। ६० ।।
मधुसूदन! मैं आपके प्रति प्रेम होनेके कारण आपसे अपना दुःख निवेदन करूँगी; क्योंकि दिव्य और मानव जगतमें जितने भी प्राणी हैं, उन सबके ईश्वर आप ही हैं ।। ६० ।।
कथं नु भार्या पार्थानां तव कृष्ण सखी विभो ।
धृष्टद्युम्नस्य भगिनी सभां कृष्येत मादृशी ।। ६१ ।।
भगवन् कृष्ण! मेरे-जैसी स्त्री जो कुन्तीपुत्रोंकी पत्नी, आपकी सखी और धृष्टद्युम्न- जैसे वीरकी बहिन हो, क्या किसी तरह सभामें (केश पकड़कर) घसीटकर लायी जा सकती है? ।। ६१ ।।
स्त्रीधर्मिणी वेपमाना शोणितेन समुक्षिता |
एकवसत्त्रा विकृष्टास्मि दु:खिता कुरुसंसदि ।। ६२ ।।
मैं रजस्वला थी, मेरे कपड़ोंपर रक्तके छींटे लगे थे, शरीरपर एक ही वस्त्र था और लज्जा एवं भयसे मैं थरथर काँप रही थी। उस दशामें मुझ दुःखिनी अबलाको कौरवोंकी सभामें घसीटकर लाया गया था ।। ६२ ।।
राज्ञां मध्ये सभायां तु रजसातिपरिप्लुता ।
दृष्टवा च मां धार्तराष्ट्रा प्रहसन् पापचेतस: ।। ६३ ।।
भरी सभामें राजाओंकी मण्डलीके बीच अत्यन्त रजस्राव होनेके कारण मैं रक्तसे भींगी जा रही थी। उस अवस्थामें मुझे देखकर धृतराष्ट्रके पापात्मा पुत्रोंने जोर-जोरसे हँसकर मेरी हँसी उड़ायी ।। ६३ ।।
दासीभावेन मां भोक्तुमीषुस्ते मधुसूदन ।
जीवत्सु पाण्डुपुत्रेषु पज्चालेषु च वृष्णिषु || ६४ ।।
मधुसूदन! पाण्डवों, पांचालों और वृष्णिवंशी वीरोंके जीते-जी धृतराष्ट्रके पुत्रोंने दासीभावसे मेरा उपभोग करनेकी इच्छा प्रकट की ।। ६४ ।।
नन्वहं कृष्ण भीष्मस्य धृतराष्ट्रस्य चो भयो: ।
स््नुषा भवामि धर्मेण साहं दासीकृता बलात् ।। ६५ ।।
श्रीकृष्ण! मैं धर्मतः भीष्म और धृतराष्ट्र दोनोंकी पुत्रवधू हूँ, तो भी उनके सामने ही बलपूर्वक दासी बनायी गयी ।। ६५ ।।
गर्हये पाण्डवांस्त्वेव युधि श्रेष्ठानू महाबलान् |
यत्क्लिश्यमानां प्रेक्षन्ते धर्मपत्नीं यशस्विनीम् ।। ६६ ।।
मैं तो संग्राममें श्रेष्ठ इन महाबली पाण्डवोंकी ही निन््दा करती हूँ; जो अपनी यशस्विनी धर्मपत्नीको शत्रुओंद्वारा सतायी जाती हुई देख रहे थे || ६६ ।।
धिग् बल॑ भीमसेनस्य धिक् पार्थस्य च गाण्डिवम् ।
यौ मां विप्रकृतां क्षुद्रैर्मषयेतां जनार्दन ।। ६७ ।।
जनार्दन! भीमसेनके बलको धिक्कार है, अर्जुनके गाण्डीव धनुषको भी धिककार है, जो उन नराधमोंद्वारा मुझे अपमानित होती देखकर भी सहन करते रहे ।। ६७ ।।
शाश्वृतो<5यं धर्मपथ: सद्धिराचरित: सदा ।
यद् भार्या परिरक्षन्ति भर्तारोडल्पबला अपि ॥। ६८ ।।
सत्पुरुषोंद्वारा सदा आचरणमें लाया हुआ यह धर्मका सनातन मार्ग है कि निर्बल पति भी अपनी पत्नीकी रक्षा करते हैं || ६८ ।।
भार्यायां रक्ष्यमाणायां प्रजा भवति रक्षिता ।
प्रजायां रक्ष्यमाणायामात्मा भवति रक्षित: ।। ६९ ।।
पत्नीकी रक्षा करनेसे अपनी संतान सुरक्षित होती है और संतानकी रक्षा होनेपर अपने आत्माकी रक्षा होती है ।। ६९ ।।
आत्मा हि जायते तस्यां तस्माज्जाया भवत्युत ।
भर्ता च भार्यया रक्ष्य: कथं जायान्ममोदरे ।। ७० ||
अपना आत्मा ही स्त्रीके गर्भसे जन्म लेता है; इसीलिये वह जाया कहलाती है। पत्नीको भी अपने पतिकी रक्षा इसीलिये करनी चाहिये कि यह किसी प्रकार मेरे उदरसे जन्म ग्रहण करे || ७० ।।
नन्विमे शरणं प्राप्त न त्यजन्ति कदाचन ।
ते मां शरणमापन्नां नान्वपद्यन्त पाण्डवा: ।। ७१ ।।
ये अपनी शरणमें आनेपर कभी किसीका भी त्याग नहीं करते; किंतु इन्हीं पाण्डवोंने मुझ शरणागत अबलापर तनिक भी दया नहीं की ।। ७१ ।।
पज्चभि: पतिभिज्जाता: कुमारा मे महौजस: ।
एतेषामप्यवेक्षार्थ त्रातव्यास्मि जनार्दन ।। ७२ ||
जनार्दन! इन पाँच पतियोंसे उत्पन्न हुए मेरे महाबली पाँच पुत्र हैं। उनकी देखभालके लिये भी मेरी रक्षा आवश्यक थी || ७२ ।।
प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात् सुतसोमो वृकोदरात् ।
अर्जुनाच्छुतकीर्तिश्व शतानीकस्तु नाकुलि: ।। ७३ ।।
कनिष्ठाच्छुतकर्मा च सर्वे सत्यपराक्रमा: ।
प्रद्युम्नो यादृश: कृष्ण तादृशास्ते महारथा: ।। ७४ ।।
युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसेनसे सुतसोम, अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, नकुलसे शतानीक और छोटे पाण्डव सहदेवसे श्रुतकर्माका जन्म हुआ है। ये सभी कुमार सच्चे पराक्रमी हैं। श्रीकृष्ण! आपका पुत्र प्रद्युम्न जैसा शूरवीर है, वैसे ही वे मेरे महारथी पुत्र भी हैं | ७३-७४ ।।
नन्विमे धनुषि श्रेष्ठा अजेया युधि शात्रवै: ।
किमर्थ धार्तराष्ट्राणां सहन्ते दुर्बलीयसाम् ।। ७५ ।।
ये धर्नुर्विद्यामें श्रेष्ठ तथा शत्रुओंद्वारा युद्धमें अजेय हैं तो भी दुर्बल धृतराष्ट्र-पुत्रोंका अत्याचार कैसे सहन करते हैं? | ७५ ।।
अधर्मेण द्वतं राज्यं सर्वे दासा: कृतास्तथा ।
सभायां परिकृष्टाहमेकवस्त्रा रजस्वला ।। ७६ ।।
अधर्मसे सारा राज्य हरण कर लिया गया, सब पाण्डव दास बना दिये गये और मैं एकवस्त्रधारिणी रजस्वला होनेपर भी सभामें घसीटकर लायी गयी ।। ७६ ।।
नाधिज्यमपि यच्छक्यं कर्तुमन्येन गाण्डिवम् ।
अन्यत्रार्जुनभीमाभ्यां त्वया वा मधुसूदन ।। ७७ ।।
मधुसूदन! अर्जुनके पास जो गाण्डीव धनुष है, उसपर अर्जुन, भीम अथवा आपके सिवा दूसरा कोई प्रत्यंचा भी नहीं चढ़ा सकता (तो भी ये मेरी रक्षा न कर सके) ।। ७७ ।।
धिग् बल॑ भीमसेनस्य धिक् पार्थस्य च पौरुषम् |
यत्र दुर्योधन: कृष्ण मुहूर्तमपि जीवति ।। ७८ ।।
कृष्ण! भीमसेनके बलको धिक्कार है, अर्जुनके पुरुषार्थको भी धिक्कार है, जिसके होते हुए दुर्योधन इतना बड़ा अत्याचार करके दो घड़ी भी जीवित रह रहा है || ७८ ।।
य एतानाक्षिपद् राष्ट्रात् सह मात्राविहिंसकान् ।
अधीयानान् पुरा बालान् व्रतस्थान् मधुसूदन ।। ७९ |।
मधुसूदन! पहले बाल्यावस्थामें, जब कि पाण्डव ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए अध्ययनमें लगे थे, किसीकी हिंसा नहीं करते थे, जिन दुष्टने इन्हें इनकी माताके साथ राज्यसे बाहर निकाल दिया था ।। ७९ ||
भोजने भीमसेनस्य पाप: प्राक्षेपयद् विषम् ।
कालकूटं नवं तीक्ष्णं सम्भूतं लोमहर्षणम् ।। ८० ।।
जिस पापीने भीमसेनके भोजनमें नूतन, तीक्ष्ण, परिमाणमें अधिक एवं रोमांचकारी कालकूट नामक विष डलवा दिया था || ८० ।।
तज्जीर्णमविकारेण सहान्नेन जनार्दन ।
सशेषत्वान्महाबाहो भीमस्य पुरुषोत्तम ।। ८१ ।।
महाबाहु नरश्रेष्ठ जनार्दन! भीमसेनकी आयु शेष थी, इसीलिये वह घातक विष अन्नके साथ ही पच गया और उसने कोई विकार नहीं उत्पन्न किया (इस प्रकार उस दुर्योधनके अत्याचारोंको कहाँतक गिनाया जाय) ।। ८१ ।।
प्रमाणकोट्यां विश्वस्तं तथा सुप्तं वृकोदरम् ।
बद्ध्वैनं कृष्ण गज्जायां प्रक्षिप्प पुरमाव्रजत् ।। ८२ ।।
श्रीकृष्ण! प्रमाणकोटितीर्थमें, जब भीमसेन विश्वस्त होकर सो रहे थे, उस समय दुर्योधनने इन्हें बाँधकर गंगामें फेंक दिया और स्वयं चुपचाप राजधानीमें लौट आया || ८२ ।।
यदा विबुद्धः कौन्तेयस्तदा संच्छिद्य बन्धनम् ।
उदतिष्ठन्महाबाहुर्भीमसेनो महाबल: ।। ८३ ।।
जब इनकी आँख खुली तो ये महाबली महाबाहु भीमसेन सारे बन्धनोंको तोड़कर जलसे ऊपर उठे ।। ८३ ।।
आशीविषै: कृष्णसर्पैरभीमसेनमदंशयत् ।
सर्वेष्वेवाड्रदेशेषु न ममार च शत्रुहा ।। ८४ ।।
इनके सारे अंगोंमें विषैले काले सर्पोंसे डँसवाया; परंतु शत्रुहन्ता भीमसेन मर न सके ।। ८४ ।।
प्रतिबुद्धस्तु कौन्तेय: सर्वान् सर्पानपो थयत् ।
सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जध्निवान् ।। ८५ ।।
जागनेपर कुन्तीनन्दन भीमने सब सर्पोंको उठा-उठाकर पटक दिया। दुर्योधनने भीमसेनके प्रिय सारथिको भी उलटे हाथसे मार डाला ।। ८५ ।।
पुन: सुप्तानुपाधाक्षीद् बालकान् वारणावते ।
शयानानार्यया सार्ध को नु तत् कर्तुमहति ।। ८६ ।।
इतना ही नहीं, वारणावतमें आर्या कुन्तीके साथमें ये बालक पाण्डव सो रहे थे, उस समय उसने घरमें आग लगवा दी। ऐसा दुष्कर्म दूसरा कौन कर सकता है? || ८६ ।।
यत्रार्या रुदती भीता पाण्डवानिदमब्रवीत् |
महद् व्यसनमापन्ना शिखिना परिवारिता ।। ८७ ।।
उस समय वहाँ आर्या कुन्ती भयभीत हो रोती हुई पाण्डवोंसे इस प्रकार बोलीं--'मैं बड़े भारी संकटमें पड़ी, आगसे घिर गयी || ८७ ।।
हा हतास्मि कुतो न्वद्य भवेच्छान्तिरिहानलात् ।
अनाथा विनशिष्यामि बालकै: पुत्रकैः सह ।। ८८ ।।
“हाय! हाय! मैं मारी गयी, अब इस आगसे कैसे शान्ति प्राप्त होगी? मैं अनाथकी तरह अपने बालक पुत्रोंके साथ नष्ट हो जाऊँगी' ।। ८८ ।।
तत्र भीमो महाबाहुर्वायुवेगपराक्रम: ।
आर्यामाश्वासयामास क्षातृ्श्चापि वृकोदर: ।। ८९ ।।
वैनतेयो यथा पक्षी गरुत्मान् पततां वर: ।
तथैवाभिपतिष्यामि भयं वो नेह विद्यते ।। ९० ।।
उस समय वहाँ वायुके समान वेग और पराक्रमवाले महाबाहु भीमसेनने आर्या कुन्ती तथा भाइयोंको आश्वासन देते हुए कहा--'पक्षियोंमें श्रेष्ठ विनतानन्दन गरुड जैसे उड़ा करते हैं, उसी प्रकार मैं भी तुम सबको लेकर यहाँसे चल दूँगा। अतः तुम्हें यहाँ तनिक भी भय नहीं है” ।। ८९-९० ।।
आर्यामड्केन वामेन राजानं दक्षिणेन च |
अंसयोश्व यमौ कृत्वा पृष्ठे बीभत्सुमेव च ।। ९१ ।।
सहसोत्पत्य वेगेन सर्वानादाय वीर्यवान् |
भ्रातृनारया च बलवान् मोक्षयामास पावकात् ।। ९२ ।।
