श्रीहरि: 37 श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत

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( षष्ठू खण्ड ) अनुशासन, आश्वमेधिक, आश्रमवासिक, मौसल, महाप्रस्थानिक और स्वर्गारोहणपर्व [ सचित्र, सरल हिन्दी-अनुवादसहित ]

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विज गीताप्रेस, गोरखपुर

33 श्रीहरि: ।। श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत

महाभारत (षष्ठ खण्ड)

[अनुशासन, आश्वमेधिक, आश्रमवासिक, मौसल, महाप्रस्थानिक और स्वर्गारोहणपर्व] (सचित्र, सरल हिंदी-अनुवाद)

त्वमेव माता पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्व सखा त्वमेव त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव ।।

अनुवादक--

साहित्याचार्य पणिडत रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' >

सं० २०७२ पंद्रहवाँ पुनर्मद्रण ३,००० कुल मुद्रण. ७७,७००

प्रकाशक--

गीताप्रेस, गोरखपुर--२७३००५

(गोबिन्दभवन-कार्यालय, कोलकाता का संस्थान)

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विषय-सूची (अनुशासनपर्व)

अध्याय विषय (दान-धर्म-पर्व)

$३- युधिष्ठटिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी,_व्याध,_सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन

२- प्रजापति मनुके वंशका वर्णन,_अग्निपुत्र सुदर्शनका अतिथि-सत्काररूपीधर्मके पालनसे मृत्युपर विजय पाना

3- विश्वामित्रको ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति कैसे हुई--इस विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न

४- आजमीढके वंशका वर्णन तथा विश्वामित्रके जन्‍्मकी कथा और उनके पुत्रोंके नाम

५- स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुषकी श्रेष्ठता बतानेके लिये इन्द्र और तोतेके संवादका उल्लेख

- दैवकी अपेक्षा पुरुषार्थकी श्रेष्ठताका वर्णन

कर्मोके फलका वर्णन

८- श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी महिमा

९- ब्राह्मणोंको देनेकी प्रतिज्ञा करके देने तथा उसके धनका अपहरण करनेसे

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दान देनेकी महिमा

१०- अनधिकारीको उपदेश देनेसे हानिके विषयमें एक शूद्र और तपस्वी ब्राह्मणकी कथा

११- लक्ष्मीके निवास करने और करने योग्य पुरुष,_स्त्री और स्थानोंका वर्णन

१२- कृतप्नकी गति और प्रायश्चित्तका वर्णन तथा स्त्री-पुरुषके संयोगमें स्त्रीको ही अधिक सुख होनेके सम्बन्धमें भंगास्वनका उपाख्यान

१४- भीष्मजीकी आज्ञासे भगवान श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे महादेवजीके माहात्म्यकी कथामें उपमन्युद्वारा महादेवजीकी स्तुति-प्रार्थना,_उनके दर्शन और वरदान पानेका तथा अपनेको दर्शन प्राप्त होनेका कथन

१५- शिव और पार्वतीका श्रीकृष्णको वरदान और उपमन्युके द्वारा महादेवजीकी महिमा

में इन्द्र और शम्बरासुरका संवाद

रुसे वरदान प्राप्त करना देना और अपने द्वारा किये गये

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[म ग्ोंकी प्रशंसा करते हुए उनके सत्कारका

गुणवानक़ो द्वान देनेका विशेष फल

बृहस्पतिका सवाद अन्नदानका विशेष माहात्म्य

स्तुओंके दानका माहात्म्य दानकी महिमा

और ब्राह्मणका

रक्षासे पुण्यकी प्राप्ति

का अपहरण करनेसे हॉनेवाली हाविए विषयों दाशनाते रूपों

दा गत ता मजक

सूर्यकी

संतप्त होनेपर जमदग्निका सूर्यपर

माहा

ब्रह्माजी और भगीरथका संवाद, _यज्ञ,__तप,_दान आदिसे भी अनशन-व्रतकी

अिननगनतग:ग2त02£#-ग- मननगनग»भगभगरगतगभगए ही जनम

१०८- मानस तथा पार्थिव तीर्थकी महत्ता १०९- प्रत्येक मासकी द्वादशी तिथिको विशेष माहात्म्य |

लाभका प्रतिपादन

१२४- नारदका पुण्डरीक को. भगवान __नारायणकी आराधनाका तथा उन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति, सामगुणकी प्रशंसा,_ब्राह्मणका राक्षसके सफेद और दुर्बल होनेका कारण बताना

| विधि और री एन बुझा | >ऊतय

_और पंगुत्व आदि_नाना प्रकारके दोषों

| हर [ 3३- वायुद्वारा हि

ब्राह्मणशिरोमणि उतबथ्यवे

रु और: -वसिष्ट के प्र प्रभावका वर्णन

7 प्रभावका वर्णन दस न॒

गंकी महिमा बताते हुएदुर्वासाके चरित्रका वर्णन रको सुनाना

६८- | ष्मजी तरीका प्राणत्याग,_धृतराष्ट्र आदिके द्वारा उनका दाह-संस्कार,_कौरवोंव गंगाके जलसे भीष्मको जलांजलि देना,_गंगाजीका प्रकट होकर पुत्रके लिये शोक

संग उपस्थित करना

मरुत्तके पर्व दे या नल ग़ परिचय देते हुए व्यासजीके द्वारा उनके गुण, प्रभाव एवं यज्ञका दिग्दर्शन

५: इन्द्रकी प्रेरणासे बृहस्पतिजीका मनुष्यको यज्ञ करानेकी प्रतिज्ञा करना

भेजकर मरुत्तको भय दिखाना और संवर्तका मन्त्र-बलसे बुलाकर मरुत्तका यज्ञ पूर्ण करना

श्री कृष्णके द्वारा ब्राह्मण,_ब्राह्मणी और

महत्तत्त्वके नाम और परमात्मतत्त्वको जाननेकी की महिमा कारकी उत्पत्ति और उसके स्वरूपका वर्णन

श्रीकृष्णका उत्तंक मुनिको विश्वरूपका दर्शन कराना और मरुदेशमें जल प्राप्त वरदान देना

रुभक्तिका वर्णन,_गुरुपुत्रीक साथ उत्तंकका विवाह,_गुरुपत्नीकी

कुण्डल लानेके लिये उत्तंकका राजा सौदासके पास जाना

बश्रुवाहनका आगमन जा | भ्रुवाहनका रत्न-आभूषण आदिसे सत्कार तथा

ब्राह्मणका,_ नरकमें ले जानेवाले पापोंक $२- ब्रह्महत्याके समान पापका,_अन्नदानकी प्र शस ंसाका

१७- चान्द्रायणव्रतकी विधि,_प्रायश्चित्तरूपमें उसके करनेका विधान तथा महिमाका

ै। वर्णन [एन

सर्वहितकारी धर्मका वर्णन,_द्वादशीव्रतका माहात्म्य तथा युधिष्ठिरके द्वारा

भगवानकी स्तुति

(आश्रमवासपर्व) १- भाइयोंसहित युधिष्ठिर तथा कुन्ती आदि देवियोंवे सेवा >>

व्यासजीके समझानेसे युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रको वनमें जानेके लिये अनुमति देना

द्वारा युधिष्ठिरको राजनीतिका उपदेश

२१- धृतराष्ट्र आदिके हम + लिये पाण्डवों

३२- माताके लिये पाण्डवोंकी चिन्ता,_ द्रौपदीका साथ जानेका उत्सा

कुन्ती, गान्धारी और धूतराष्ट्रके दर्शन करना

पाण्डवों, उनकी पत्नियों तथा अन्यान्य स्त्रियोंका परिचय

पास आकर बैठना,_उन सबके पास अन् आगमन

गोता लगाकर महिमा

सदलबल हस्तिनापुरमें आना (नारदागमनपर्व) "डिक वायानलय साय हो जजका होते जापकर अिटि,

>यादवोंके विनाशका समाचार सुनना,_द्वारकामें लकी उत्पत्ति तथा मदिराके निषेधकी कठोर

आज्ञा

७- वसुदेवजी तथा मौसलयुद्धमें मरे हुए यादवोंका अन्त्येष्टि-सं के अर्जुनका द्वारकावासी स्त्री-पुरुषोंको अपने साथ ले जाना, समुद्रका द्वारकाको डूबो देना और मार्ममें ओंका आक्रमण, अवशिष्ट यादवोंको अपनी राजधानीमें बसा