ऐसा कहकर पराक्रमी एवं बलवान् भीमने आर्या कुन्तीको बायें अंकमें, धर्मराजको दाहिने अंकमें, नकुल और सहदेवको दोनों कंधोंपर तथा अर्जुनको पीठपर चढ़ा लिया और सबको लिये-दिये सहसा वेगसे उछलकर इन्होंने उस भयंकर अग्निसे भाइयों तथा माताकी रक्षा की- || ९१-९२ ||
ते रात्रौ प्रस्थिता: सर्वे सह मात्रा यशस्विन: ।
अभ्यगच्छन्महारण्ये हिडिम्बवनमन्तिकात् ।। ९३ ।।
फिर वे सब यशस्वी पाण्डव माताके साथ रातमें ही वहाँसे चल दिये और हिडिम्बवनके पास एक भारी वनमें जा पहुँचे ।। ९३ ।।
भ्रान्ता: प्रसुप्तास्तत्रेमे मात्रा सह सुदु:खिता: ।
सुप्तांश्ैनान भ्यगच्छद्धिडिम्बा नाम राक्षसी ॥। ९४ ।।
वहाँ मातासहित ये दु:ःखी पाण्डव थककर सो गये। सो जानेपर इनके निकट हिडिम्बा नामक राक्षसी आयी ।। ९४ ।।
सा दृष्टवा पाण्डवांस्तत्र सुप्तान् मात्रा सह क्षितौ ।
हृच्छयेनाभिभूतात्मा भीमसेनमकामयत् ।॥। ९५ ।।
मातासहित पाण्डवोंको वहाँ धरतीपर सोते देख कामसे पीड़ित हो उस राक्षसीने भीमसेनकी कामना की ।। ९५ ||
भीमस्य पादौ कृत्वा तु स्व उत्सड़े ततोडबला ।
पर्यमर्दत संहृष्टा कल्याणी मृदुपाणिना ।। ९६ ।।
भीमके पैरोंको अपनी गोदमें लेकर वह कल्याणमयी अबला अपने कोमल हाथोंसे प्रसन्नतापूर्वक दबाने लगी ।। ९६ ।।
तामबुध्यदमेयात्मा बलवान् सत्यविक्रम: ।
पर्यपृच्छत तां भीम: किमिहेच्छस्यनिन्दिते || ९७ ।।
उसका स्पर्श पाकर बलवान सत्यपराक्रमी तथा अमेयात्मा भीमसेन जाग उठे। जागनेपर उन्होंने पूछा--“सुन्दरी! तुम यहाँ क्या चाहती हो?” ।। ९७ ।।
एवमुक्ता तु भीमेन राक्षसी कामरूपिणी ।
भीमसेनं महात्मानमाह चैवमनिन्दिता ।। ९८ ।।
इस प्रकार पूछनेपर इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली उस अनिन्द्य सुन्दरी राक्षसकन्याने महात्मा भीमसे कहा-- || ९८ ।।
पलायध्वमित: क्षिप्रं मम भ्रातैष वीर्यवान् ।
आगमिष्यति वो हन्तुं तस्माद् गच्छत मा चिरम् ।। ९९ |।
“आपलोग यहाँसे जल्दी भाग जायूँ, मेरा यह बलवान् भाई हिडिम्ब आपको मारनेके लिये आयेगा; अत: आपलोग जल्दी चले जाइये, देर न कीजिये” || ९९ ।।
अथ भीमो< भ्युवाचैनां साभिमानमिदं वच: ।
नोद्विजेयमहं तस्मान्निहनिष्येडहमागतम् ।। १०० ।।
यह सुनकर भीमने अभिमानपूर्वक कहा--'मैं उस राक्षससे नहीं डरता। यदि यहाँ आयेगा तो मैं ही उसे मार डालूँगा” || १०० ।।
तयो: श्रुत्वा तु संजल्पमागच्छद् राक्षसाधम: ।
भीमरूपो महानादान् विसृजन् भीमदर्शन: ।। १०१ ||
उन दोनोंकी बातचीत सुनकर वह भीमरूपधारी भयंकर एवं नीच राक्षस बड़े जोरसे गर्जना करता हुआ वहाँ आ पहुँचा || १०१ ।।
राक्षस उवाच
केन सार्थ कथयसि आनयैनं ममान्तिकम् |
हिडिम्बे भक्षयिष्यामो न चिरं कर्तुमहसि ।। १०२ ।।
राक्षस बोला--हिडिम्बे! “तू किससे बात कर रही है? लाओ इसे मेरे पास। हमलोग खायँगे। अब तुम्हें देर नहीं करनी चाहिये || १०२ ।।
सा कृपासंगृहीतेन हृदयेन मनस्विनी ।
नैनमैच्छत् तदाख्यातुमनुक्रोशादनिन्दिता | १०३ ।।
मनस्विनी एवं अनिन्दिता हिडिम्बाने स्नेहयुक्त हृदयके कारण दयावश यह क्रूरतापूर्ण संदेश भीमसेनसे कहना उचित न समझा || १०३ ।।
स नादान् विनदन् घोरान् राक्षस: पुरुषादक: ।
अभ्यद्रवत वेगेन भीमसेनं तदा किल ।। १०४ ।।
इतनेहीमें वह नरभक्षी राक्षस घोर गर्जना करता हुआ बड़े वेगसे भीमसेनकी ओर दौड़ा || १०४ ।।
तमभिद्र॒त्य संक्रुद्धो वेगेन महता बली ।
अग॒ह्नात् पाणिना पार्णिं भीमसेनस्य राक्षस: ।। १०५ ।।
इन्द्राशनिसमस्पर्श वज़संहननं दृढम् |
संहत्य भीमसेनाय व्याक्षिपत् सहसा करम् | १०६ ।।
क्रोधमें भरे हुए उस बलवान राक्षसने बड़े वेगसे निकट जाकर अपने हाथसे भीमसेनका हाथ पकड़ लिया। भीमसेनके हाथका स्पर्श इन्द्रके वज्रके समान था। उनका शरीर भी वैसा ही सुदृढ़ था। राक्षसने भीमसेनसे भिड़कर उनके हाथको सहसा झटक दिया || १०५-१०६ ||
गृहीतं पाणिना पारणिं भीमसेनस्य रक्षसा ।
नामृष्यत महाबाहुस्तत्राक्रुध्यद् वृकोदर: ॥। १०७ ।।
राक्षसने भीमसेनके हाथको अपने हाथसे पकड़ लिया; यह बात महाबाहु भीमसेन नहीं सह सके। वे वहीं कुपित हो गये || १०७ ।।
तदा<5<सीत् तुमुलं युद्ध भीमसेनहिडिम्बयो: ।
सर्वस्त्रिविदुषोर्घोरें वृत्रवासवयोरिव || १०८ ।।
उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता भीमसेन और हिडिम्बमें इन्द्र और वृत्रासुरके समान भयानक एवं घमासान युद्ध होने लगा || १०८ ।।
विक्रीड्य सुचिरं भीमो राक्षसेन सहानघ ।
निजघान महावीर्यस्तं तदा निर्बलं बली ।। १०९ ।।
निष्पाप श्रीकृष्ण! महापराक्रमी और बलवान् भीमसेनने उस राक्षसके साथ बहुत देरतक खिलवाड़ करके उसके निर्बल हो जानेपर उसे मार डाला | १०९ |।
हत्वा हिडिम्बं भीमो5थ प्रस्थितो भ्रातृभि: सह ।
हिडिम्बामग्रत: कृत्वा यस्यां जातो घटोत्कच: || ११० ।।
इस प्रकार हिडिम्बको मारकर हिडिम्बाको आगे किये भीमसेन अपने भाइयोंके साथ आगे बढ़े। उसी हिडिम्बासे घटोत्कचका जन्म हुआ || ११० ।।
ततः सम्प्राद्रवन् सर्वे सह मात्रा परंतपा: ।
एकचक्रामभिमुखा: संवृता ब्राह्मणव्रजै: ।। १११ ।।
तदनन्तर सब परंतप पाण्डव अपनी माताके साथ आगे बढ़े। ब्राह्मणोंसे घिरे हुए ये लोग एकचक्रा नगरीकी ओर चल दिये ।। १११ ।।
प्रस्थाने व्यास एषां च मन्त्री प्रियहिते रत: ।
ततोडगच्छन्नेकचक्रां पाण्डवा: संशितव्रता: || ११२ ।।
उस यात्रामें इनके प्रिय एवं हितमें लगे हुए व्यासजी ही इनके परामर्शदाता हुए। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले पाण्डव उन्हींकी सम्मतिसे एकचक्रापुरीमें गये || ११२ ।।
तत्राप्यासादयामासुर्बक॑ नाम महाबलम् |
पुरुषादं प्रतिभयं हिडिम्बेनैव सम्मितम् ।। ११३ ।।
वहाँ जानेपर भी इन्हें नरभक्षी राक्षस महाबली बकासुर मिला। वह भी हिडिम्बके ही समान भयंकर था ।। ११३ ।।
तं॑ चापि विनिहत्योग्रं भीम: प्रहरतां वर: ।
सहितो भ्रातृभि: सर्वैर्द्रपदस्य पुरं ययौ ।। ११४ ।।
योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीम उस भयंकर राक्षसको मारकर अपने सब भाइयोंके साथ मेरे पिता ट्रुपदकी राजधानीमें गये ।। ११४ ।।
लब्धाहमपि तत्रैव वसता सव्यसाचिना ।
यथा त्वया जिता कृष्ण रुक्मिणी भीष्मकात्मजा ।। ११५ ।।
श्रीकृष्ण! जैसे आपने भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणीको जीता था, उसी प्रकार मेरे पिताकी राजधानीमें रहते समय सव्यसाची अर्जुनने मुझे जीता ।। ११५ ।।
एवं सुयुद्धे पार्थेन जिताहं मधुसूदन ।
स्वयंवरे महत् कर्म कृत्वा न सुकरं परै: ।। ११६ ।।
मधुसूदन! स्वयंवरमें, जो महान् कर्म दूसरोंके लिये दुष्कर था, वह करके भारी युद्धमें भी अर्जुनने मुझे जीत लिया था || ११६ ।।
एवं क्लेशै: सुबहुभि: क्लिश्यमाना सुदु:ःखिता ।
निवसाम्यार्यया हीना कृष्ण धौम्यपुर:सरा ।। ११७ ।।
परंतु आज मैं इन सबके होते हुए भी अनेक प्रकारके क्लेश भोगती और अत्यन्त दुःखमें डूबी रहकर अपनी सास कुन्तीसे अलग हो धौम्यजीको आगे रखकर वनमें निवास करती हूँ || ११७ ।।
त इमे सिंहविक्रान्ता वीर्येणा भ्यधिका: परै: ।
विहीनै: परिक्लिश्यन्तीं समुपैक्षन्त मां कथम् ।। ११८ ।।
ये सिंहके समान पराक्रमी पाण्डव बल-वीर्यमें शत्रुओंसे बढ़े-चढ़े हैं, इनसे सर्वथा हीन कौरव मुझे भरी सभामें कष्ट दे रहे थे, तो भी इन्होंने क्यों मेरी उपेक्षा की? ।। ११८ ।।
एतादृशानि दुःखानि सहन्ती दुर्बलीयसाम् ।
दीर्घकालं प्रदीप्तास्मि पापानां पापकर्मणाम् ।। ११९ |।
पापकर्मोमें लगे हुए अत्यन्त दुर्बल पापी शत्रुओंके दिये हुए ऐसे-ऐसे दुःख मैं सह रही हूँ और दीर्घकालसे चिन्ताकी आगमें जल रही हूँ ।। ११९ ।।
कुले महति जातास्मि दिव्येन विधिना किल |
पाण्डवानां प्रिया भार्या सनुषा पाण्डोर्महात्मन: ।। १२० ।।
यह प्रसिद्ध है कि मैं दिव्य विधिसे एक महान् कुलमें उत्पन्न हुई हूँ। पाण्डवोंकी प्यारी पत्नी और महाराज पाण्डुकी पुत्रवधू हूँ || १२० ।।
कचग्रहमनुप्राप्ता सास्मि कृष्ण वरा सती ।
पज्चानां पाणए्डुपुत्राणां प्रेक्षतां मधुसूदन ।। १२१ ।।
मधुसूदन श्रीकृष्ण! मैं श्रेष्ठ और सती-साध्वी होती हुई भी इन पाँचों पाण्डवोंके देखते- देखते केश पकड़कर घसीटी गयी ।। १२१ ।।
इत्युक्त्वा प्रारुदत् कृष्णा मुखं प्रच्छाद्य पाणिना ।
पद्मकोशप्रकाशेन मृदुना मृदुभाषिणी ।। १२२ ।।
ऐसा कहकर मृदुभाषिणी द्रौपदी कमलकोशके समान कान्तिमान् एवं कोमल हाथसे अपना मुँह ढककर फूट-फ़ूटकर रोने लगी ।। १२२ ।।
स्तनावपतितौ पीनौ सुजातौ शुभलक्षणौ |
अभ्यवर्षत पाज्चाली दुःखजैरश्रुबिन्दुभि: ।। १२३ ।।
पांचालराजकुमारी कृष्णा अपने कठोर, उभरे हुए, शुभलक्षण तथा सुन्दर स्तनोंपर दुःखजनित अभ्रुबिन्दुओंकी वर्षा करने लगी ।। १२३ ।।
चक्षुषी परिमार्जन्ती नि:श्वसन्ती पुन: पुन: ।
बाष्पपूर्णेन कण्ठेन क्रुद्धा वचनमत्रवीत् ।। १२४ ।।
कुपित हुई द्रौपदी बार-बार सिसकती और आँसू पोंछती हुई आँसूभरे कण्ठसे बोली -- || १२४ |।
नैव मे पतय: सन्ति न पुत्रा न च बान्धवा: ।
न भ्रातरो न च पिता नैव त्वं मधुसूदन ।। १२५ ।।
“मधुसूदन! मेरे लिये न पति हैं, न पुत्र हैं, न बान्धव हैं, न भाई हैं, न पिता हैं और न आप ही हैं ।। १२५ ।।
ये मां विप्रकृतां क्षुद्रैरुपेक्षध्व॑ं विशोकवत् |
नच मे शाम्यते दुःखं कर्णो यत् प्राहसत् तदा ।। १२६ ।।