महाप्रस्थान २- मार्ममें द्रौपदी, _सहदेव,_नकुल, अर्जुन, प्रत्येकके गिरनेका कारण बताया जाना युधिष्ठिर इन्द्र और धर्म आदिके साथ वार्तालाप,_युधिष्ठिरका अपने धर्ममें दृढ़ रहना तथा सदेह स्वर्गमें जाना

और भीमसेनका गिरना तथा युधिष्ठिरद्वारा

स्वर्गारोहणपर्व

१- स्वर्गमें नारद और की बातचीत

२- देवदूतका युधिष्ठिरको नरकका दर्शन कराना तथा भाइयोंका करुणक्रन्दन सुनकर उनका वहीं रहनेका निश्चय करना

३- इन्द्र और धर्मका युधिष्ठिरको सान्त्वना देना तथा युधिष्ठिरका शरीर त्यागकर दिव्य लोकको जाना

४- युधिष्ठिरका दिव्यलोकमें श्रीकृष्ण_अर्जुन आदिका दर्शन करना

५- भीष्म आदि वीरोंका अपने-अपने मूलस्वरूपमें मिलना और महाभारतका उपसंहार तथा माहात्म्य १- महाभारत श्रवणविधि २- महाभारत-माहात्म्य

चित्र-सूची

(सादा)

क्रमसंख्या विषय

३२- महाराज मरुत्तका संवर्त मुनिसे संवाद - ब्रह्माजीका ऋषियोंकी उपदेश

२५- महारानी मदयन्तीका उत्तंकको कुण्डल-दान - उत्तंकका गुरुपत्नीको कुण्डल अर्पण करना

२८- अश्वमेधयज्ञके लिये छोड़े हुए घोड़ेका अर्जुनके द्वारा अनुगमन

- महर्षि वसिष्ठका ब्रह्माजीके साथ प्रश्नोत्तर

- भगवान श्रीकृष्ण एवं विभिन्न महर्षियोंका युधिष्ठिरको उपदेश - भयभीत कबूतर महाराज शिबिकी गोदमें

- पृथ्वी और श्रीकृष्णका संवाद

- महर्षि च्यवनका मूल्यांकन - इन्द्रका ब्रह्माजीके साथ गौओंके सम्बन्धमें प्रश्नोत्तर

०- भगवती लक्ष्मीकी गौओंसे आश्रयके लिये प्रार्थना

- गृहस्थ-धर्मके सम्बन्धमें श्रीकृष्णका पृथ्वीके साथ संवाद २- बृहस्पतिजीका युधिष्ठिरको उपदेश

- देवलोकमें पतिव्रता शाण्डिली और सुमनाकी बातचीत ४- सामनीतिकी विजय

इन्द्रका भगवान विष्णुके साथ प्रश्नोतर

- भगवान्‌ श्रीकृष्णकी तपस्या

कि श्रीकृष्णका मा माहात्मय कह शहे मम लि

८- भगवान्‌ दत्तात्रेयकी कार्तवीर्यपर कृपा - शर-शय्यापर पड़े भीष्मकी युधिष्ठिससे बातचीत

अर्जुन अपने पुत्र बभ्रुवाहनको छातीसे लगा रहे हैं ०- महाराज युधिष्ठिरके अश्वमेधयज्ञमें एक नेवलेका आगमन

'रीरसे यधिष्ठिरमें प्रवेश

३३- व्यासजीके द्वारा कौरव-पाण्डवपक्षके मरे _हुए_सम्बन्धियोंका सेनासहित परलोकसे आवाहन

४- साम्बके पेटसे य॒दुवंश-विनाशके लिये मूसल पैदा;

3६- अग्निकी प्रेरणासे अर्जुन अपने गाण्डीव धनुष और अक्षय तरकसको जलमें डाल

३० श्रीपरमात्मने नम: ।।

श्रीमहाभारतम्‌ अनुशासनपर्व

दानधर्मपर्व

प्रथमो 5 ध्याय:

युधिषिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्‌ |

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्‌ ।।

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये ।।

युधिछिर उवाच

शमो बहुविधाकार: सूक्ष्म उक्त: पितामह

मे हृदये शान्तिरस्ति श्रुत्वेदमीदूशम्‌ ।। ।।

युधिष्ठिरने कहा--पितामह! आपने नाना प्रकारसे शान्तिके सूक्ष्म स्‍्वरूपका (शोकसे मुक्त होनेके विविध उपायोंका) वर्णन किया; परंतु आपका यह ऐसा उपदेश सुनकर भी मेरे हृदयमें शान्ति नहीं है || ।।

अस्मिन्नर्थे बहुविधा शान्तिरुक्ता पितामह

स्वकृते का नु शान्ति: स्थाच्छमाद्‌ बहुविधादपि ।। ।।

दादाजी! आपने इस विषयमें शान्तिके बहुत-से उपाय बताये, परंतु इन नाना प्रकारके शान्तिदायक उपायोंको सुनकर भी स्वयं ही किये गये अपराधसे मनको शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है || ।।

शराचितशरीर हि तीव्रव्रणमुदीक्ष्य

शर्म नोपलभे वीर दुष्कृतान्येव चिन्तयन्‌ ॥। ।।

वीरवर! बाणोंसे भरे हुए आपके शरीर और इसके गहरे घावको देखकर मैं बार-बार अपने पापोंका ही चिन्तन करता हूँ; अत: मुझे तनिक भी चैन नहीं मिलता है ।। ।।

रुधिरेणावसिक्ताडुं प्रस्रवन्तं यथाचलम्‌

त्वां दृष्टवा पुरुषव्याप्र सीदे वर्षास्विवाम्बुजम्‌ ।। ।।

पुरुषसिंह! पर्वतसे गिरनेवाले झरनेकी तरह आपके शरीरसे रक्तकी धारा बह रही है-- आपके सारे अड़ खूनसे लथपथ हो रहे हैं | इस अवस्थामें आपको देखकर मैं वर्षाकालके कमलकी तरह गला (दुःखित होता) जाता हूँ ।। ।।

अतः कष्टतरं कि नु मत्कृते यत्‌ पितामह:

इमामवस्थां गमितः: प्रत्यमित्रै रणाजिरे ।। ।।

मेरे ही कारण समराड्डणमें शत्रुओंने जो पितामहको इस अवस्थामें पहुँचा दिया, इससे बढ़कर कष्टकी बात और क्या हो सकती है? ।। ।।

तथा चान्ये नृपतय: सहपुत्रा: सबान्धवा:

मत्कृते निधन प्राप्ता: कि नु कष्टतरं ततः ।।

आपके सिवा और भी बहुत-से नरेश मेरे ही कारण अपने पुत्रों और बान्धवोंसहित युद्धमें मारे गये हैं। इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या होगी? ।। ।।

वयं हि धार्तराष्ट्रश्न कालमन्युवशंगता:

कृत्वेदं निन्दितं कर्म प्राप्स्याम: कां गतिं नूप ।।

नरेश्वर! हम पाण्डव और धूृतराष्ट्रके सभी पुत्र काल और क्रोधके वशीभूत हो यह निन्दित कर्म करके जाने किस दुर्गतिको प्राप्त होंगे! || ।।

इदं तु धार्तराष्ट्रस्थ श्रेयो मन्ये जनाधिप

इमामवस्थां सम्प्राप्तं यदसौ त्वां पश्यति ।। ।।

नरेश्वर! मैं राजा दुर्योधनके लिये उसकी मृत्युको श्रेष्ठ समझता हूँ, जिससे कि वह आपको इस अवस्थामें पड़ा हुआ नहीं देखता है ।। ।।

सो5हं तव हान्तकर: सुहृद्वधकरस्तथा

शान्तिमधिगच्छामि पश्यंस्त्वां दुःखितं क्षितौ ।। ।।

मैं ही आपके जीवनका अन्त करनेवाला हूँ और मैं ही दूसरे-दूसरे सुहदोंका भी वध करनेवाला हूँ। आपको इस दुःखमयी दुरवस्थामें भूमिपर पड़ा देख मुझे शान्ति नहीं मिलती है।। ९।।

दुर्योधनो हि समरे सहसैन्य: सहानुज:

निहतः क्षत्रधर्मेडस्मिन्‌ दुरात्मा कुलपांसन: ।। १० ।।

दुरात्मा एवं कुलाड्ार दुर्योधन सेना और बन्धुओं सहित क्षत्रियधर्मके अनुसार होनेवाले इस युद्धमें मारा गया ।। १० ।।