“क्योंकि आप सब लोग, नीच मनुष्योंद्वारा जो मेरा अपमान हुआ था, उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, मानो इसके लिये आपके हृदयमें तनिक भी दुःख नहीं है। उस समय कर्णने जो मेरी हँसी उड़ायी थी, उससे उत्पन्न हुआ दुःख मेरे हृदयसे दूर नहीं होता है | १२६ ।।
चतुर्भि: कारणै: कृष्ण त्वया रक्ष्यास्मि नित्यश: ।
सम्बन्धाद् गौरवात् सख्यात् प्रभुत्वेनेव केशव ।। १२७ ।।
“श्रीकृष्ण! चार कारणोंसे आपको सदा मेरी रक्षा करनी चाहिये। एक तो आप मेरे सम्बन्धी हैं, दूसरे अग्निकुण्डमें उत्पन्न होनेके कारण मैं गौरवशालिनी हूँ, तीसरे आपकी सच्ची सखी हूँ और चौथे आप मेरी रक्षा करनेमें समर्थ हैं' || १२७ ।।
वैशम्पायन उवाच
अथ तामब्रवीत् कृष्णस्तस्मिन् वीरसमागमे । वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने वीरोंके उस समुदायमें द्रौपदीसे इस प्रकार कहा ।। १२७६ वासुदेव उवाच
रोदिष्यन्ति स्त्रियो होवं येषां क्रुद्धासि भाविनि ।
बीभत्सुशरसंच्छन्नाञ्छोणितौघपरिप्लुतान् ।। १२८ ।।
निहतान् वल्लभान् वीक्ष्य शयानान् वसुधातले ।
यत् समर्थ पाण्डवानां तत् करिष्यामि मा शुच: ।। १२९ ।।
श्रीकृष्ण बोले--भाविनि! तुम जिनपर क्कुद्ध हुई हो, उनकी स्त्रियाँ भी अपने प्राणप्यारे पतियोंको अर्जुनके बाणोंसे छिन्न-भिन्न और खूनसे लथपथ हो मरकर धरतीपर पड़ा देख इसी प्रकार रोयेंगी। पाण्डवोंके हितके लिये जो कुछ भी सम्भव है, वह सब करूँगा, शोक न करो ॥। १२८-१२९ ।।
। (४ $ ५ ११ ॥॥ (९;
सत्य॑ ते प्रतिजानामि राज्ञां राज्ञी भविष्यसि |
पतेद् द्यौर्हिमवाञ्छीर्येत् पृथिवी शकलीभवेत् ।। १३० ।।
शुष्येत् तोयनिधि: कृष्णे न मे मोघं वचो भवेत् ।
तच्छुत्वा द्रौपदी वाक््यं प्रतिवाक्यमथाच्युतात् ।। १३१ ।।
साचीकृतमवेक्षत् सा पाञज्चाली मध्यमं पतिम् |
आबभाषे महाराज द्रौपदीमर्जुनस्तदा ।। १३२ ।।
मैं सत्य प्रतिज्ञापूर्वक कह रहा हूँ कि तुम राजरानी बनोगी। कृष्णे! आसमान फट पड़े, हिमालय पर्वत विदीर्ण हो जाय, पृथ्वीके टुकड़े-टुकड़े हो जायँ और समुद्र सूख जाय, किंतु मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती। द्रौपदीने अपनी बातोंके उत्तरमें भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे ऐसी बातें सुनकर तिरछी चितवनसे अपने मझले पति अर्जुनकी ओर देखा। महाराज! तब अर्जुनने द्रौपदीसे कहा-- ।। १३०--१३२ ।।
मा रोदी: शुभतागम्राक्षि यदाह मधुसूदन: ।
तथा तद् भविता देवि नान्यथा वरवर्णिनि ।। १३३ ।।
“लालिमायुक्त सुन्दर नेत्रोंवाली देवि! वरवर्णिनि! रोओ मत। भगवान् मधुसूदन जो कुछ कह रहे हैं, वह अवश्य होकर रहेगा; टल नहीं सकता' ।। १३३ ।।
धृष्टह्ुम्न उवाच
अहं द्रोणं हनिष्यामि शिखण्डी तु पितामहम् ।
दुर्योधनं भीमसेन: कर्ण हन्ता धनंजय: ।। १३४ ।।
रामकृष्णौ व्यपाश्रित्य अजेया: सम रणे स्वसः ।
अपि वृत्रहणा युद्धे कि पुनर्धुतराष्ट्रजे || १३५ ।।
धृष्टद्युम्नने कहा--बहिन! मैं द्रोणको मार डालूँगा, शिखण्डी भीष्मका वध करेंगे, भीमसेन दुर्योधनको मार गिरायेंगे और अर्जुन कर्णको यमलोक भेज देंगे। भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामका आश्रय पाकर हमलोग युद्धमें शत्रुओंके लिये अजेय हैं। इन्द्र भी हमें रणमें परास्त नहीं कर सकते। फिर धृतराष्ट्रके पुत्रोंकी तो बात ही क्या है? ।। १३४-१३५ ।।
वैशम्पायन उवाच
इत्युक्तेडभिमुखा वीरा वासुदेवमुपास्थिता: ।
तेषां मध्ये महाबाहुः: केशवो वाक्यमब्रवीत् ।। १३६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! धृष्टद्युम्मके ऐसा कहनेपर वहाँ बैठे हुए वीर भगवान् श्रीकृष्णकी ओर देखने लगे। उनके बीचमें बैठे हुए महाबाहु केशवने उनसे ऐसा कहा ।। १३६ |।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्व णि द्रौपद्याश्वासने द्वादशो5ध्याय: ।। १२ || इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्वमें द्रौपदी-आश्चासनविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२ ॥।
#:73..8 #::3...7 () असम आता
- यत्रसायंगृह मुनि वे होते हैं, जो जहाँ सायंकाल हो जाता है वहीं घरकी तरह रातभर निवास करते हैं।
+ आदिपर्वके १४७वें अध्यायके लाक्षागृहदाहप्रसंगमें बतलाया है कि 'भीमसेनने माताको तो कंधेपर चढ़ा लिया और नकुल-सहदेवको गोदमें उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयोंको दोनों हाथोंसे पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे।” इस कथनसे द्रौपदीके वचन भिन्न हैं; क्योंकि द्रौपदीका उस समय विवाह नहीं हुआ था, अतः द्रौपदी इस बातको ठीक-ठीक नहीं जानती थी, इसीसे वह लोगोंके मुखसे सुनी-सुनायी बात अनुमानसे कह रही है; अत: लाक्षागृहदाहके प्रसंगकी बात ही ठीक है।
त्रयोदशो< ध्याय: श्रीकृष्णका जूएके अनुपस्थिलिको बताते हु पाण्डवोंपर आयी हुई
विपत्तिमें अपनी कारण मानना
वायुदेव उवाच
नैतत् कृच्छुमनुप्राप्तो भवान् स्याद् वसुधाधिप ।
यद्य॒हं द्वारकायां स्यां राजन् संनिहित: पुरा ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--राजन्! यदि मैं पहले द्वारकामें या उसके निकट होता तो आप इस भारी संकटमें नहीं पड़ते ।। १ ॥।
आगच्छेयमहं द्यूतमनाहूतो 5पि कौरवै: ।
आम्बिकेयेन दुर्धर्ष राज्ञा दुर्योधनेन च ।
वारयेयमहं द्यूतं बहून् दोषान् प्रदर्शयन् ॥। २ ।।
दुर्जय वीर! अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र, राजा दुर्योधन तथा अन्य कौरवोंके बिना बुलाये भी मैं उस द्यूतसभामें आता और जूएके अनेक दोष दिखाकर उसे रोकनेकी चेष्टा करता ।। २ |।
भीष्मद्रोणी समानाय्य कृपं बाह्लीकमेव च ।
वैचित्रवीर्य राजानमलं द्यूतेन कौरव ।। ३ ।।
पुत्राणां तव राजेन्द्र त्वन्निमित्तमिति प्रभो ।
तत्राचक्षमहं दोषान् यैर्भवान् व्यतिरोपित: ।। ४ ।।
प्रभो! मैं आपके लिये भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्नीक तथा राजा धृतराष्ट्रको बुलाकर कहता--“कुरुवंशके महाराज! आपके पुत्रोंकोी जूआ नहीं खेलना चाहिये।” राजन! मैं द्यूतसभामें जूएके उन दोषोंको स्पष्टरूपसे बताता, जिनके कारण आपको अपने राज्यसे वंचित होना पड़ा है ।। ३-४ ।।
वीरसेनसुतो यैस्तु राज्यात् प्रभ्रंशित: पुरा ।
अतर्कितविनाशश्ष् देवनेन विशाम्पते ।। ५ ।।
तथा जिन दोषोंने पूर्वकालमें वीरसेनपुत्र महाराज नलको राजसिंहासनसे च्युत किया। नरेश्वर! जूआ खेलनेसे सहसा ऐसा सर्वनाश उपस्थित हो जाता है, जो कल्पनामें भी नहीं आ सकता ।। ५ ||
सातत्यं च प्रसड्गस्य वर्णयेयं यथातथम् ।। ६ ।।
इसके सिवा उससे सदा जूआ खेलनेकी आदत बन जाती है। यह सब बातें मैं ठीक- ठीक बता रहा हूँ ।। ६ ।।
स्त्रियो$क्षा मृगया पानमेतत् कामसमुत्थितम् ।
दुःखं चतुष्टयं प्रोक्त यैर्नरो भ्रश्यते श्रिय: ॥॥ ७ ।।
तत्र सर्वत्र वक्तव्यं मन्यन्ते शास्त्रकोविदा: ।
विशेषतश्च वक्तव्यं ्यूते पश्यन्ति तद्विद: ।। ८ ।।
स्त्रियोंके प्रति आसक्ति, जूआ खेलना, शिकार खेलनेका शौक और मद्यपान--ये चार प्रकारके भोग कामनाजनित दुःख बताये गये हैं, जिनके कारण मनुष्य अपने धन-ऐश्वर्यसे भ्रष्ट हो जाता है। शास्त्रोंके निपुण विद्वान् सभी परिस्थितियोंमें इन चारोंको निन्दनीय मानते हैं; परंतु द्यूतक्रीडाको तो जूएके दोष जाननेवाले लोग विशेषरूपसे निन्दनीय समझते हैं || ७-८ ।।
एकाहादू द्रव्यनाशोअत्र ध्रुवं व्यसनमेव च ।
अभुक्तनाशश्चार्थानां वाक््पारुष्यं च केवलम् ॥। ९ ।।
एतच्चान्यच्च कौरव्य प्रसज्िकटुकोदयम् |
द्यूते ब्रूयां महाबाहो समासाद्याम्बिकासुतम् || १० ।।
जूएसे एक ही दिनमें सारे धनका नाश हो जाता है। साथ ही जूआ खेलनेसे उसके प्रति आसक्ति होनी निश्चित है। समस्त भोग-पदार्थोंका बिना भोगे ही नाश हो जाता है और बदलेमें केवल कटुवचन सुननेको मिलते हैं। कुरुनन्दन! ये तथा और भी बहुत-से दोष हैं, जो जूएके प्रसंगसे कटु परिणाम उत्पन्न करनेवाले हैं। महाबाहो! मैं धृतराष्ट्रसे मिलकर जूएके ये सभी दोष बतलाता ।। ९-१० |।
एवमुक्तो यदि मया गृह्नीयाद् वचनं मम ।
अनामयं स्याद् धर्मश्न॒ कुरूणां कुरुवर्धन ।। ११ ।।
कुरुवर्धन! मेरे इस प्रकार समझाने-बुझानेपर यदि वे मेरी बात मान लेते तो कौरवोंमें शान्ति बनी रहती और धर्मका भी पालन होता ।। ११ ।।
न चेत् स मम राजेन्द्र गृह्लीयान्मधुंर वच: ।
पथ्यं च भरतश्रेष्ठ निगृह्नीयां बलेन तम् ।। १२ ।।
राजेन्द्र! भरतश्रेष्ठ! यदि वे मेरे मधुर एवं हितकर वचनको सुनकर उसे न मानते तो मैं उन्हें बलपूर्वक रोक देता || १२ ।।
अथैनमपनीतेन सुहृदो नाम दुर्हवद: ।
सभासदोशनुवर्तेरंस्तांश्व हन्यां दुरोदरान् ।। १३ ।।
यदि वहाँ सुहृदनामधारी शत्रु अन्यायका आश्रय ले इस धृतराष्ट्रका साथ देते तो मैं उन सभासद जुआरियोंको मार डालता ।। १३ ।।
असांनिध्यं तु कौरव्य ममानर्तेष्वभूत् तदा |
येनेदं व्यसन प्राप्ता भवन्तो द्यूतकारितम् ।। १४ ।।
कुरुश्रेष्ठ! मैं उन दिनों आनर्तदेशमें ही नहीं था, इसीलिये आपलोगोंपर यह द्यूतजनित संकट आ गया ।। १४ ।। सो>हमेत्य कुरुश्रेष्ठ द्वारकां पाण्डुनन्दन । अश्रौषं त्वां व्यसनिनं युयुधानादू यथातथम् ।। १५ ।। कुरुप्रवर पाण्डुनन्दन! जब मैं द्वारकामें आया, तब सात्यकिसे आपके संकटमें पड़नेका यथावत् समाचार सुना ।। १५ ।। श्र॒ुत्वैव चाहं राजेन्द्र परमोद्धिग्नमानस: । तूर्णमभ्यागतो$स्मि त्वां द्रष्टकामो विशाम्पते || १६ ।। राजेन्द्र! वह सुनते ही मेरा मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और प्रजेश्वर! मैं तुरंत ही आपसे मिलनेके लिये चला आया ।। १६ ।। अहो कृच्छ्मनुप्राप्ता: सर्वे सम भरतर्षभ | सोऊहं त्वां व्यसने मग्नं पश्यामि सह सोदरै: ।। १७ ।। भरतकुलभूषण! अहो! आप सब लोग बड़ी कठिनाईमें पड़ गये हैं। मैं तो आपको सब भाइयोंसहित विपत्तिके समुद्रमें डूबा हुआ देख रहा हूँ || १७ ।। इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि वासुदेववाक्ये त्रयोदशो<5 ध्याय: || १३ |। इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें वायुदेववाक्यविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३ ॥।
हि ० आय न [हुक हि 7 आम
चतुर्दशो 5 ध्याय:
द्यूतके समय न पहुँचनेमें श्रीकृष्णके द्वारा शाल्वके साथ युद्ध करने और सौभविमानसहित उसे नष्ट करनेका संक्षिप्त वर्णन
युधिछिर उवाच
असांनिध्यं कथं कृष्ण तवासीदू वृष्णिनन्दन ।
क्व चासीदू विप्रवासस्ते कि चाकार्षी: प्रवासत: ।। १ ।।
युधिष्ठिरने कहा--वृष्णिकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीकृष्ण! जब यहाँ द्यूतक्रीडाका आयोजन हो रहा था, उस समय तुम द्वारकामें क्यों अनुपस्थित रहे? उन दिनों तुम्हारा निवास कहाँ था और उस प्रवासके द्वारा तुमने कौन-सा कार्य सिद्ध किया? ।। १ ।।
श्रीकृष्ण उवाच
शाल्वस्य नगरं सौभं॑ गतो<5हं भरतर्षभ ।
निहन्तुं कौरवश्रेष्ठ तत्र मे शूणु कारणम् ।। २ ।।
महातेजा महाबाहुर्यः स राजा महायशा: ।
दमघोषात्मजो वीर: शिशुपालो मया हतः ।। ३ ।।
यज्ञे ते भरतश्रेष्ठ राजसूये<र्हणां प्रति ।
स रोषवशमापन्नो नामृष्यत दुरात्मवान् ॥। ४ ।।
श्र॒त्वा तं निहतं शाल्वस्तीव्ररोषसमन्वित: ।
उपायाद् द्वारकां शून्यामिहस्थे मयि भारत ।। ५ ।।
श्रीकृष्णने कहा--भरतवंशशिरोमणे! कुरुकुलभूषण! मैं उन दिनों शाल्वके सौभ नामक नगराकार विमानको नष्ट करनेके लिये गया हुआ था। इसका क्या कारण था, वह बतलाता हूँ, सुनिये। भरतश्रेष्ठी आपके राजसूययज्ञमें अग्रपूजाके प्रश्नको लेकर जो क्रोधके वशीभूत हो इस कार्यको नहीं सह सका था और इसीलिये जिस दुरात्मा, महातेजस्वी, महाबाहु एवं महायशस्वी दमघोषनन्दन वीर राजा शिशुपालको मैंने मार डाला था; उसकी मृत्युका समाचार सुनकर शाल्व प्रचण्ड रोषसे भर गया। भारत! मैं तो यहाँ हस्तिनापुरमें था और वह हमलोगोंसे सूनी द्वारकापुरीमें जा पहुँचा || २--५ ।।
स तत्र योधितो राजन कुमारैर्वष्णिपुड्वै: ।
आगतः: कामगं सौभमारुहौव नृशंसवत् ।। ६ ।।
राजन! वहाँ वृष्णिवंशके श्रेष्ठ कुमारोंने उसके साथ युद्ध किया। वह इच्छानुसार चलनेवाले सौभ नामक विमानपर बैठकर आया और क्रूर मनुष्यकी भाँति यादवोंकी हत्या
करने लगा ।। ६ ।।
ततो वृष्णिप्रवीरांस्तान् बालान् हत्वा बहुंस्तदा ।
पुरोद्यानानि सर्वाणि भेदयामास दुर्मति: ।। ७ ।।
उस खोटी बुद्धिवाले शाल्वने वृष्णिवंशके बहुतेरे बालकोंका वध करके नगरके सब बगीचोंको उजाड़ डाला ।। ७ ||
उक्तवांश्व महाबाहो क्वासौ वृष्णिकुलाधम: ।
वासुदेव: स मन्दात्मा वसुदेवसुतो गत: ।। ८ ।॥।
महाबाहो! उसने यादवोंसे पूछा--“वह वृष्णिकुलका कलंक मन्दात्मा वसुदेवपुत्र वासुदेव कहाँ है? ।। ८ ।।
तस्य युद्धार्थिनो दर्प युद्धे नाशयितास्म्यहम् ।
आनर्ता: सत्यमाख्यात तत्र गन्तास्मि यत्र सः ।। ९ ।।
त॑ हत्वा विनिवर्तिष्ये कंसकेशिनिषूदनम् |
अहत्वा न निवर्तिष्ये सत्येनायुधभालभे ।। १० ।।
'उसे युद्धकी बड़ी इच्छा रहती है, आज उसके घमंडको मैं चूर कर दूँगा। आनर्तनिवासियो! सच-सच बतला दो। वह कहाँ है? जहाँ होगा, वहीं जाऊँगा और कंस तथा केशीका संहार करनेवाले उस कृष्णको मारकर ही लौटूँगा। मैं अपने अस्त्र-शस्त्रोंको छूकर सत्यकी सौगन्ध खाता हूँ कि अब कृष्णको मारे बिना नहीं लौटूँगा” ।। ९-१० ।।
क्वासौ क्वासाविति पुनस्तत्र तत्र प्रधावति ।
मया किल रणे योद्धुं काड्क्षमाण: स सौभराट् | ११ ।।
सौभविमानका स्वामी शाल्व संग्रामभूमिमें मेरे साथ युद्धकी इच्छा रखकर चारों ओर दौड़ता और सबसे यही पूछता था कि “वह कहाँ है, कहाँ है?” ।। ११ ।।
अद्य तं पापकर्माणि क्षुद्रें विश्वासघातिनम् ।
शिशुपालवधामर्षाद् गमयिष्ये यमक्षयम् ।। १२ ।।
मम पापस्वभावेन भ्राता येन निपातित: ।
शिशुपालो महीपालस्तं वधिष्ये महीपते ।। १३ ।।
राजन! साथ ही वह यह भी कहता था कि “आज उस नीच पापाचारी और विश्वासघाती कृष्णको शिशुपालवधके अमर्षके कारण मैं यमलोक भेज दूँगा। उस पापीने मेरे भाई राजा शिशुपालको मार गिराया है, अतः मैं भी उसका वध करूँगा ।। १२-१३ ।।
भ्राता बालश्न राजा च न च संग्राममूर्थनि ।
प्रमत्तश्न हतो वीरस्तं हनिष्ये जनार्दनम् ।। १४ ।।
“मेरा भाई शिशुपाल अभी छोटी अवस्थाका था, दूसरे वह राजा था, तीसरे युद्धके मुहानेपर खड़ा नहीं था, चौथे असावधान था, ऐसी दशामें उस वीरकी जिसने हत्या की है, उस जनार्दनको मैं अवश्य मारूँगा” || १४ ।।
एवमादि महाराज विलप्य दिवमास्थित: ।
कामगेन स सौभेन क्षिप्त्वा मां कुरुनन्दन ।। १५ ।।
कुरुनन्दन! महाराज! इस प्रकार शिशुपालके लिये विलाप करके मुझपर आक्षेप करता हुआ वह इच्छानुसार चलनेवाले सौभ विमानद्वारा आकाशमें ठहरा हुआ था ।। १५ ।।
तमश्रौषमहं गत्वा यथावृत्त: स दुर्मति: ।
मयि कौरव्य दुष्टात्मा मार्तिकावतको नृप: ।। १६ ।।
कुरुश्रेष्ठ! यहाँसे द्वारका जानेपर मैंने, मार्तिकावतक देशके निवासी दुष्टात्मा एवं दुर्बुद्धि राजा शाल्वने मेरे प्रति जो दुष्टतापूर्ण बर्ताव किया था (आक्षेपपूर्ण बातें कही थीं), वह सब कुछ सुना ।। १६ ।।
ततो5हमपि कौरव्य रोषव्याकुलमानस: ।
निश्चित्य मनसा राजन् वधायास्य मनो दधे ॥। १७ ।।
कुरुनन्दन! तब मेरा मन भी रोषसे व्याकुल हो उठा। राजन्! फिर मन-ही-मन कुछ निश्चय करके मैंने शाल्वके वधका विचार किया ।। १७ ।।
आनर्तेषु विमर्द च क्षेपं चात्मनि कौरव ।
प्रवृद्धमवलेपं च तस्य दुष्कृतकर्मण: ।। १८ ।।
ततः सौभवधायाह ूं प्रतस्थे पृथिवीपते ।
स मया सागरावरतें दृष्ट आसीत् परीप्सता ।। १९ ।।
कुरुप्रवर! पृथ्वीपते! उसने आनर्त देशमें जो महान् संहार मचा रखा था, वह मुझपर जो आक्षेप करता था तथा उस पापाचारीका घमंड जो बहुत बढ़ गया था, वह सब सोचकर मैं सौभनगरका नाश करनेके लिये प्रस्थित हुआ। मैंने सब ओर उसकी खोज की तो वह मुझे समुद्रके एक द्वीपमें दिखायी दिया || १८-१९ ।।
ततः प्रध्माप्प जलजं पाउ्चजन्यमहं नृप ।
आहूय शाल्वं समरे युद्धाय समवस्थित: ।। २० ।।
नरेश्वर! तदनन्तर मैंने पाउचजन्य शंख बजाकर शाल्वको समरभूमिमें बुलाया और स्वयं भी युद्धके लिये उपस्थित हुआ || २० ।।
तन्मुहूर्तमभूद् युद्ध तत्र मे दानवै: सह ।
वशीभूताश्न मे सर्वे भूतले च निपातिता: ।। २१ ।।
वहाँ सौभनिवासी दानवोंके साथ दो घड़ीतक मेरा युद्ध हुआ और मैंने सबको वशमें करके पृथ्वीपर मार गिराया ।। २१ ।।
एतत् कार्य महाबाहो येनाहं नागमं तदा ।
श्रुत्वैव हास्तिनपुरं द्यूतं चाविनयोत्थितम् ।
ट्रुतमागतवान् युष्मान् द्रष्टकाम: सुदु:ःखितान् ।। २२ ।।
महाबाहो! यही कार्य उपस्थित हो गया था, जिससे मैं उस समय न आ सका। लौटनेपर ज्यों ही सुना कि हस्तिनापुरमें दुर्योधनकी उद्दण्डताके कारण जूआ खेला गया (और पाण्डव उसमें सब कुछ हारकर वनको चले गये); तब अत्यन्त दुःखमें पड़े हुए आपलोगोंको देखनेके लिये मैं तुरंत यहाँ चला आया ।। २२ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने चतुर्दशो5ध्याय: ।। १४ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अ्जुनाभियगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४ ॥
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पञ्चदशो<् ध्याय:
सौभनाशकी विस्तृत कथाके प्रसंगमें द्वारकामें युद्धसम्बन्धी रक्षात्मक तैयारियोंका वर्णन
युधिछिर उवाच वासुदेव महाबाहो विस्तरेण महामते । सौभस्य वधमाचक्ष्व न हि तृप्पामि कथ्यत: ।। १ ।। युधिष्ठिरने कहा--महाबाहो! वसुदेवनन्दन! महामते! तुम सौभ-विमानके नष्ट होनेका समाचार विस्तारपूर्वक कहो। मैं तुम्हारे मुखसे इस प्रसंगको सुनते-सुनते तृप्त नहीं हो रहा हूँ ।। १ ।। वायुदेव उवाच
हतं श्रुत्वा महाबाहो मया श्रौतश्रवं नृप ।
उपायाद् भरतश्रेष्ठ शाल्वो द्वारवतीं पुरीम् ।। २ ।॥।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाबाहो! नरेश्वर! भरतमश्रेष्ठ! श्रुतश्रवा- के पुत्र शिशुपालके मारे जानेका समाचार सुनकर शाल्वने द्वारकापुरीपर चढ़ाई की ।। २ ।।
अरुन्धत्तां सुदुष्टात्मा सर्वतः पाण्डुनन्दन ।
शाल्वो वैहायसं चापि तत् पुरं व्यूह्ा विछ्ठित: ।। ३ ।।
पाण्डुनन्दन! उस दुष्टात्मा शाल्वने सेनाद्वारा द्वारकापुरीको सब ओरसे घेर लिया था। वह स्वयं आकाशचारी विमान सौभपर व्यूहरचनापूर्वक विराजमान हो रहा था ।। ३ ।।
तत्रस्थो5थ महीपालो योधयामास तां पुरीम् ।
अभिसारेण सर्वेण तत्र युद्धमवर्तत ।। ४ ।।
उसीपर रहकर राजा शाल्व द्वारकापुरीके लोगोंसे युद्ध करता था। वहाँ भारी युद्ध छिड़ा हुआ था और उसमें सभी दिशाओंसे अस्त्र-शस्त्रोंके प्रहार हो रहे थे |। ४ ।।