पश्यति दुष्टात्मा त्वामद्य पतितं क्षितौ

अतः: श्रेयो मृतं मन्‍्ये नेह जीवितमात्मन: ।। ११ ।।

वह दुष्टात्मा आज आपको इस तरह भूमिपर पड़ा हुआ नहीं देख रहा है, अतः उसकी मृत्युको ही मैं यहाँ श्रेष्ठ मानता हूँ; किन्तु अपने इस जीवनको नहीं ।। ११ ।।

अहं हि समरे वीर गमित: शत्रुभि: क्षयम्‌

अभविष्यं यदि पुरा सह भ्रातृभिरच्युत ।। १२ ।।

त्वामेवं सुदुः:खार्तमद्राक्षं सायकार्दितम्‌

अपनी मर्यादासे कभी नीचे गिरनेवाले वीरवर! यदि भाइयोंसहित मैं शत्रुओंद्वारा पहले ही युद्धमें मार डाला गया होता तो आपको इस प्रकार सायकोंसे पीड़ित और अत्यन्त दुःखसे आतुर अवस्थामें नहीं देखता ।। १२ | ।।

नूनं हि पापकर्माणो धात्रा सृष्टा: सम हे नृप ।। १३ ।।

अन्यस्मिन्नपि लोके वै यथा मुच्येम किल्बिषात्‌ |

तथा प्रशाधि मां राजन्‌ मम चेदिच्छसि प्रियम्‌ ।। १४ ।।

नरेश्वर! निश्चय ही विधाताने हमें पापी ही रचा है। राजन! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे परलोकमें भी मुझे इस पापसे छुटकारा मिल सके ।। १३-१४ ।।

भीष्म उवाच

परतन्त्रं कथं हेतुमात्मानमनुपश्यसि

कर्मणां हि महाभाग सूक्ष्म होतदतीन्द्रियम्‌ १५ ।।

भीष्मजी कहते हैं--महाभाग! तुम तो सदा परतन्त्र हो (काल, अदृष्ट और ईश्वरके अधीन हो), फिर अपनेको शुभाशुभ कर्मोंका कारण क्‍यों समझते हो? वास्तवमें कर्मोंका कारण क्या है, यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियोंकी पहुँचसे बाहर है ।। १५ ।।

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌

संवादं मृत्युगौतम्यो: काललुब्धकपन्नगै: ।। १६ ।।

इस विषयमें विद्वान्‌ पुरुष गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। १६ ।।

गौतमी नाम कौन्तेय स्थविरा शमसंयुता

सर्पेण दष्ट॑ स्वं पुत्रमपश्यद्गतचेतनम्‌ ।। १७ ।।

कुन्तीनन्दन! पूर्वकालमें गौतमी नामवाली एक बूढ़ी ब्राह्मणी थी, जो शान्तिके साधनमें संलग्न रहती थी। एक दिन उसने देखा, उसके इकलौते बेटेको साँपने डेस लिया और उसकी चेतनाशक्ति लुप्त हो गयी ।।

अथ त॑ स्नायुपाशेन बद्ध्वा सर्पममर्षित:

लुब्धको<र्जुनको नाम गौतम्या: समुपानयत्‌ ।। १८ ।। इतनेहीमें अर्जुनक नामवाले एक व्याधने उस साँपको ताँतके फाँसमें बाँध लिया और अमर्षवश वह उसे गौतमीके पास ले आया ॥। १८ ।। सचाब्रवीदयं ते पुत्रहा पन्नगाधम: ब्रृहि क्षिप्रं महाभागे वध्यतां केन हेतुना ।। १९ ।। लाकर उसने कहा--“महाभागे! यही वह नीच सर्प है, जिसने तुम्हारे पुत्रको मार डाला है। जल्दी बताओ, मैं किस तरह इसका वध करूँ? ।। १९ ।। अग्नौ प्रक्षिप्पतामेष च्छिद्यतां खण्डशो5पि वा हायं बालहा पापश्चिरं जीवितुमहति ।। २० ।। “मैं इसे आगमें झोंक दूँ या इसके टुकड़े-टुकड़े कर डालूँ? बालककी हत्या करनेवाला यह पापी सर्प अब अधिक समयतक जीवित रहने योग्य नहीं है” ।। गौतम्युवाच विसृजैनमबुद्धिस्त्वमवध्यो<र्जुनक त्वया को ह्वात्मानं गुरुं कुर्यात्‌ प्राप्तव्यमविचिन्तयन्‌ ।। २१ ।। गौतमी बोली--अर्जुनक! छोड़ दे इस सर्पको। तू अभी नादान है। तुझे इस सर्पको नहीं मारना चाहिये। होनहारको कोई टाल नहीं सकता--इस बातको जानते हुए भी इसकी उपेक्षा करके कौन अपने ऊपर पापका भारी बोझ लादेगा? ।। २१ ।। प्लवन्ते धर्मलघवो लोके5म्भसि यथा प्लवा: | मज्जन्ति पापगुरव: शस्त्र स्कन्नमिवोदके ।॥। २२ ।। संसारमें धर्माचरण करके जो अपनेको हलके रखते हैं (अपने ऊपर पापका भारी बोझ नहीं लादते हैं), वे पानीके ऊपर चलनेवाली नौकाके समान भवसागरसे पार हो जाते हैं; परंतु जो पापके बोझसे अपनेको बोझिल बना लेते हैं, वे जलमें फेंके हुए हथियारकी भाँति नरक-समुद्रमें डूब जाते हैं || २२ ।। हत्वा चैनं नामृतः स्यादयं मे जीवत्यस्मिन्‌ को>त्ययःस्यादयं ते अस्योत्सर्गे प्राणयुक्तस्य जन्तो- मृत्योलोंक॑ को नु गच्छेदनन्तम्‌ ।। २३ ।। इसको मार डालनेसे मेरा यह पुत्र जीवित नहीं हो सकता और इस सर्पके जीवित रहनेपर भी तुम्हारी क्या हानि हो सकती है? ऐसी दशामें इस जीवित प्राणीके प्राणोंका नाश करके कौन यमराजके अनन्त लोकमें जाय? ।। २३ ।। लुब्धक उवाच जानाम्यहं देवि गुणागुणज्ञे

सर्वार्तियुक्ता गुरवो भवन्ति स्वस्थस्यैते तूपदेशा भवन्ति तस्मात क्षुद्रें सर्पमेनं हनिष्ये || २४ ।। व्याधने कहा--गुण और अवगुणको जाननेवाली देवि! मैं जानता हूँ कि बड़े-बूढ़े लोग किसी भी प्राणीको कष्टमें पड़ा देख इसी तरह दुःखी हो जाते हैं। परंतु ये उपदेश तो स्वस्थ पुरुषके लिये हैं (दुःखी मनुष्यके मनपर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता)। अतः मैं इस नीच सर्पको अवश्य मार डालूँगा || २४ ।। शमार्थिन: कालगतिं वदन्ति सद्यः शुचं त्वर्थविदस्त्यजन्ति श्रेय:क्षयं शोचति नित्यमोहात्‌ तस्माच्छुचं मुज्च हते भुजड़े ।॥ २५ ।। शान्ति चाहनेवाले पुरुष कालकी गति बताते हैं (अर्थात्‌ कालने ही इसका नाश कर दिया है, ऐसा कहते हुए शोकका त्याग करके संतोष धारण करते हैं)। परंतु जो अर्थवेत्ता हैं --बदला लेना जानते हैं, वे शत्रुका नाश करके तुरंत ही शोक छोड़ देते हैं। दूसरे लोग श्रेयका नाश होनेपर मोहवश सदा उसके लिये शोक करते रहते हैं; अत: इस शत्रुभूत सर्पके मारे जानेपर तुम भी तत्काल ही अपने पुत्र-शोकको त्याग देना ।। २५ ।। गौतम्युवाच आर्तिनिवं विद्यते3स्मद्विधानां धर्मात्मान: सर्वदा सज्जना हि नित्यायस्तो बालको<प्यस्य तस्मा- दीशे नाहं पन्नगस्य प्रमाथे | २६ ।। गौतमी बोली--अर्जुनक! हम-जैसे लोगोंको कभी किसी तरहकी हानिसे भी पीड़ा नहीं होती। धर्मात्मा सज्जन पुरुष सदा धर्ममें ही लगे रहते हैं। मेरा यह बालक सर्वथा मरनेहीवाला था; इसलिये मैं इस सर्पको मारनेमें असमर्थ हूँ || २६ ।। ब्राह्मणानां कोपो$स्ति कुत: कोपाच्च यातनाम्‌ | मार्दवात्‌ क्षम्यतां साथो मुच्यतामेष पन्नग: ।। २७ ।। ब्राह्मणोंको क्रोध नहीं होता; फिर वे क्रोधवश दूसरोंको पीड़ा कैसे दे सकते हैं; अतः साधो! तू भी कोमलताका आश्रय लेकर इस सर्पके अपराधको क्षमा कर और इसे छोड़ दे | २७ || लुब्धक उवाच हत्वा लाभ: श्रेय एवाव्यय: स्या- ल्लभ्यो लाभ्य: स्याद्‌ बलिभ्य: प्रशस्त:

कालाल्लाभो यस्तु सत्यो भवेत श्रेयोलाभ: कुत्सिते5स्मिन्न ते स्‍्थात्‌ ।। २८ ।। व्याधने कहा--देवि! इस सर्पको मार डालनेसे जो बहुतोंका भला होगा, यही अक्षय लाभ है। बलवानोंसे बलपूर्वक लाभ उठाना ही उत्तम लाभ है। कालसे जो लाभ होता है वही सच्चा लाभ है। इस नीच सर्पके जीवित रहनेसे तुम्हें कोई श्रेय नहीं मिल सकता ।। २८ ।। गौतग्युवाच का नु प्राप्ति्गहा शत्रुं निहत्य का कामाप्ति: प्राप्य शत्रुं मुक्त्वा कस्मात्‌ सौम्याहं क्षमे नो भुजड़े मोक्षार्थ वा कस्य हेतोर्न कुर्यामू २९ ।। गौतमी बोली--अर्जुनक! शत्रुको कैद करके उसे मार डालनेसे क्या लाभ होता है; तथा शत्रुको अपने हाथमें पाकर उसे छोड़नेसे किस अभीष्ट मनोरथकी प्राप्ति हो जाती है? सौम्य! क्या कारण है कि मैं इस सर्पके अपराधको क्षमा करूँ? तथा किसलिये इसको छुटकारा दिलानेका प्रयत्न करूँ? ।। २९ ।। लुब्धक उवाच अस्मादेकाद्‌ बहवो रक्षितव्या नैको बहुभ्यो गौतमि रक्षितव्य: कृतागसं धर्मविदस्त्यजन्ति सरीसूृपं पापमिमं जहि त्वम्‌ ।। ३० ।। व्याधने कहा--गौतमी! इस एक सर्पसे बहुतेरे मनुष्योंके जीवनकी रक्षा करनी चाहिये। (क्योंकि यदि यह जीवित रहा तो बहुतोंको काटेगा।) अनेकोंकी जान लेकर एककी रक्षा करना कदापि उचित नहीं है। धर्मज्ञ पुरुष अपराधीको त्याग देते हैं; इसलिये तुम भी इस पापी सर्पको मार डालो || ३० ।।

गौतम्युवाच नास्मिन्‌ हते पन्नगे पुत्रको मे सम्प्राप्स्यते लुब्धक जीवित वै गुणं चान्य॑ नास्य वधे प्रपश्ये

तस्मात्‌ सर्प लुब्धक मुज्च जीवम्‌ ॥। ३१ ।। गौतमी बोली--व्याध! इस सर्पके मारे जानेपर मेरा पुत्र पुनः जीवन प्राप्त कर लेगा, ऐसी बात नहीं है। इसका वध करनेसे दूसरा कोई लाभ भी मुझे नहीं दिखायी देता है।

इसलिये इस सर्पको तुम जीवित छोड़ दो || ३१ ।। लुब्धक उवाच वृत्रं हत्वा देवराट्‌ श्रेष्ठभाग्‌ वै यज्ञ हत्वा भागमवाप चैव शूली देवो देववृत्तं चर त्वं क्षिप्रं सर्प जहि मा भूत्‌ ते विशड्का ।॥। ३२ ।। व्याधने कहा--देवि! वृत्रासुरका वध करके देवराज इन्द्र श्रेष्ठ पदके भागी हुए और त्रिशूलधारी रुद्रदेवने दक्षके यज्ञका विध्वंस करके उसमें अपने लिये भाग प्राप्त किया। तुम भी देवताओंद्वारा किये गये इस बर्तावका ही पालन करो। इस सर्पको शीघ्र ही मार डालो। इस कार्यमें तुम्हें शंका नहीं करनी चाहिये ।। ३२ ।। भीष्य उवाच असकृत्‌ प्रोच्यमानापि गौतमी भुजगं प्रति लुब्धकेन महाभागा पापे नैवाकरोन्मतिम्‌ ।। ३३ ।। भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! व्याधके बार-बार कहने और उकसानेपर भी महाभागा गौतमीने सर्पको मारनेका विचार नहीं किया || ३३ ।। ईषदुच्छवसमानस्तु कृच्छात्‌ संस्तभ्य पन्नग: उत्ससर्ज गिरं मन्दां मानुषीं पाशपीडित: ।। ३४ ।। उस समय बन्धनसे पीड़ित होकर धीरे-धीरे साँस लेता हुआ वह साँप बड़ी कठिनाईसे अपनेको सँभालकर मन्दस्वरसे मनुष्यकी वाणीमें बोला ।। ३४ ।। सर्प उवाच

को न्वर्जुनक दोषोअत्र विद्यते मम बालिश

अस्वतन्त्र हि मां मृत्युर्विवशं यदचूचुदत्‌ ।। ३५ ।।

सर्पने कहा--ओ नादान अर्जुनक! इसमें मेरा क्या दोष है? मैं तो पराधीन हूँ। मृत्युने मुझे विवश करके इस कार्यके लिये प्रेरित किया था ।। ३५ ।।

तस्यायं वचनाद्‌ू दष्टो कोपेन काम्यया

तस्य तत्किल्बिषं लुब्ध विद्यते यदि किल्बिषम्‌ | ३६ ।।

उसके कहनेसे ही मैंने इस बालकको डँसा है, क्रोधसे और कामनासे नहीं। व्याध! यदि इसमें कुछ अपराध है तो वह मेरा नहीं, मृत्युका है | ३६ ।।

लुब्धक उवाच यद्यन्यवशगेनेदं कृतं ते पन्नगाशुभम्‌ कारणं वै त्वमप्यत्र तस्मात्‌ त्वमपि किल्बिषी ।। ३७ ।।

व्याधने कहा--ओ सर्प! यद्यपि तूने दूसरेके अधीन होकर यह पाप किया है तथापि तू भी तो इसमें कारण है ही; इसलिये तू भी अपराधी है || ३७ ।।

मृत्पात्रस्य क्रियायां हि दण्डचक्रादयो यथा

कारणत्वे प्रकल्प्यन्ते तथा त्वमपि पन्नग ।। ३८ ।।

सर्प! जैसे मिट्टीका बर्तन बनाते समय दण्ड और चाक आदिको भी उसमें कारण माना जाता है, उसी प्रकार तू भी इस बालकके वधमें कारण है ।। ३८ ।।

किल्बिषी चापि मे वध्य: किल्बिषी चासि पन्नग

आत्मानं कारणं द्वात्र त्वमाख्यासि भुजड्रम ।। ३९ ।।

भुजंगम! जो भी अपराधी हो, वह मेरे लिये वध्य है; पन्नग! तू भी अपराधी है ही; क्योंकि तू स्वयं अपने आपको इसके वधमें कारण बताता है ।। ३९ ।।

सर्प उवाच

सर्व एते हास्ववशा दण्डचक्रादयो यथा

तथाहमपि तस्मान्मे नैष दोषो मतस्तव ।। ४० ।।

सर्पने कहा--व्याध! जैसे मिट्टीका बर्तन बनानेमें ये दण्ड-चक्र आदि सभी कारण पराधीन होते हैं, उसी प्रकार मैं भी मृत्युके अधीन हूँ। इसलिये तुमने जो मुझपर दोष लगाया है, वह ठीक नहीं है ।। ४० ।।

अथवा मततमेतत्ते ते5प्यन्योन्यप्रयोजका:

कार्यकारणसंदेहो भवत्यन्योन्यचोदनात्‌ ।। ४१ ।।

अथवा यदि तुम्हारा यह मत हो कि ये दण्ड-चक्र आदि भी एक-दूसरेके प्रयोजक होते हैं; इसलिये कारण हैं ही। किंतु ऐसा माननेसे एक-दूसरेको प्रेरणा देनेवाला होनेके कारण कार्य-कारणभावके निर्णयमें संदेह हो जाता है || ४१ ।।

एवं सति दोषो मे नास्मि वध्यो किल्बिषी

किल्विषं समवाये स्यान्मन्यसे यदि किल्बिषम्‌ || ४२ ।।

ऐसी दशामें तो मेरा कोई दोष है और मैं वध्य अथवा अपराधी ही हूँ। यदि तुम किसीका अपराध समझते हो तो वह सारे कारणोंके समूहपर ही लागू होता है || ४२ ।।

लुब्धक उवाच

कारणं यदि स्याद्‌ वै कर्ता स्यास्त्वमप्युत

विनाशकारणं त्वं तस्माद्‌ वध्योडसि मे मतः ।। ४३ ।।

व्याधने कहा--सर्प! यदि मान भी लें कि तू अपराधका तो कारण है और कर्ता ही है तो भी इस बालककी मृत्यु तो तेरे ही कारण हुई है, इसलिये मैं तुझे मारने योग्य समझता हूँ || ४३ ।।

असत्यपि कृते कार्य नेह पन्नग लिप्यते

तस्मान्नात्रैव हेतु: स्याद्‌ वध्य: कि बहु भाषसे ।। ४४ ।। सर्प! तेरे मतके अनुसार यदि दुष्टतापूर्ण कार्य करके भी कर्ता उस दोषसे लिप्त नहीं होता है, तब तो चोर या हत्यारे आदि जो अपने अपराधोंके कारण राजाओंके यहाँ वध्य होते हैं, उन्हें भी वास्तवमें अपराधी या दोषका भागी नहीं होना चाहिये। (फिर तो पाप और उसका दण्ड भी व्यर्थ ही होगा) अतः तू क्यों बहुत बकवाद कर रहा है ।। सर्प उवाच

कार्याभावे क्रिया स्यात्‌ सत्यसत्यपि कारणे

तस्मात्‌ समे5स्मिन्‌ हेतौ मे वाच्यो हेतुर्विशेषत: ।। ४५ ।।

यद्य॒हं कारणत्वेन मतो लुब्धक तत्त्वतः

अन्य: प्रयोगे स्यादत्र किल्बिषी जन्तुनाशने ।। ४६ ।।

सर्पने कहा--व्याध! प्रयोजक (प्रेरक) कर्ता रहे या रहे, प्रयोज्य कर्ताके बिना क्रिया नहीं होती; इसलिये यहाँ यद्यपि हमलोग (मैं और मृत्यु) समानरूपसे हेतु हैं; तो भी प्रयोजक होनेके कारण मृत्युपर ही विशेषरूपसे यह अपराध लगाया जा सकता है। यदि तुम मुझे इस बालककी मृत्युका वस्तुतः कारण मानते हो तो यह तुम्हारी भूल है। वास्तवमें विचार करनेपर प्रेरणा करनेके कारण दूसरा ही (मृत्यु ही) अपराधी सिद्ध होगा; क्योंकि वही प्राणियोंके विनाशमें अपराधी है || ४५-४६ ।।

लुब्धक उवाच

वध्यस्त्वं मम दुर्बुद्धे बालघाती नृशंसकृत्‌

भाषसे किं बहु पुनर्वध्य: सन्‌ पन्नगाधम ।। ४७ ।।

व्याधने कहा--खोटी बुद्धिवाले नीच सर्प! तू बालहत्यारा और क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाला है; अतः निश्चय ही मेरे हाथसे वधके योग्य है। तू वध्य होकर भी अपनेको निर्दोष सिद्ध करनेके लिये क्‍यों बहुत बातें बना रहा है? ।। ४७ ।।

सर्प उवाच

यथा हवींषि जुद्दाना मखे वै लुब्धकर्त्विज:

फल प्राप्रुवन्त्यत्र फलयोगे तथा हाहम्‌ ।। ४८ ।।

सर्पने कहा--व्याध! जैसे यजमानके यहाँ यज्ञमें ऋत्विज्‌ लोग अग्निमें आहुति डालते हैं; किंतु उसका फल उन्हें नहीं मिलता। इसी प्रकार इस अपराधके फल या दण्डको भोगनेमें मुझे नहीं सम्मिलित करना चाहिये (क्योंकि वास्तवमें मृत्यु ही अपराधी है) ।। ४८ ।।

भीष्म उवाच तथा ब्रुवति तस्मिंस्तु पन्नगे मृत्युचोदिते

आजगाम ततो मृत्यु: पन्नगं चाब्रवीदिदम्‌ ।। ४९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन! मृत्युकी प्रेरणासे बालकको डँसनेवाला सर्प जब बारंबार अपनेको निर्दोष और मृत्युको दोषी बताने लगा तब मृत्यु देवता भी वहाँ पहुँचा और सर्पसे इस प्रकार बोला ।। ४९ ||

मृत्युरुवाच

प्रचोदितो5हं कालेन पन्नग त्वामचूचुदम्‌

विनाशहेतुर्नास्य त्वमहं प्राणिन: शिशो: ।। ५० ।।

मृत्युने कहा--सर्प! कालसे प्रेरित होकर ही मैंने तुओ इस बालकको डँसनेके लिये प्रेरणा दी थी; अतः इस शिशुप्राणीके विनाशमें तो तू कारण है और मैं ही कारण हूँ || ५० ||

यथा वायुर्जलधरान्‌ विकर्षति ततस्तत:

तद्धज्जलदवत्‌ सर्प कालस्याहं वशानुग: ।। ५१ ।।

सर्प! जैसे हवा बादलोंको इधर-उधर उड़ा ले जाती है, उन बादलोंकी ही भाँति मैं भी कालके वशमें हूँ || ५१ ।।

साच्विका राजसाश्षैव तामसा ये केचन

भावा: कालात्मका: सर्वे प्रवर्तन्ते जन्तुषु || ५२ ।।

सात्विक, राजस और तामस जितने भी भाव हैं, वे सब कालात्मक हैं और कालकी ही प्रेरणासे प्राणियोंको प्राप्त होते हैं ।। ५२ ।।

जड़मा: स्थावराश्नैव दिवि वा यदि वा भुवि |

सर्वे कालात्मका: सर्प कालात्मकमिदं जगत्‌ ।। ५३ ।।

सर्प! पृथ्वी अथवा स्वर्गलोकमें जितने भी स्थावर-जड़म पदार्थ हैं, वे सभी कालके अधीन हैं। यह सारा जगत्‌ ही कालस्वरूप है ।। ५३ ।।

प्रवृत्तयश्च लोके5स्मिंस्तथैव निवृत्तय:

तासां विकृतयो याश्व्‌ सर्व कालात्मकं स्मृतम्‌ ।। ५४ ।।

इस लोकमें जितने प्रकारकी प्रवृत्ति-निवृत्ति तथा उनकी विकृतियाँ (फल) हैं, ये सब कालके ही स्वरूप हैं ।। ५४ ।।

आदित्यश्रन्द्रमा विष्णुरापो वायु: शतक्रतुः

अग्नि:खं पृथिवी मित्र: पर्जन्यो वसवो5दिति: ।। ५५ ।।

सरित: सागराश्षैव भावाभावौ पन्नग

सर्वे कालेन सृज्यन्ते द्वियन्ते पुन: पुन: ।। ५६ ।।

पन्नग! सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, इन्द्र, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, मित्र, पर्जन्य, वसु, अदिति, नदी, समुद्र तथा भाव और अभाव--ये सभी कालके द्वारा ही रचे जाते हैं और

काल ही इनका संहार कर देता है ।।

एवं ज्ञात्वा कथं मां त्वं सदोषं सर्प मन्यसे

अथ चैवंगते दोषे मयि त्वमपि दोषवान्‌ ।। ५७ ||

सर्प! यह सब जानकर भी तुम मुझे कैसे दोषी मानते हो? और यदि ऐसी स्थितिमें भी मुझपर दोषारोपण हो सकता है, तब तो तू भी दोषी ही है ।।