पुरी समन्ताद् विहिता सपताका सतोरणा ।
सचक्रा सहुडा चैव सयन्त्रखनका तथा ।। ५ ||
द्वारकापुरीमें सब ओर पताकाएँ फहरा रही थीं। ऊँचे-ऊँचे गोपुर वहाँ चारों दिशाओंमें सुशोभित थे। जगह-जगह सैनिकोंके समुदाय युद्धके लिये प्रस्तुत थे। सैनिकोंके आत्मरक्षापूर्वक युद्धकी सुविधाके लिये स्थान-स्थानपर बुर्ज बने हुए थे। युद्धोपयोगी यन्त्र वहाँ बैठाये गये थे; तथा सुरंगद्वारा नये-नये मार्ग निकालनेके काममें भी बहुत-से लोग जुटे हुए थे | ५ ।।
सोपशल्यप्रतोलीका साट्टाद्टालकगोपुरा ।
सचक्रग्रहणी चैव सोल्कालातावपोथिका ।। ६ ।।
68 # ॥ किआसला 2
सड़कोंपर लोहेके विषाक्त काँटे अदृश्यरूपसे बिछाये गये थे। अट्टालिकाओं और गोपुरोंमें पर्याप्त अन्नका संग्रह किया गया था। शत्रुपक्षके प्रहारोंको रोकनेके लिये जगह- जगह मोर्चेबन्दी की गयी थी। शत्रुओंके चलाये हुए जलते गोले और अलात (प्रज्वलित लौहमय अस्त्र)-को भी विफल करके नीचे गिरा देनेवाली शक्तियाँ सुसज्जित थीं ।। ६ ।।
सोष्टिका भरतश्रेष्ठ सभेरीपणवानका ।
सतोमराड्कुशा राजन् सशतघ्नीकलाड्ूला ॥। ७ ।।
सभुशुण्ड्यश्मगुडका सायुधा सपरश्वधा ।
लोहचर्मवती चापि साग्नि: सगुडशुज्धिका ।। ८ ।।
अस्त्रोंसे भरे हुए मिट्टी और चमड़ेके असंख्य पात्र रखे गये थे। भरतश्रेष्ठ! ढोल, नगारे और मृदंग आदि जुझाऊ बाजे भी बज रहे थे। राजन्! तोमर, अंकुश, शतघ्नी, लांगल, भुशुण्डी, पत्थरके गोले, अन्यान्य अस्त्र-शस्त्र, फरसे, बहुत-सी सुदृढ़ ढालें और गोला- बारूदसे भरी हुई तोपें यथास्थान तैयार रखी गयी थीं || ७-८ ।।
शास्त्रदृष्टेन विधिना सुयुक्ता भरतर्षभ ।
रथैरनेकैर्विविधैर्गदसाम्बोद्धवादिभि: ।। ९ |।
पुरुषै: कुरुशार्टूल समर्थ: प्रतिवारणे ।
अतिख्यातकुलै वीरिवदृष्टवीर्यश्व संयुगे ।। १० ।।
मध्यमेन च गुल्मेन रक्षिभि: सा सुरक्षिता ।
उत्क्षिप्तगुल्मैश्न तथा हयैश्न सपताकिभि: ।। ११ ।।
आधघोषितं च नगरे न पातव्या सुरेति वै ।
प्रमादं परिरक्षद्धिरुग्रसेनोद्धवादिभि: ।। १२ ।।
भरतकुलभूषण! शास्त्रोक्त विधिसे द्वारकापुरीको रक्षाके सभी उत्तम उपायोंसे सम्पन्न किया गया था। कुरुश्रेष्ठ! शत्रुओंका सामना करनेमें समर्थ गद, साम्ब और उद्धव आदि अनेक वीर पुरुष नाना प्रकारके बहुसंख्यक रथोंद्वारा पुरीकी रक्षामें दत्तचित थे। जो अत्यन्त विख्यात कुलोंमें उत्पन्न थे तथा युद्धके अवसरोंपर जिनके बल-वीर्यका परिचय मिल चुका था, ऐसे वीर रक्षक मध्यम गुल्म (नगरके मध्यवर्ती दुर्ग)-में स्थित हो पुरीकी पूर्णतः रक्षा कर रहे थे। सबको प्रमादसे बचानेवाले उग्रसेन और उद्धव आदिने शत्रुओंके गुल्मोंको नष्ट करनेकी शक्ति रखनेवाले घुड़सवारोंके हाथमें झंडे देकर समूचे नगरमें यह घोषणा करा दी थी कि किसीको भी मद्यपान नहीं करना चाहिये || ९--१२ ।।
प्रमत्तेष्वभिघातं हि कुर्याच्छाल्वो नराधिप: ।
इति कृत्वाप्रमत्तास्ते सर्वे वृष्ण्यन्धका: स्थिता: ।। १३ ।।
क्योंकि मदिरासे उन्मत्त हुए लोगोंपर राजा शाल्व घातक प्रहार कर सकता है। यह सोचकर वृष्णि और अन्धकवंशके सभी योद्धा पूरी सावधानीके साथ युद्धमें डटे हुए थे ।। १३ ।।
आनर्ताक्ष तथा सर्वे नटा नर्तकगायना: ।
बहिनिर्वासिता: क्षिप्रं रक्षद्धिर्वित्तमंचयम् ।। १४ ।।
धनसंग्रहकी रक्षा करनेवाले यादवोंने आनर्तदेशीय नटों, नर्तकों तथा गायकोंको शीघ्र ही नगरसे बाहर कर दिया था ।। १४ ।।
संक्रमा भेदिता: सर्वे नावश्व प्रतिषेधिता: ।
परिखाश्नलापि कौरव्य कालै: सुनिचिता: कृता: ।। १५ ।।
कुरुनन्दन! द्वारकापुरीमें आनेके लिये जो पुल मार्ममें पड़ते थे वे सब तोड़ दिये गये। नौकाएँ रोक दी गयी थीं और खाइयोंमें काँटे बिछा दिये गये थे || १५ ।।
उदपाना: कुरुश्रेष्ठ तथैवाप्यम्बरीषका: ।
समन्तात् क्रोशमात्रं च कारिता विषमा च भू: ।। १६ ।।
कुरुश्रेष्ठ! द्वारकापुरीके चारों ओर एक कोसतकके चारों ओरके कुएँ इस प्रकार जलशून्य कर दिये गये थे मानो भाड़ हों और उतनी दूरकी भूमि भी लौहकण्टक आदिसे व्याप्त कर दी गयी थी || १६ ।।
प्रकृत्या विषम दुर्ग प्रकृत्या च सुरक्षितम् ।
प्रकृत्या चायुधोपेतं विशेषेण तदानघ ।। १७ ।।
निष्पाप नरेश! द्वारका एक तो स्वभावसे ही दुर्गम्य, सुरक्षित और अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न है, तथापि उस समय इसकी विशेष व्यवस्था कर दी गयी थी ।। १७ ।।
सुरक्षितं सुगुप्तं च सर्वायुधसमन्वितम् ।
तत् पुरं भरतश्रेष्ठ यथेन्द्रभवनं तथा ।। १८ ।।
भरतश्रेष्ठ! द्वारकानगर इन्द्रभवनकी भाँति ही सुरक्षित, सुगुप्त और सम्पूर्ण आयुधोंसे भरा-पूरा है ।। १८ ।।
नचामुद्रोडभिनिर्याति न चामुद्र: प्रवेश्यते ।
वृष्ण्यन्धक पुरे राजंस्तदा सौभसमागमे ।। १९ ।।
राजन! सौभनिवासियोंके साथ युद्ध होते समय वृष्णि और अन्धकवंशी वीरोंके उस नगरमें कोई भी राजमुद्रा (पास)-के बिना न तो बाहर निकल सकता था और न बाहरसे नगरके भीतर ही आ सकता था ।। १९ ||
अनुरथ्यासु सर्वासु चत्वरेषु च कौरव ।
बल॑ बभूव राजेन्द्र प्रभूतगजवाजिमत् ।। २० ।।
कुरुनन्दन राजेन्द्र! वहाँ प्रत्येक सड़क और चौराहेपर बहुत-से हाथीसवार और घुड़सवारोंसे युक्त विशाल सेना उपस्थित रहती थी ।। २० ।।
दत्तवेतनभक्तं च दत्तायुधपरिच्छदम् |
कृतोपधानं च तदा बलमासीन्महाभुज ।। २१ ।।
महाबाहो! उस समय सेनाके प्रत्येक सैनिकको पूरा-पूरा वेतन और भत्ता चुका दिया गया था। सबको नये-नये हथियार और पोशाकें दी गयी थीं और उन्हें विशेष पुरस्कार आदि देकर उनका प्रेम और विश्वास प्राप्त कर लिया गया था ।। २१ ।।
न कुप्यवेतनी वक्रिन्न चातिक्रान्तवेतनी ।
नानुग्रहभृतः कश्रिन्न चादृष्टपराक्रम: ।। २२ ।।
कोई भी सैनिक ऐसा नहीं था जिसे सोने-चाँदीके सिवा ताँबा आदि वेतनके रूपमें दिया जाता हो अथवा जिसे समयपर वेतन न प्राप्त हुआ हो। किसी भी सैनिकको दयावश सेनामें भर्ती नहीं किया गया था तथा कोई भी ऐसा न था जिसका पराक्रम बहुत दिनोंसे देखा न गया हो ।। २२ ।।
एवं सुविहिता राजन् द्वारका भूरिदक्षिणा ।
आहुकेन सुगुप्ता च राज्ञा राजीवलोचन ।। २३ ।।
कमलनयन राजन! जिसमें बहुत-से दक्ष मनुष्य निवास करते थे उस द्वारकानगरीकी रक्षाके लिये इस प्रकारकी व्यवस्था की गयी थी। वह राजा उग्रसेनके द्वारा भलीभाँति सुरक्षित थी || २३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने पजठ्चदशो< ध्याय: ।। १५ ।। इस प्रकार श्रीमह्माभारत वनपवके अन्तर्गत अजुनाभिगमनपर्वमें सौभवधविषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५ ॥
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- श्रुतश्रवा शिशुपालकी माताका नाम है। यह वसुदेवजीकी बहिन थी।
घोडशो< ध्याय:
शाल्वकी विशाल सेनाके आक्रमणका यादवसेनाद्वारा प्रतिरोध, साम्बद्धारा क्षेमवृद्धिकी पराजय, वेगवान्का वध तथा चारुदेष्णद्वारा विविन्ध्य दैत्यका वध एवं प्रद्युम्नद्वारा सेनाको आश्वासन
वायुदेव उवाच
तां तूपयातो राजेन्द्र शाल्व: सौभपतिस्तदा ।
प्रभूतनरनागेन बलेनोपविवेश ह ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--राजेन्द्र! सौभ विमानका स्वामी राजा शाल्व अपनी बहुत बड़ी सेनाके साथ, जिसमें हाथीसवारों तथा पैदलोंकी संख्या अधिक थी, द्वारकापुरीपर चढ़ आया और उसके निकट आकर ठहरा ।। १ |।
समे निविष्टा सा सेना प्रभूतसलिलाशये ।
चतुरड्रबलोपेता शाल्वराजाभिपालिता ।। २ ।।
जहाँ अधिक जलसे भरा हुआ जलाशय था, वहीं समतल भूमिमें उसकी सेनाने पड़ाव डाला। उसमें हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल चारों प्रकारके सैनिक थे। स्वयं राजा शाल्व उसका संरक्षक था || २ ।।
वर्जयित्वा श्मशानानि देवता55यतनानि च ।
वल्मीकांश्रैत्यवक्षांश्व तन्निविष्टमभूदू बलम् ।। ३ ।।
श्मशानभूमि, देवमन्दिर, बाँबी और चैत्यवृक्षको छोड़कर सभी स्थानोंमें उसकी सेना फैलकर ठहरी हुई थी ।। ३ ।।
अनीकानां विभागेन पन्थान: संवृता5भवन् |
प्रवणाय च नैवासञ्छाल्वस्य शिविरे नूप ॥। ४ ।।
सेनाओंके विभागपूर्वक पड़ाव डालनेसे सारे रास्ते घिर गये थे। राजन! शाल्वके शिविरमें प्रवेश करनेका कोई मार्ग नहीं रह गया था ।। ४ ।।
सर्वायुधसमोपेतं सर्वशस्त्रविशारदम् |
रथनागाश्वकलिलं पदातिध्वजसंकुलम् ।। ५ ।।
तुष्टपुष्टबलोपेतं वीरलक्षणलक्षितम् |
विचित्रध्वजसन्नाहं विचित्ररथकार्मुकम् ।। ६ ।।
संनिवेश्य च कौरव्य द्वारकायां नरर्षभ ।
अभिसारयामास तदा वेगेन पतगेन्द्रवत् । ७ ।।
नरश्रेष्ठ राजा शाल्वकी वह सेना सब प्रकारके आयुधोंसे सम्पन्न, सम्पूर्ण अस्त्र- शस्त्रोंके संचालनमें निपुण, रथ, हाथी और घोड़ोंसे भरी हुई तथा पैदल सिपाहियों और ध्वजा-पताकाओंसे व्याप्त थी। उसका प्रत्येक सैनिक हृष्ट-पुष्ट एवं बलवान् था। सबमें वीरोचित लक्षण दिखायी देते थे। उस सेनाके सिपाही विचित्र ध्वजा तथा कवच धारण करते थे। उनके रथ और धनुष भी विचित्र थे। कुरुनन्दन! द्वारकाके समीप उस सेनाको ठहराकर राजा शाल्वने उसे वेगपूर्वक द्वारकाकी ओर बढ़ाया; मानो पक्षिराज गरुड़ अपने लक्ष्यकी ओर उड़े जा रहे हों || ५--७ ।।
तदापतन्तं संदृश्य बलं शाल्वपतेस्तदा ।
निर्याय योधयामासु: कुमारा वृष्णिनन्दना: ।। ८ ।।
शाल्वराजकी उस सेनाको आती देख उस समय वृष्णिकुलको आनन्दित करनेवाले कुमार नगरसे बाहर निकलकर युद्ध करने लगे ।। ८ ।।
असहन्तो5भियानं तच्छाल्वराजस्य कौरव ।
चारुदेष्णश्न साम्बश्न प्रद्युम्नश्न महारथ: ।। ९ ।।
ते रथैर्दशिता: सर्वे विचित्राभरणध्वजा: ।
संसक्ता: शाल्वराजस्य बहुभियोंधपुड्भवै: ।। १० ।।
कुरुनन्दन! शाल्वराजके उस आक्रमणको वे सहन न कर सके। चारुदेष्ण, साम्ब और महारथी प्रद्युम्न--ये सब कवच, विचित्र आभूषण तथा ध्वजा धारण करके रथोंपर बैठकर शाल्वराजके अनेक श्रेष्ठ योद्धाओंके साथ भिड़ गये ।। ९-१० ।।
गृहीत्वा कार्मुकं साम्ब: शाल्वस्य सचिवं रणे |
योधयामास संद्ृष्ट: क्षेमवृद्धि चमूपतिम् ।। ११ ।।
हर्षमें भरे हुए साम्बने धनुष धारण करके शाल्वके मन्त्री तथा सेनापति क्षेमवृद्धिके साथ युद्ध किया ।। ११ ।।
तस्य बाणमयं वर्ष जाम्बवत्या: सुतो महत् ।
मुमोच भरतश्रेष्ठ यथा वर्ष सहस्रदूक्ू । १२ ।।
तद् बाणवर्ष तुमुलं विषेहे स चमूपति: ।
क्षेमवृद्धिर्महाराज हिमवानिव निश्चल: ।। १३ ।।
भरतश्रेष्ठ! जाम्बवतीकुमारने उसके ऊपर भारी बाणवर्षा की, मानो इन्द्र जलकी वर्षा कर रहे हों। महाराज! सेनापति क्षेमवृद्धिने साम्बकी उस भयंकर बाणवर्षाको हिमालयकी भाँति अविचल रहकर सहन किया ।। १२-१३ ।।
ततः साम्बाय राजेन्द्र क्षेमवृद्धिरपि स्वयम् ।
मुमोच मायाविहितं शरजालं महत्तरम् ।। १४ ।।
राजेन्द्र! तदनन्तर क्षेमवृद्धिने स्वयं भी साम्बके ऊपर मायानिर्मित बाणोंकी भारी वर्षा प्रारम्भ की ।। १४ ।।
ततो मायामयं जाल॑ माययैव विदीर्य सः ।
साम्ब: शरसहस्रेण रथमस्याभ्यवर्षत ।। १५ ||
साम्बने उस मायामय बाणजालको मायासे ही छिजन्न-भिन्न करके क्षेमवृद्धिके रथपर सहस्रों बाणोंकी झड़ी लगा दी ।। १५ ।।
ततः स विद्धः साम्बेन क्षेमवृद्धिश्चमूपति: ।
अपायाज्जवनैरश्रै: साम्बबाणप्रपीडित: ।। १६ ।।
साम्बने सेनापति क्षेमवृद्धिको अपने बाणोंसे घायल कर दिया। वह साम्बकी बाणवर्षासे पीड़ित हो शीघ्रगामी अश्वोंकी सहायतासे (लड़ाईका मैदान छोड़कर) भाग गया ।। १६ ||
तस्मिन् विप्रद्रुते क्ूरे शाल्वस्याथ चमूपतौ ।
वेगवान् नाम दैतेय: सुतं मे5भ्यद्रवद् बली ।। १७ ।।
शाल्वके क्रूर सेनापति क्षेमवृद्धिके भाग जाने-पर वेगवान् नामक बलवान दैत्यने मेरे पुत्रपर आक्रमण किया ।। १७ |।
अभिफपन्नस्तु राजेन्द्र साम्बो वृष्णिकुलोद्वह: ।
वेगं वेगवतो राजं॑स्तस्थौ वीरो विधारयन् ।। १८ ।।
राजेन्द्र! वृष्णिवेंशका भार वहन करनेवाला वीर साम्ब वेगवान्के वेगको सहन करते हुए धैर्यपूर्वक उसका सामना करने लगा ।। १८ ।।
स वेगवति कौन्तेय साम्बो वेगवत्तीं गदाम् ।
चिक्षेप तरसा वीरो व्याविद्धय सत्यविक्रम: ।। १९ ।।
कुन्तीनन्दन! सत्यपराक्रमी वीर साम्बने अपनी वेगशालिनी गदाको बड़े वेगसे घुमाकर वेगवान् दैत्यके सिरपर दे मारा || १९ |।
तया त्वभिहतो राजन् वेगवान् न््यपतद् भुवि ।
वातरुग्ण इव क्षुण्णो जीर्णमूलो वनस्पति: ।॥ २० ।।
राजन्! उस गदासे आहत होकर वेगवान् इस प्रकार पृथ्वीपर गिर पड़ा, मानो जीर्ण हुई जड़वाला पुराना वृक्ष हवाके वेगसे टूटकर धराशायी हो गया हो ।। २० ।।
तस्मिन् विनिहते वीरे गदानुन्ने महासुरे ।
प्रविश्य महतीं सेनां योधयामास मे सुत: ।॥ २१ ।।
गदासे घायल हुए उस वीर महादैत्यके मारे जानेपर मेरा पुत्र साम्ब शाल्वकी विशाल सेनामें घुसकर युद्ध करने लगा ।। २१ ।।
चारुदेष्णेन संसक्तो विविन्ध्यो नाम दानव: ।
महारथ: समाज्ञातो महाराज महाधनु: ।। २२ ।।
महाराज! चारुदेष्णके साथ महारथी एवं महान् धनुर्धर विविन्ध्य नामक दानव शाल्वकी आज्ञासे युद्ध कर रहा था || २२ ।।
ततः सुतुमुलं युद्ध चारुदेष्णविविन्ध्ययो: ।
वृत्रवासवयो राजन् यथा पूर्व तथाभवत् ॥। २३ ।।
राजन्! तदनन्तर चारुदेष्ण और विविन्ध्यमें वैसा ही भयंकर युद्ध होने लगा, जैसा पहले इन्द्र और वृत्रासुरमें हुआ था || २३ ।।
अन्योन्यस्याभिसंक्रुद्धावन्योन्यं जघ्नतुः शरै: ।
विनदन्तौ महारावान् सिंहाविव महाबलौ ।। २४ ।।
वे दोनों एक-दूसरेपर कुपित हो बाणोंसे परस्पर आघात कर रहे थे और महाबली सिंहोंकी भाँति जोर-जोरसे गर्जना करते थे || २४ ।।
रौक्मिणेयस्ततो बाणमग्न्यकॉपमवर्चसम् |
अभिमन्त्र्य महास्त्रेण संदधे शत्रुनाशनम् ।। २५ ।।
तदनन्तर रुक्मिणीनन्दन चारुदेष्णने अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी शत्रुनाशक बाणको महान् (दिव्य) अस्त्रसे अभिमन्त्रित करके अपने धनुषपर संधान किया ।। २५ |।
स विविन्ध्याय सक्रोध: समाहूय महारथ: ।
चिक्षेप मे सुतो राजन् स गतासुरथापतत् ।। २६ ।।
राजन! तत्पश्चात् मेरे उस महारथी पुत्रने क्रोधमें भरकर विविन्ध्यपर वह बाण चलाया। उसके लगते ही विविन्ध्य प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा || २६ ।।
विविन्ध्यं निहतं दृष्टवा तां च विक्षोभितां चमूम् |
कामगेन स सौभेन शाल्व: पुनरुपागमत् ।। २७ ।।
विविन्ध्यको मारा गया और सेनाको तहस-नहस हुई देख शाल्व इच्छानुसार चलनेवाले सौभ विमानद्वारा फिर वहाँ आया || २७ ।।
ततो व्याकुलितं सर्व द्वारकावासि तद् बलम् |
दृष्टवा शाल्वं महाबाहो सौभस्थं नृपते तदा ।। २८ ।।
महाबाहु नरेश्वर! उस समय सौभ विमानपर बैठे हुए शाल्वको देखकर द्वारकाकी सारी सेना भयसे व्याकुल हो उठी ।। २८ ।।
ततो निर्याय कौरव्य अवस्थाप्य च तद् बलम् |
आनर्तानां महाराज प्रद्युम्नो वाक्यमब्रवीत् ।। २९ ।।
महाराज कुरुनन्दन! तब प्रद्युम्नने निकलकर आनर्तवासियोंकी उस सेनाको धीरज बँधाया और इस प्रकार कहा-- || २९ ।।
सर्वे भवन्तस्तिष्ठ न्तु सर्वे पश्यन्तु मां युधि ।
निवारयन्तं संग्रामे बलात् सौभं॑ सराजकम् ।। ३० ।।
“यादवो! आप सब लोग (चुपचाप) खड़े रहें और मेरे पराक्रमको देखें; मैं किस प्रकार युद्धमें राजा शाल्वके सहित सौभ विमानकी गतिको रोक देता हूँ || ३० ।।
अहं सौभपते: सेनामायसैर्भुजगैरिव ।
धनुर्भुजविनिर्मुक्तिर्नाशयाम्यद्य यादवा: ।। ३१ ।।
“यदुवंशियो! मैं अपने धरनुर्दण्डसे छूटे हुए लोहेके सर्पतुल्य बाणोंद्वारा सौभपति शाल्वकी सेनाको अभी नष्ट किये देता हूँ ।। ३१ ।।
आश्वसथध्व॑ न भी: कार्या सौभराडटद्य नश्यति ।
मयाभिपन्नो दुष्टात्मा ससौभो विनशिष्यति ।। ३२ ।।
“आप धैर्य धारण करें, भयभीत न हों, सौभराज अभी नष्ट हो रहा है। दुष्टात्मा शाल्व मेरा सामना होते ही सौभ विमानसहित नष्ट हो जायगा” ।। ३२ ।।
एवं ब्रुवति संहृष्टे प्रद्युम्ने पाण्डुनन्दन ।
विछितं तद् बल॑ वीर युयुधे च यथासुखम् ।। ३३ ।।
वीर पाण्डुनन्दन! हर्षमें भरे हुए प्रद्युम्मनके ऐसा कहने पर वह सारी सेना स्थिर हो पूर्ववत् प्रसन्नता और उत्साहके साथ युद्ध करने लगी ।। ३३ ।। इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने षोडशो<ध्याय: ।। १६ ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाथिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६ ॥/
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सप्तदशो< ध्याय: प्रद्युम्म और शाल्वका घोर युद्ध
वायुदेव उवाच
एवमुक्त्वा रौक्मिणेयो यादवान् भरतर्षभ ।
दंशितै्हरिभियुक्ते रथमास्थाय काज्चनम् ।। १ ।।
उच्छ़ित्य मकर केतु व्यात्ताननमिवान्तकम् ।
उत्पतद्धिरिवाकाशं तैहयैरन्वयात् परान् ।। २ ।।
विक्षिपन् नादयंश्वापि धनु: श्रेष्ठ महाबल: ।
तूणखड्गधर: शूरो बद्धगोधाड्गुलित्रवान् ।। ३ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--भरतश्रेष्ठ! यादवोंसे ऐसा कहकर रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न एक सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हुए, जिसमें बख्तर पहनाये हुए घोड़े जुते थे। उन्होंने अपनी मकरचिह्लित ध्वजाको ऊँचा किया, जो मुह बाये हुए कालके समान प्रतीत होती थी। उनके रथके घोड़े ऐसे चलते थे, मानो आकाशमें उड़े जा रहे हों। ऐसे अश्वोंसे जुते हुए रथके द्वारा महाबली प्रद्युम्नने शत्रुओंपर आक्रमण किया। वे अपने श्रेष्ठ धनुषको बारंबार खींचकर उसकी टंकार फैलाते हुए आगे बढ़े। उन्होंने पीझठपर तरकस और कमरमें तलवार बाँध ली थी। उनमें शौर्य भरा था और उन्होंने गोहके चमड़ेके बने हुए दस्ताने पहन रखे थे || १-- ३।।
स विद्युच्छुरितं चापं विहरन् वै तलातू तलम् ।
मोहयामास दैतेयान् सर्वान् सौभनिवासिन: ।। ४ ।।
वे अपने धनुषको एक हाथसे दूसरे हाथमें ले लिया करते थे। उस समय वह धनुष बिजलीके समान चमक रहा था। उन्होंने उस धनुषके द्वारा सौभ विमानमें रहनेवाले समस्त दैत्योंको मूर्च्छिंत कर दिया ।। ४ ।।
तस्य विक्षिपतश्चापं संदधानस्य चासकृत् ।
नानन््तरं ददृशे कश्रिन्निघ्नतः शात्रवान् रणे ।। ५ ।।
वे बारंबार धनुषको खींचते, उसपर बाण रखते और उसके द्वारा शत्रुसैनिकोंको युद्धमें मार डालते थे। उनकी उक्त क्रियाओंमें किसीको थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखायी देता था।। ५।।
मुखस्य वर्णो न विकल्पते5स्य
चेलुश्व गात्राणि न चापि तस्य । सिंहोन्नतं चाप्यभिगर्जतो<5स्य शुश्राव लोको<द्धुतवीर्यमग्रयम् ।। ६ ।।
उनके मुखका रंग तनिक भी नहीं बदलता था। उनके अंग भी विचलित नहीं होते थे। सब ओर गर्जना करते हुए प्रद्युम्नका उत्तम एवं अद्भुत बल-पराक्रमका सूचक सिंहनाद सब लोगोंको सुनायी देता था ।। ६ |।