सर्प उवाच

निर्दोषं दोषवन्तं वा त्वां मृत्यो ब्रवीम्यहम्‌

त्वयाहं चोदित इति ब्रवीम्येतावदेव तु ।। ५८ ।।

सर्पने कहा--मृत्यो! मैं तुम्हें तो निर्दोष बताता हूँ और दोषी ही। मैं तो इतना ही कह रहा हूँ कि इस बालकको डँसनेके लिये तूने ही मुझे प्रेरित किया था ।। ५८ ।।

यदि काले तु दोषो<स्ति यदि तत्रापि नेष्यते

दोषो नैव परीक्ष्यो मे ह्ृत्राधिकृता वयम्‌ ।। ५९ |।

इस विषयमें यदि कालका दोष है अथवा यदि वह भी निर्दोष है तो हो, मुझे किसीके दोषकी जाँच नहीं करनी है और जाँच करनेका मुझे कोई अधिकार भी नहीं है ।। ५९ ।।

निर्मोक्षस्त्वस्य दोषस्य मया कार्या यथा तथा

मृत्योरपि दोष: स्यादिति मे<त्र प्रयोजनम्‌ ।। ६० ।।

परंतु मेरे ऊपर जो दोष लगाया गया है, उसका निवारण तो मुझे जैसे-तैसे करना ही है। मेरे कहनेका यह प्रयोजन नहीं है कि मृत्युका भी दोष सिद्ध हो जाय ।। ६० ।।

भीष्म उवाच

सर्पो3थार्जुनकं प्राह श्रुतं ते मृत्युभाषितम्‌

नानागसं मां पाशेन संतापयितुमरहसि ।। ६१ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर सर्पने अर्जुनकसे कहा--“तुमने मृत्युकी बात तो सुन ली न? अब मुझ निरपराधको बन्धनमें बाँधकर कष्ट देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है ।। ६१ ।।

लुब्धक उवाच

मृत्यो: श्रुतं मे वचनं तव चैव भुजड़म

नैव तावददोषत्वं भवति त्वयि पन्नग ।। ६२ ।।

व्याधने कहा--पन्नग! मैंने मृत्युकी और तेरी--दोनोंकी बातें सुन लीं; किंतु भुजंगम! इससे तेरी निर्दोषता नहीं सिद्ध हो रही है ।। ६२ ।।

मृत्युस्त्वं चैव हेतुर्हि बालस्यास्य विनाशने

उभयं कारणं मन्ये कारणमकारणम्‌ ।। ६३ ।।

इस बालकके विनाभमें तू और मृत्यु--दोनों ही कारण हो; अतः मैं दोनोंको ही कारण या अपराधी मानता हूँ, किसी एकको अपराधी या निरपराध नहीं मानता ।। ६३ ।।

धिड़मृत्युं दुरात्मानं क्रूरं दु:खकरं सताम्‌ |

त्वां चैवाहं वधिष्यामि पापं पापस्य कारणम्‌ ।। ६४ ।।

श्रेष्ठ पुरुषोंको दुःख देनेवाले इस क्रूर एवं दुरात्मा मृत्युको धिक्‍्कार है और तू तो इस पापका कारण है ही; इसलिये तुझ पापात्माका वध मैं अवश्य करूँगा || ६४ ।।

मृत्युरुवाच

विवशौ कालवशगावावां निर्दिष्टकारिणौ

नावां दोषेण गन्तव्यौ यदि सम्यक्‌ प्रपश्यसि ।। ६५ ।।

मृत्युने कहा--व्याध! हम दोनों कालके अधीन होनेके कारण विवश हैं। हम तो केवल उसके आदेशका पालनमात्र करते हैं। यदि तुम अच्छी तरह विचार करोगे तो हमलोगोंपर दोषारोपण नहीं करोगे ।।

लुब्धक उवाच

युवामुभी कालवशोौ यदि मे मृत्युपन्नगौ

हर्षक्रोधौ यथा स्यातामेतदिच्छामि वेदितुम्‌ ।। ६६ ।।

व्याधने कहा--मृत्यु और सर्प! यदि तुम दोनों कालके अधीन हो तो मुझ तटस्थ व्यक्तिको परोपकारीके प्रति हर्ष और दूसरोंका अपकार करनेवाले तुम दोनोंपर क्रोध क्‍यों होता है, यह मैं जानना चाहता हूँ ।। ६६ ।।

मृत्युरुवाच

या काचिदेव चेष्टा स्यात्‌ सर्वा कालप्रचोदिता

पूर्वमेवैतदुक्त हि मया लुब्धक कालत: ।। ६७ ।।

मृत्युने कहा--व्याध! जगत्‌में जो कोई भी चेष्टा हो रही है, वह सब कालकी प्रेरणासे ही होती है। यह बात मैंने तुमसे पहले ही बता दी है || ६७ ।।

तस्मादुभौ कालवशावावां निर्दिष्टकारिणौ

नावां दोषेण गन्तव्यौ त्वया लुब्धक कहिचित्‌ ।। ६८ ।।

अतः व्याध! हम दोनोंको कालके अधीन और कालके ही आदेशका पालक समझकर तुम्हें कभी हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं करना चाहिये ।। ६८ ।।

भीष्म उवाच

अथोपगम्य कालस्तु तस्मिन्‌ धर्मार्थसंशये अब्रवीत्‌ पन्नगं मृत्युं लुब्धं चार्जुनकं तथा ।। ६९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर धार्मिक विषयमें संदेह उपस्थित होनेपर

काल भी वहाँ पहुँचा; तथा सर्प, मृत्यु एवं अर्जुनक व्याधसे इस प्रकार बोला ।। ६९ ।। काल उवाच

हाहं नाप्ययं मृत्युर्नायं लुब्धक पन्नग:

किल्बिषी जन्तुमरणे वयं हि प्रयोजका: ।। ७० ।।

कालने कहा--व्याथ! तो मैं, यह मृत्यु और यह सर्प ही इस जीवकी मृत्युमें अपराधी हैं। हमलोग किसीकी मृत्युमें प्रेरक या प्रयोजक भी नहीं हैं || ७० ।।

अकरोद्‌ यदयं कर्म तन्नोडर्जुनक चोदकम्‌ |

विनाशहेतुर्नान्यो5स्य वध्यते5यं स्वकर्मणा ।। ७१ ।।

अर्जुनक! इस बालकने जो कर्म किया है वही इसकी मृत्युमें प्रेरक हुआ है, दूसरा कोई इसके विनाशका कारण नहीं है। यह जीव अपने कर्मसे ही मरता है || ७१ ।।

यदनेन कृतं कर्म तेनायं निधनं गतः

विनाशहेतु: कर्मास्य सर्वे कर्मवशा वयम्‌ ।। ७२ ।।

इस बालकने जो कर्म किया है, उसीसे यह मृत्युको प्राप्त हुआ है। इसका कर्म ही इसके विनाशका कारण है। हम सब लोग कर्मके ही अधीन हैं ।। ७२ ।।

कर्मदायादवॉल्लोक: कर्मसम्बन्धलक्षण:

कर्माणि चोदयन्तीह यथान्योन्यं तथा वयम्‌ ।। ७३ ।।

संसारमें कर्म ही मनुष्योंका पुत्र-पौत्रके समान अनुगमन करनेवाला है। कर्म ही दुःख- सुखके सम्बन्धका सूचक है। इस जगतमें कर्म ही जैसे परस्पर एक-दूसरेको प्रेरित करते हैं, वैसे ही हम भी कर्मोंसे ही प्रेरित हुए हैं || ७३ ।।

यथा मृत्पिण्डत: कर्ता कुरुते यद्‌ यदिच्छति

एवमात्मकृतं कर्म मानव: प्रतिपद्यते | ७४ ।।

जैसे कुम्हार मिट्टीके लोंदेसे जो-जो बर्तन चाहता है वही बना लेता है। उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्मके अनुसार ही सब कुछ पाता है ।। ७४ ।।

यथा च्छायातपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम्‌

तथा कर्म कर्ता सम्बद्धावात्मकर्मभि: ।। ७५ ।।

जैसे धूप और छाया दोनों नित्य-निरन्तर एक-दूसरेसे मिले रहते हैं, उसी प्रकार कर्म और कर्ता दोनों अपने कर्मानुसार एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं || ७५ ।।

एवं नाहं वै मृत्युने सर्पो तथा भवान्‌

नचेयं ब्राह्मणी वृद्धा शिशुरेवात्र कारणम्‌ ।। ७६ ।।

इस प्रकार विचार करनेसे मैं, मृत्यु, सर्प, तुम (व्याध) और यह बूढ़ी ब्राह्यणी ही इस बालककी मृत्युमें कारण है। यह शिशु स्वयं ही कर्मके अनुसार अपनी