जलेचर: काञ्चनयष्टिसंस्थो
व्यात्तानन: सर्वतिमिप्रमाथी । वित्रासयन् राजति वाहमुख्ये शाल्वस्य सेनाप्रमुखे ध्वजाग्रय: ।। ७ ।।
शाल्वकी सेनाके ठीक सामने प्रद्युम्नके श्रेष्ठ रथपर उनकी उत्तम ध्वजा फहराती हुई शोभा पा रही थी। उस ध्वजाके सुवर्णमय दण्डके ऊपर सब तिमि नामक जल-जन्तुओंका प्रमथन करनेवाले मुँह बाये एक मगरमच्छका चिह्न था। वह शशत्रुसैनिकोंको अत्यन्त भयभीत कर रहा था ।। ७ ।।
ततस्तूर्ण विनिष्पत्य प्रद्युम्न: शत्रुकर्षण: ।
शाल्वमेवाभिदुद्राव विधित्सु: कलहं नूप ।। ८ ।।
नरेश्वर! तदनन्तर शत्रुहन्ता प्रद्युम्न तुरंत आगे बढ़कर राजा शाल्वके साथ युद्ध करनेकी इच्छासे उसीकी ओर दौड़े ।। ८ ।।
अभियान तु वीरेण प्रद्युम्नेन महारणे ।
नामर्षयत संक्रुद्ध: शाल्व: कुरुकुलोद्ह ।। ९ ।।
कुरुकुलतिलक! उस महासंग्राममें वीर प्रद्युम्नके द्वारा किया हुआ वह आक्रमण क्रुद्ध हुआ राजा शाल्व न सह सका ।। ९ ||
स रोषमदमत्तो वै कामगादवरुह्मु च ।
प्रद्युम्नं योधयामास शाल्व: परपुरंजय: ।। १० ।।
शत्रुकी राजधानीपर विजय पानेवाले शाल्वने रोष एवं बलके मदसे उन्मत्त हो इच्छानुसार चलनेवाले विमानसे उतरकर प्रद्युम्नसे युद्ध आरम्भ किया ।। १० ।।
तयो: सुतुमुलं युद्ध शाल्ववृष्णिप्रवीरयो: ।
समेता ददृशुलोंका बलिवासवयोरिव ।। ११ ।।
शाल्व तथा वृष्णिवंशी वीर प्रद्युम्ममें बलि और इन्द्रके समान घोर युद्ध होने लगा। उस समय सब लोग एकत्र होकर उन दोनोंका युद्ध देखने लगे ।। ११ ।।
तस्य मायामयो वीर रथो हेमपरिष्कृत: ।
सपताक: सध्वजश्न सानुकर्ष: स तूणवान् ॥ १२ ।।
वीर! शाल्वके पास सुवर्णभूषित मायामय रथ था। वह रथ ध्वजा, पताका, अनुकर्ष (हरसा)- और तरकससे युक्त था ।। १२ ।।
सतं रथवरं श्रीमान् समारुह्मु किल प्रभो ।
मुमोच बाणान् कौरव्य प्रद्युम्नाय महाबल: ।। १३ ।।
प्रभो कुरुनन्दन! श्रीमान् महाबली शाल्वने उस श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो प्रद्युम्नपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ की ।। १३ ।।
ततो बाणमयं वर्ष व्यसृजत् तरसा रणे ।
प्रद्युम्नो भुजवेगेन शाल्वं सम्मोहयन्निव ।। १४ ।।
तब प्रद्युम्न भी युद्धभूमिमें अपनी भुजाओंके वेगसे शाल्वको मोहित करते हुए-से उसके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणोंकी बौछार करने लगे ।। १४ ।।
स तैरभिहत: संख्ये नामर्षयत सौभराट् ।
शरान् दीप्ताग्निसंकाशान् मुमोच तनये मम ।। १५ ।।
सौभ विमानका स्वामी राजा शाल्व युद्धमें प्रद्युममके बाणोंसे घायल होनेपर यह सहन नहीं कर सका--अमर्षमें भर गया और मेरे पुत्रपर प्रजवलित अग्निके समान तेजस्वी बाण छोड़ने लगा ।। १५ ।।
तमापतन्तं बाणौघं स चिच्छेद महाबल: ।
ततश्चान्याछ्छरान् दीप्तान् प्रचिक्षेप सुते मम ।। १६ ।।
महाबली प्रद्युम्नने उन बाणोंको आते ही काट गिराया। तत्पश्चात् शाल्वने मेरे पुत्रपर और भी बहुत-से प्रज्वलित बाण छोड़े ।। १६ ।।
स शाल्वबाणै राजेन्द्र विद्धो रुक्मिणिनन्दन: ।
मुमोच बाणं त्वरितो मर्मभेदिनमाहवे ।। १७ ।।
राजेन्द्र! शाल्वके बाणोंसे घायल होकर रुक्मिणी-नन्दन प्रद्युम्नने तुरंत ही उस युद्धभूमिमें शाल्वपर एक ऐसा बाण चलाया, जो मर्मस्थलको विदीर्ण कर देनेवाला था ।। १७ ||
तस्य वर्म विभिवद्याशु स बाणो मत्सुतेरित: ।
विव्याध हृदयं पत्री स मुमोह पपात च ।। १८ ।।
मेरे पुत्रके चलाये हुए उस बाणने शाल्वके कवचको छेदकर उसके हृदयको बींध डाला। इससे वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा ।। १८ ।।
तस्मिन् निपतिते वीरे शाल्वराजे विचेतसि ।
सम्प्राद्रवन् दानवेन्द्रा दारयन्तो वसुंधराम् ।। १९ ।।
वीर शाल्वराजके अचेत होकर गिर जानेपर उसकी सेनाके समस्त दानवराज पृथ्वीको विदीर्ण करके पातालमें पलायन कर गये ।। १९ ।।
हाहाकृतमभूत् सैन्यं शाल्वस्य पृथिवीपते ।
नष्टसंज्ञे निपतिते तदा सौभपतौ नृूपे ।। २० ।।
पृथ्वीपते! उस समय सौभ विमानका स्वामी राजा शाल्व जब संज्ञाशून्य होकर धराशायी हो गया, तब उसकी समस्त सेनामें हाहाकार मच गया ।। २० ।।
तत उत्थाय कौरव्य प्रतिलभ्य च चेतनाम् ।
मुमोच बाणान् सहसा प्रद्युम्नाय महाबल: ।। २१ ।।
कुरुश्रेष्ठ! तत्पश्चात् जब चेत हुआ, तब महाबली शाल्व सहसा उठकर प्रद्युम्नपर बाणोंकी वर्षा करने लगा || २१ ।।
तैः स विद्धों महाबाहु: प्रद्युम्न: समरे स्थित: ।
जन्रुदेशे भृशं वीरो व्यवासीदद् रथे तदा ।। २२ ।।
शाल्वके उन बाणोंद्वारा कण्ठके मूलभागमें गहरा आघात लगनेसे अत्यन्त घायल होकर समरमें स्थित महाबाहु वीर प्रद्युम्म उस समय रथपर मूर्च्छित हो गये || २२ ।।
तं स विद्धवा महाराज शाल्वो रुक्मिणिनन्दनम् |
ननाद सिंहनादं वै नादेनापूरयन् महीम् ।। २३ ।।
महाराज! रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्मको घायल करके शाल्व बड़े जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगा। उसकी आवाजसे वहाँकी सारी पृथ्वी गूँज उठी ।। २३ ।॥।
ततो मोहं समापन्ने तनये मम भारत ।
मुमोच बाणांस्त्वरित: पुनरन्यान् दुरासदान् ।। २४ ।।
भारत! मेरे पुत्रके मूर्च्छित हो जानेपर भी शाल्वने उनपर और भी बहुत-से दुर्धर्ष बाण शीघ्रतापूर्वक छोड़े || २४ ।।
स तैरभिहतो बाणैर्बहुभिस्तेन मोहित: ।
निश्चेष्ट: कौरवश्रेष्ठ प्रद्युम्नो5भूद् रणाजिरे ।। २५ ।।
कौरवश्रेष्ठ! इस प्रकार बहुत-से बाणोंसे आहत होनेके कारण प्रद्युम्न उस रणांगणमें मूर्च्छित एवं निश्चेष्ट हो गये || २५ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने सप्तदशो<ड्ध्याय: ।। १७ ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनाभियगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७ ॥।
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- रथके नीचे पहियेके ऊपर लगा रहनेवाला काष्ठ।
अष्टादशो< ध्याय:
मूर्च्ाावस्थामें सारथिके द्वारा रणभूमिसे बाहर लाये जानेपर प्रद्युम्नका अनुताप और इसके लिये सारथिको उपालम्भ देना
वायुदेव उवाच
शाल्वबाणार्दिते तस्मिन् प्रद्युम्ने बलिनां वरे ।
वृष्णयो भग्नसंकल्पा विव्यथु: पृतनागता: ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--बलवानोंमें श्रेष्ठ प्रद्यम्म जब शाल्वके बाणोंसे पीड़ित हो (मूर्च्छित हो) गये, तब सेनामें आये हुए वृष्णिवंशी वीरोंका उत्साह भंग हो गया। उन सबको बड़ा दुःख हुआ ।। १ |।
हाहाकृतमभूत् सर्व वृष्ण्यन्धकबलं तत: ।
प्रद्ुम्ने मोहिते राजन् परे च मुदिता भूशम् ।। २ ।।
राजन! प्रद्युम्मके मोहित होनेपर वृष्णि और अन्धकवंशकी सारी सेनामें हाहाकार मच गया और शत्रुलोग अत्यन्त प्रसन्नतासे खिल उठे ।। २ ।।
तं॑ तथा मोहितं दृष्टवा सारथिर्जवनै्यै: ।
रणादपाहरत् तूर्ण शिक्षितो दारुकिस्तदा ।। ३ ।।
दारुकका पुत्र प्रद्युम्नका सुशिक्षित सारथि था। वह प्रद्युम्नको इस प्रकार मूर्च्छित देख वेगशाली अअश्रोंद्वारा उन्हें तुरंत रणभूमिसे बाहर ले गया ।। ३ ।।
नातिदूरापयाते तु रथे रथवरप्रणुत् ।
धनुर्गृहीत्वा यन्तारं लब्धसंज्ञो5ब्रवीदिदम् ॥। ४ |
अभी वह रथ अधिक दूर नहीं जाने पाया था, तभी बड़े-बड़े रथियोंको परास्त करनेवाले प्रद्युम्म सचेत हो गये और हाथमें धनुष लेकर सारथिसे इस प्रकार बोले -- || ४ ||
सौते कि ते व्यवसितं कस्माद् यासि पराड्मुख: ।
नैष वृष्णिप्रवीराणामाहवे धर्म उच्यते ।। ५ ।।
'सूतपुत्र! आज तूने कया सोचा है? क्यों युद्धसे मुँह मोड़कर भागा जा रहा है? युद्धसे पलायन करना वृष्णिवंशी वीरोंका धर्म नहीं है ।। ५ ।।
कच्चित् सौते न ते मोह: शाल्वं दृष्टवा महाहवे ।
विषादो वा रण दृष्टवा ब्रूहि मे त्वं यथातथम् ।। ६ ।।
'सूतनन्दन! इस महासंग्राममें राजा शाल्वको देखकर तुझे मोह तो नहीं हो गया है? अथवा युद्ध देखकर तुझे विषाद तो नहीं होता है? मुझसे ठीक-ठीक बता (तेरे इस प्रकार भागनेका क्या कारण है?)' ॥। ६ ।।
सौतिर्वाच
जानार्दने न मे मोहो नापि मां भयमाविशत् |
अतिभारं तु ते मन्ये शाल्वं केशवनन्दन ।। ७ ।।
सूतपुत्रने कहा--जनार्दनकुमार! न मुझे मोह हुआ है और न मेरे मनमें भय ही समाया है। केशवनन्दन! मुझे ऐसा मालूम होता है कि यह राजा शाल्व आपके लिये अत्यन्त भार- सा हो रहा है || ७ ।।
सो<5पयामि शनैर्वीर बलवानेष पापकृत् ।
मोहितश्न रणे शूरो रक्ष्य: सारथिना रथी ।॥। ८ ।।
वीरवर! मैं धीरे-धीरे रणभूमिसे दूर इसलिये जा रहा हूँ कि यह पापी शाल्व बड़ा बलवान है। सारथिका यह धर्म है कि यदि शूरवीर रथी संग्राममें मूर्च्छिंत हो जाय तो वह किसी प्रकार उसके प्राणोंकी रक्षा करे ।। ८ ।।
आयुष्म॑स्त्वं मया नित्यं॑ रक्षितव्यस्त्वयाप्यहम् ।
रक्षितव्यो रथी नित्यमिति कृत्वापयाम्यहम् ।। ९ ।।
आयुष्मन्! मुझे आपकी और आपको मेरी सदा रक्षा करनी चाहिये। रथी सारथिके द्वारा सदा रक्षणीय है, इस कर्तव्यका विचार करके ही मैं रणभूमिसे लौट रहा हूँ ।। ९ ।।
एकश्नासि महाबाहो बहवश्चापि दानवा: ।
न सम॑ रौक्मिणेयाहं रणे मत्वापयामि वै ।। १० ।।
महाबाहो! आप अकेले हैं और इन दानवोंकी संख्या बहुत है। रुक्मिणीनन्दन! इस युद्धमें इतने विपक्षियोंका सामना करना अकेले आपके लिये कठिन है; यह सोचकर ही मैं युद्धसे हट रहा हूँ ।। १० ।।