मृत्युमें कारण हुआ है || ७६ ।। तस्मिंस्तथा ब्रुवाणे तु ब्राह्मणी गौतमी नृप स्वकर्मप्रत्ययाँललोकान्‌ मत्वार्जुनकमब्रवीत्‌ || ७७ ।। नरेश्वरर कालके इस प्रकार कहनेपर गौतमी ब्राह्मणीको यह निश्चय हो गया कि मनुष्यको अपने कर्मोंके अनुसार ही फल मिलता है। फिर वह अर्जुनकसे बोली ।। गौतम्युवाच नैव कालो भुजगो मृत्युरिह कारणम्‌ स्वकर्मभिरयं बाल: कालेन निधनं गत: ।। ७८ ।। गौतमीने कहा--व्याध! यह काल, सर्प और मृत्यु ही यहाँ कारण हैं। यह बालक अपने कर्मोसे ही प्रेरित हो कालके द्वारा विनाशको प्राप्त हुआ है || ७८ ।। मया तत्‌ कृतं कर्म येनायं मे मृत: सुतः यातु कालस्तथा मृत्युर्मुज्चार्जुनक पन्नगम्‌ ।। ७९ ।। अर्जुनक! मैंने भी वैसा कर्म किया था जिससे मेरा पुत्र मर गया है। अत: काल और मृत्यु अपने-अपने स्थानको पधारें; और तू इस सर्पको छोड़ दे || ७९ ।। भीष्म उवाच

ततो यथागतं जम्मुर्मुत्यु: कालो5थ पन्नग:

अभूद्‌ विशोकोअर्जुनको विशोका चैव गौतमी ।। ८० ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर काल, मृत्यु और सर्प जैसे आये थे वैसे ही चले गये; और अर्जुनक तथा गौतमी ब्राह्मणीका भी शोक दूर हो गया ।।

एतत्‌ श्र॒ुत्वा शमं गच्छ मा भू: शोकपरो नृप

स्वकर्मप्रत्ययॉल्लोकान्‌ सर्वे गच्छन्ति वै नूप ॥। ८१ ।।

नरेश्वर! इस उपाख्यानको सुनकर तुम शान्ति धारण करो, शोकमें पड़ो। सब मनुष्य अपने-अपने कर्मोके अनुसार प्राप्त होनेवाले लोकोंमें ही जाते हैं ।।

नैव त्वया कृतं कर्म नापि दुर्योधनेन वै

कालेनैतत्‌ कृतं विद्धि निहता येन पार्थिवा: ।॥। ८२ ।।

तुमने या दुर्योधनने कुछ नहीं किया है। कालकी ही यह सारी करतूत समझो, जिससे समस्त भूपाल मारे गये हैं ।। ८२ ।।

वैशम्पायन उवाच इत्येतद्‌ वचन श्रुत्व बभूव विगतज्वर: युधिष्ठिरो महातेजा: पप्रच्छेद॑ धर्मवित्‌ ।। ८३ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीष्मकी यह बात सुनकर महातेजस्वी धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिरकी चिन्ता दूर हो गयी; तथा उन्होंने पुनः इस प्रकार प्रश्न किया || ८३ ।।

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि गौतमीलुब्धकव्यालमृत्युकालसंवादे प्रथमो5ध्याय: ।। ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गौतमी ब्राह्मणी; व्याध, सर्प मृत्यु और कालका संवादविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥।

अपना बछ। | अत-४#-क+

द्वितीयो<5्ध्याय:

प्रजापति मनुके वंशका वर्णन, अग्निपुत्र वकील अतिथिसत्काररूपी धर्मके पालनसे मृत्युपर पाना

युधिछिर उवाच

पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद

श्रुतं मे महदाख्यानमिदं मतिमतां वर ।। ।।

युधिष्ठिरने कहा--बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सर्वशास्त्र-विशारद महाप्राज्ञ पितामह! इस महत्त्वपूर्ण उपाख्यानको मैंने बड़े ध्यानसे सुना है ।। ।।

भूयस्तु श्रोतुमिच्छामि धर्मार्थसहितं नृप

कथ्यमानं त्वया किज्चित्‌ तन्मे व्याख्यातुमहसि ।। ।।

नरेश्वर! अब मैं पुन: आपके मुखसे कुछ और धर्म तथा अर्थयुक्त उपदेश सुनना चाहता हूँ, अतः आप मुझे इस विषयको विस्तारपूर्वक बताइये ।। ।।

केन मृत्युर्गृहस्थेन धर्ममाश्रित्य निर्जित:

इत्येतत्‌ सर्वमाचक्ष्व तत्त्वेनापि पार्थिव ।। ।।

भूपाल! किस गृहस्थने केवल धर्मका आश्रय लेकर मृत्युपर विजय पायी है? यह सब बातें आप यथार्थरूपसे कहिये ।। ।।

भीष्म उवाच

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌

यथा मृत्युर्गहस्थेन धर्ममाश्रित्य निर्जित: ।। ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! एक गृहस्थने जिस प्रकार धर्मका आश्रय लेकर मृत्युपर विजय पायी थी, उसके विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। ।।

मनो: प्रजापते राजन्निक्ष्वाकुरभवत्‌ सुतः

तस्य पुत्रशतं जज्ञे नपते: सूर्यवर्चस: ।। ।।

नरेश्वर! प्रजापति मनुके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम था इक्ष्वाकु। राजा इक्ष्वाकु सूर्यके समान तेजस्वी थे। उन्होंने सौ पुत्रोंकी जन्म दिया ।। |।

दशमस्तस्य पुत्रस्तु दशाश्वो नाम भारत |

माहिष्मत्यामभूद्‌ राजा धर्मात्मा सत्यविक्रम: ।। ।।

भारत! उनमेंसे दसवें पुत्रका नाम दशाश्व था जो माहिष्मतीपुरीमें राज्य करता था। वह बड़ा ही धर्मात्मा और सत्यपराक्रमी था ।। ।।

दशाश्वस्य सुतस्त्वासीदू राजा परमधार्मिक:

सत्ये तपसि दाने यस्य नित्यं रतं मन: ।। ।।

दशाश्वका पुत्र भी बड़ा धर्मात्मा राजा था। उसका मन सदा सत्य, तपस्या और दानमें ही लगा रहता था ।।

मदिराश्च इति ख्यातः पृथिव्यां पृथिवीपति:

धनुर्वेदे वेदे निरतो यो5भवत्‌ सदा ॥। ।।

वह राजा इस भूतलपर मदिराश्वके नामसे विख्यात था और सदा वेद एवं धरनुर्वेदके अभ्यासमें संलग्न रहता था ।। ।।

मदिराश्चस्य पुत्रस्तु द्युतिमान्‌ नाम पार्थिव:

महाभागो महातेजा महासत्त्वो महाबल: ।। ।।

मदिराश्वका पुत्र महाभाग, महातेजस्वी, महान्‌ धैर्यशशाली और महाबली झद्युतिमान्‌ नामसे प्रसिद्ध राजा हुआ || ।।

पुत्रो द्युतिमतस्त्वासीदू राजा परमधार्मिक:

सर्वलोकेषु विख्यात: सुवीरो नाम नामत: ।। १० ।।

धर्मात्मा कोषवांश्षापि देवराज इवापर:

द्युतिमानका पुत्र परम धर्मात्मा राजा सुवीर हुआ जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात था। वह धर्मात्मा, कोश (धन-भण्डार)-से सम्पन्न तथा दूसरे देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी था ।। १०३ ||

सुवीरस्य तु पुत्रो$भूत्‌ सर्वसंग्रामदुर्जय: ।। ११ ।।

दुर्जय इति ख्यातः सर्वशस्त्रभृतां वर:

सुवीरका पुत्र दुर्जय नामसे विख्यात हुआ। वह सभी संग्रामोंमें शत्रुओंके लिये दुर्जय तथा सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ था ।। ११ ।।

दुर्जयस्येन्द्रवपुष: पुत्रोडश्चिसदृशद्युति: ।। १२ ।॥।

दुर्योधनो नाम महान्‌ राजा राजर्षिसत्तम: |

इन्द्रके समान शरीरवाले राजा दुर्जयके एक पुत्र हुआ जो अभश्विनीकुमारोंके समान कान्तिमान्‌ था। उसका नाम था दुर्योधन। वह राजर्षियोंमें श्रेष्ठ महान्‌ राजा था || १२३ ।।