एवं ब्रुवति सूते तु तदा मकरकेतुमान् ।
उवाच सूतं कौरव्य निवर्तय रथं पुन: ।। ११ ।।
दारुकात्मज मैवं त्वं पुनः कार्षी: कथंचन ।
व्यपयानं रणात् सौते जीवतो मम कहिचित् ।। १२ ।।
कुरुनन्दन! सूतके ऐसा कहनेपर मकरथ्वज प्रद्युम्नने उससे कहा--“दारुककुमार! तू रथको पुनः युद्धभूमिकी ओर लौटा ले चल। सूतपुत्र! आजसे फिर कभी किसी प्रकार भी मेरे जीते-जी रथको रणभूमिसे न लौटाना ।। ११-१२ ।।
न स वृष्णिकुले जातो यो वै त्यजति संगरम् |
यो वा निपतितं हन्ति तवास्मीति च वादिनम् ॥। १३ ||
वृष्णिवंशमें ऐसा कोई (वीर पुरुष) नहीं पैदा हुआ है, जो युद्ध छोड़कर भाग जाय अथवा गिरे हुएको तथा “मैं आपका हूँ यह कहनेवालेको मारे ।। १३ ।।
तथा स्त्रियं च यो हन्ति बाल॑ वृद्ध तथैव च ।
विरथं विप्रकीर्ण च भग्नशस्त्रायुधं तथा ।। १४ ।।
“इसी प्रकार स्त्री, बालक, वृद्ध, रथहीन, अपने पक्षसे बिछुड़े हुए तथा जिसके अस्त्र- शस्त्र नष्ट हो गये हों, ऐसे लोगोंपर जो हथियार उठाता हो, ऐसा मनुष्य भी वृष्णिकुलमें नहीं उत्पन्न हुआ है ।। १४ ।।
त्वं च सूतकुले जातो विनीत:ः सूतकर्मणि ।
धर्मज्ञश्षासि वृष्णीनामाहवेष्वपि दारुके || १५ ।।
“दारुककुमार! तू सूतकुलमें उत्पन्न होनेके साथ ही सूतकर्मकी अच्छी तरह शिक्षा पा चुका है। वृष्णिवंशी वीरोंका युद्धमें क्या धर्म है, यह भी भली-भाँति जानता है ।। १५ ।।
स जानंश्वरितं कृत्स्नं वृष्णीनां पृतनामुखे ।
अपयानं पुन: सौते मैवं कार्षी: कथंचन ।। १६ ।।
'सूतनन्दन! युद्धके मुहानेपर डटे हुए वृष्णिकुलके वीरोंका सम्पूर्ण चरित्र तुझसे अज्ञात नहीं है; अतः तू फिर कभी किसी तरह भी युद्धसे न लौटना ।। १६ ।।
अपयातं हत॑ पृषछ्े भ्रान्तं रणपलायितम् |
गदाग्रजो दुराधर्ष: कि मां वक्ष्यति माधव: ।। १७ ।।
'युद्धसे लौटने या भ्रान्तचित्त होकर भागनेपर जब मेरी पीठमें शत्रुके बाणोंका आघात लगा हो, उस समय किसीसे परास्त न होनेवाले मेरे पिता गदाग्रज भगवान् माधव मुझसे क्या कहेंगे? ।। १७ ।।
केशवस्याग्रजो वापि नीलवासा मदोत्कट: ।
किं वक्ष्यति महाबाहुर्बलदेव: समागत: ।। १८ ।।
“अथवा पिताजीके बड़े भाई नीलाम्बरधारी मदोत्कट महाबाहु बलरामजी जब यहाँ पधारेंगे, तब वे मुझसे क्या कहेंगे? ।। १८ ।।
कि वक्ष्यति शिनेर्नप्ता नरसिंहो महाधनु: ।
अपयातं रणात् सूत साम्बश्न समितिंजय: ।। १९ ।।
'सूत! युद्धसे भागनेपर मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी महाधनुर्धर सात्यकि तथा समरविजयी साम्ब मुझसे क्या कहेंगे? ।। १९ ।।
चारुदेष्ण श्व दुर्धर्षस्तथैव गदसारणौ ।
अक्रूरश्व महाबाहु: किं मां वक्ष्यति सारथे ॥। २० ।।
'सारथे! दुर्धर्ष वीर चारुदेष्ण, गद, सारण और महाबाहु अक्रूर मुझसे क्या कहेंगे? || २० ।।
शूरं सम्भावितं शान्तं नित्यं पुरुषमानिनम् |
स्त्रियश्न वृष्णिवीराणां कि मां वक्ष्यन्ति संहता: ।। २१ ।।
“मैं शूरवीर, सम्भावित (सम्मानित), शान्तस्वभाव तथा सदा अपनेको वीर पुरुष माननेवाला समझा जाता हूँ। (युद्धसे भागनेपर) मुझे देखकर झुंड-की-झुंड एकत्र हुई वृष्णिवीरोंकी स्त्रियाँ मुझे क्या कहेंगी? || २१ ।।
प्रद्युम्नोडयमुपायाति भीतस्त्यक्त्वा महाहवम् ।
धिगेनमिति वक्ष्यन्ति न तु वक्ष्यन्ति साथ्विति ।। २२ ।।
“सब लोग यही कहेंगे--“यह प्रद्युम्म भयभीत हो महान् संग्राम छोड़कर भागा आ रहा है; इसे धिक््कार है।” उस अवस्थामें किसीके मुखसे मेरे लिये अच्छे शब्द नहीं निकलेंगे || २२ ।।
धिग्वाचा परिहासो5पि मम वा मद्विधस्य वा ।
मृत्युनाभ्यधिक: सौते स त्वं मा व्यपया: पुनः: ।। २३ ।।
'सूतकुमार! मेरे अथवा मेरे-जैसे किसी भी पुरुषके लिये धिक्कारयुक्त वाणीद्वारा कोई परिहास भी कर दे तो वह मृत्युसे भी अधिक कष्ट देनेवाला है; अतः तू फिर कभी युद्ध छोड़कर न भागना ॥। २३ |।
भारं हि मयि संन्यस्य यातो मधुनिहा हरि: ।
यज्ञ भारतसिंहस्य न हि शक्योउ्द्य मर्षितुम् ।। २४ ।।
“मेरे पिता मधुसूदन भगवान् श्रीहरि यहाँकी रक्षाका सारा भार मुझपर रखकर भरतवंशशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिरके यज्ञमें गये हैं। (आज मुझसे जो अपराध हो गया है,) इसे वे कभी क्षमा नहीं कर सकेंगे ।। २४ ।।
कृतवर्मा मया वीरो निर्यास्यन्नेव वारित: ।
शाल्व॑ निवारयिष्ये5हं तिष्ठ त्वमिति सूतज || २५ ।।
'सूतपुत्र! वीर कृतवर्मा शाल्वका सामना करनेके लिये पुरीसे बाहर आ रहे थे; किंतु मैंने उन्हें रोक दिया और कहा--“आप यहीं रहिये। मैं शाल्वको परास्त करूँगा” ।। २५ ।।
सच सम्भावयन् मां वै निवृत्तो हृदिकात्मज: ।
त॑ समेत्य रणं त्यक्त्वा कि वक्ष्यामि महारथम् ।। २६ ।।
“कृतवर्मा मुझे इस कार्यके लिये समर्थ जानकर युद्धसे निवृत्त हो गये। आज युद्ध छोड़कर जब मैं उन महारथी वीरसे मिलूँगा, तब उन्हें क्या जवाब दूँगा? ।। २६ ।।
उपयान्तं दुराधर्ष शडुखचक्रगदाधरम् ।
पुरुष पुण्डरीकाक्ष॑ कि वक्ष्यामि महाभुजम् ।। २७ ।।
“शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले कमलनयन महाबाहु एवं अजेय वीर भगवान् पुरुषोत्तम जब यहाँ मेरे निकट पदार्पण करेंगे, उस समय मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा? ।। २७ ।।
सात्यकिं बलदेवं च ये चान्येडन्धकवृष्णय: ।
मया स्पर्थन्ति सततं कि नु वक्ष्यामि तानहम् ।। २८ ।।
'सात्यकिसे, बलरामजीसे तथा अन्धक और वृष्णिवंशके अन्य वीरोंसे, जो सदा मुझसे स्पर्धा रखते हैं, मैं क्या कहूँगा? ।। २८ ।।
त्यक्त्वा रणमिमं सौते पृष्ठतो5भ्याहतः शरै: ।
त्वयापनीतो विवशो न जीवेयं कथंचन ।। २९ ।।
“'सूतपुत्र! तेरे द्वारा रणसे दूर लाया हुआ मैं इस युद्धको छोड़कर और पीठपर बाणोंकी चोट खाकर विवशतापूर्ण जीवन किसी प्रकार भी नहीं धारण करूँगा ।। २९ ।।
स निवर्त रथेनाशु पुनर्दारुकनन्दन ।
न चैतदेवं कर्तव्यमथापत्सु कथंचन ।। ३० ।।
“दारुकनन्दन! अतः तू शीघ्र ही रथके द्वारा पुनः संग्रामभूमिकी ओर लौट। आजसे मुझपर आपत्ति आनेपर भी तू किसी तरह ऐसा बर्ताव न करना ।। ३० ||
न जीवितमहं सौते बहु मनन््ये कथंचन ।
अपयातो रणाद् भीत: पृष्ठतो5भ्याहत: शरै: ॥। ३१ ।।
'सूतपुत्र! पीठपर बाणोंकी चोट खाकर भयभीत हो युद्धसे भागनेवालेके जीवनको मैं किसी प्रकार भी अधिक आदर नहीं देता ।। ३१ ।।
कदापि सूतपुत्र त्वं जानीषे मां भयार्दितम् ।
अपयातं रणं हित्वा यथा कापुरुषं तथा ।। ३२ ।।
'सूतपुत्र! क्या तू मुझे कायरोंकी तरह भयसे पीड़ित और युद्ध छोड़कर भागा हुआ समझता है? ।। ३२ ।।
न युक्त भवता त्यक्तुं संग्रामं दारुकात्मज ।
मयि युद्धार्थिनि भूशं स त्वं याहि यतो रणम् ॥। ३३ ।।
“दारुककुमार! तुझे संग्रामभूमिका परित्याग करना कदापि उचित नहीं था। विशेषत: उस अवस्थामें, जब कि मैं युद्धकी अभिलाषा रखता था। अतः जहाँ युद्ध हो रहा है, वहाँ चल” ।। ३३ ।।
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अर्जुनाभिगमनपर्वणि सौभवधोपाख्याने अष्टादशो< ध्याय: ।। १८ ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत वनपर्वके अन्तर्गत अजुनाथिगमनपर्वमें सौभवधोपाख्यानविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८ ॥।
#:73:.8 #:23:.7 (0) हि २ 7
एकोनविशो< ध्याय:
प्रद्युम्नके द्वारा शाल्वकी पराजय
वायुदेव उवाच
एवमुक्तस्तु कौन्तेय सूतपुत्रस्ततो<ब्रवीत् ।
प्रद्युम्नं बलिनां श्रेष्ठ मधुरं श्लक्ष्णमज्जसा ।। १ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--कुन्तीनन्दन! प्रद्युम्मके ऐसा कहनेपर सूतपुत्रने शीघ्र ही बलवानोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्नसे थोड़े शब्दोंमें मधुरतापूर्वक कहा-- ।। १ ॥।
न मे भयं रौक्मिणेय संग्रामे यच्छतो हयान् ।
युद्धज्ञो5स्मि च वृष्णीनां नात्र किंचिदतोडन्यथा ।। २ ।।
'रुक्मिणीनन्दन! संग्रामभूमिमें घोड़ोंकी बागडोर सँभालते हुए मुझे तनिक भी भय नहीं होता। मैं वृष्णिवंशियोंके युद्धधर्मको भी जानता हूँ। आपने जो कुछ कहा है, उसमें कुछ भी अन्यथा नहीं है ।। २ ।।
आमुष्मन्नुपदेशस्तु सारथ्ये वर्ततां स्मृत: ।
सर्वार्थेषु रथी रक्ष्यस्त्वं चापि भूशपीडित: ।। ३ ।।
“आयुष्मन्! मैंने तो सारथ्यमें तत्पर रहनेवाले लोगोंके इस उपदेशका स्मरण किया था कि सभी दशाओंमें रथीकी रक्षा करनी चाहिये। उस समय आप भी अधिक पीड़ित थे।।३।।
त्वं हि शाल्वप्रयुक्तेन शरेणाभिहतो भृशम् |
कश्मलाभिहतो वीर ततो5हमपयातवान् ।। ४ ।।
“वीर! शाल्वके चलाये हुए बाणोंसे अधिक घायल होनेके कारण आपको मूर्च्छा आ गयी थी, इसीलिये मैं आपको लेकर रणभूमिसे हटा था ।। ४ ।।
स त्वं सात्वतमुख्याद्य लब्धसंज्ञो यदृच्छया ।
पश्य मे हयसंयाने शिक्षां केशवनन्दन ।। ५ ।।
'सात्वतवीरोंमें प्रधान केशवनन्दन! अब दैवेच्छासे आप सचेत हो गये हैं, अतः घोड़े हॉकनेकी कलामें मुझे कैसी उत्तम शिक्षा मिली है, उसे देखिये || ५ ।।
दारुकेणाहमुत्पन्नो यथावच्चैव शिक्षित: ।
वीतभी: प्रविशाम्येतां शाल्वस्य प्रथितां चमूम् ।। ६ ।।
“मैं दारुकका पुत्र हूँ और उन्होंने ही मुझे सारथ्यकर्मकी यथावत् शिक्षा दी है। देखिये! अब मैं निर्भय होकर राजा शाल्वकी इस विख्यात सेनामें प्रवेश करता हूँ” || ६ ।।
वायुदेव