तस्येन्द्रसमवीर्यस्य संग्रामेष्वनिवर्तिन: ।। १३ ।।

विषये वासवस्तस्य सम्यगेव प्रवर्षति

इन्द्रके समान पराक्रमी और युद्धसे कभी पीछे हटनेवाले राजा दुर्योधनके राज्यमें इन्द्र सदा ठीक समयपर और उचित मात्रामें ही वर्षा करते थे ।। १३६ ।।

रत्नैर्थनैश्व पशुभि: सस्यैश्वापि पृथग्विधै: ।। १४ ।।

नगरं विषयश्चास्य प्रतिपूर्णस्तदा भवत्‌ |

उनका नगर और राज्य रत्न, धन, पशु तथा भाँति-भाँतिके धान्योंसे उन दिनों भरा-पूरा रहता था ।।

तस्य विषये चाभूत्‌ कृपणो नापि दुर्गतः ।। १५ ।।

व्याधितो वा कृशो वापि तस्मिन्‌ नाभून्नर: क्वचित्‌

उनके राज्यमें कहीं कोई भी कृपण, दुर्गतिग्रस्त, रोगी अथवा दुर्बल मनुष्य नहीं दृष्टिगोचर होता था || १५३६ ।।

सुदक्षिणो मधुरवागनसूयुर्जितिन्द्रिय:

धर्मात्मा चानृशंसश्न विक्रान्तो5<थाविकत्थन: ।। १६ ।।

वह राजा अत्यन्त उदार, मधुरभाषी, किसीके दोष देखनेवाला, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, दयालु और पराक्रमी था। वह कभी अपनी प्रशंसा नहीं करता था || १६ ।।

यज्वा दान्तो मेधावी ब्रह्माण्य: सत्यसड्र: |

चावमन्ता दाता वेदवेदाड़्रपारग: ।। १७ ||

राजा दुर्योधन वेद-वेदाड़ोंका पारजड्गत विद्वान, यज्ञकर्ता, जितेन्द्रिय, मेधावी, ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ था। वह सबको दान देता और किसीका भी अपमान नहीं करता था ।। १७ |।

त॑ नर्मदा देवनदी पुण्या शीतजला शिवा

चकमे पुरुषव्याप्रं स्वेन भावेन भारत ॥। १८ ।।

भारत! एक समय शीतल जलवाली पवित्र एवं कल्याणमयी देवनदी नर्मदा उस पुरुषसिंहको सम्पूर्ण हृदयसे चाहने लगी और उसकी पत्नी बन गयी ।। १८ ।।

तस्यां जज्ञे तदा नद्यां कन्या राजीवलोचना

नाम्ना सुदर्शना राजन्‌ रूपेण सुदर्शना ।। १९ ।।

राजन! उस नदीके गर्भसे राजाके द्वारा एक कमललोचना कन्या उत्पन्न हुई जो नामसे तो सुदर्शना थी ही, रूपसे भी सुदर्शना (सुन्दर एवं दर्शनीय) थी ।।

तादूगूपा नारीषु भूतपूर्वा युधिष्ठिर

दुर्योधनसुता यादूगभवद्‌ वरवर्णिनी ।। २० ।।

युधिष्ठिर! दुर्योधनकी वह सुन्दर वर्णवाली पुत्री जैसी रूपवती थी, वैसी रूप- सौन्दर्यशालिनी स्त्री नारियोंमें पहले कभी नहीं हुई थी || २० ।।

तामग्निश्चकमे साक्षाद्‌ राजकन्यां सुदर्शनाम्‌

भूत्वा ब्राह्मणो राजन्‌ वरयामास तं नृपम्‌ ।। २१ ।।

राजन! राजकन्या सुदर्शनापर साक्षात्‌ अग्निदेव आसक्त हो गये और उन्होंने ब्राह्मणका रूप धारण करके राजासे उस कन्याको माँगा ।। २१ ।।

दरिद्रश्चनासवर्णश्र॒ ममायमिति पार्थिव:

दित्सति सुतां तस्मै तां विप्राय सुदर्शनाम्‌ ।। २२ ।।

राजा यह सोचकर कि एक तो यह दरिद्र है और दूसरे मेरे समान वर्णका नहीं है, अपनी पुत्री सुदर्शनाको उस ब्राह्मणके हाथमें नहीं देना चाहते थे || २२ ।।

ततो<सस्‍्य वितते यज्ञे नष्टो5 भूद्धव्यवाहन:

ततः सुदुःखितो राजा वाक्यमाह द्विजांस्तदा ।। २३ ।।

तब अग्निदेव रुष्ट होकर राजाके आरम्भ हुए यज्ञमेंसे अदृश्य हो गये। इससे राजाको बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने ब्राह्मणोंसे कहा-- ।। २३ ।।

दुष्कृतं मम कि नु स्याद्‌ भवतां वा द्विजर्षभा:

येन नाशं जगामाग्नि: कृतं कुपुरुषेष्विव || २४ ।।

विप्रवरो! मुझसे या आपलोगोंसे कौन-सा ऐसा दुष्कर्म बन गया है जिससे अग्निदेव दुष्ट मनुष्योंके प्रति किये गये उपकारके समान नष्ट हो गये हैं | २४ ।।

हाल्प॑ दुष्कृतं नो$स्ति येनाग्निनाशमागत:

भवतां चाथवा महां तत्त्वेनेतद्‌ विमृश्यताम्‌ ।। २५ ।।

“हमलोगोंका थोड़ा-सा अपराध नहीं है जिससे अग्निदेव अदृश्य हो गये हैं। वह अपराध आपलोगोंका है या मेरा--इसका ठीक-ठीक विचार करें" || २५ ।।

तत्र राज्ञो वच:ः श्रुत्वा विप्रास्ते भरतर्षभ

नियता वाग्यताश्वैव पावकं शरणं ययु: ।। २६ ।।

भरतश्रेष्ठ] राजाकी यह बात सुनकर उन ब्राह्मणोंने शौच-संतोष आदि नियमोंके पालनपूर्वक मौन हो भगवान्‌ अग्निदेवकी शरण ली || २६ ।।

तान्‌ दर्शयामास तदा भगवान्‌ हव्यवाहन:

स्वं रूप॑ दीप्तिमत्‌ कृत्वा शरदर्कसमद्युति: ।। २७ ।॥।

तब भगवान्‌ हव्यवाहनने रातमें अपना तेजस्वी रूप प्रकट करके शरत्कालके सूर्यके सदृश द्युतिमान्‌ हो उन ब्राह्मणोंको दर्शन दिया || २७ ।।

ततो महात्मा तानाह दहनो ब्राह्मणर्षभान्‌ |

वरयाम्यात्मनोअर्थाय दुर्योधनसुतामिति ।। २८ ।।

उस समय महात्मा अग्निने जन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे कहा--“मैं दुर्योधनकी पुत्रीका अपने लिये वरण करता हूँ ॥। २८ ।।

ततस्ते कल्यमुत्थाय तस्मै राज्ञे न्यवेदयन्‌

ब्राह्मणा विस्मिता: सर्वे यदुक्तं चित्रभानुना || २९ ।।

यह सुनकर आश्वर्यचकित हुए सब ब्राह्मणोंने सबेरे उठकर, अग्निदेवने जो कहा था वह सब कुछ राजासे निवेदन किया ।। २९ |।

ततः राजा तत्‌ श्रुत्वा वचन ब्रह्म॒वादिनाम्‌

अवाप्य परम॑ हर्ष तथेति प्राह बुद्धिमान्‌ ।। ३० ।।

ब्रह्मगादी ऋषियोंका यह वचन सुनकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ और उन बुद्धिमान्‌ नरेशने “तथास्तु' कहकर अग्निदेवका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।। ३० ।।

अयाचत त॑ शुल्क॑ भगवन्तं विभावसुम्‌

नित्यं सांनिध्यमिह ते चित्रभानो भवेदिति ।। ३१ ।।

तदनन्तर उन्होंने कन्‍्याके शुल्करूपसे भगवान्‌ अग्निसे याचना की--'चित्रभानो! इस नगरीमें आपका सदा निवास बना रहे” ।। ३१ ।।

तमाह भगवानग्निरेवमस्त्विति पार्थिवम्‌

ततः सांनिध्यमद्यापि माहिष्मत्यां विभावसो: ।। ३२ ।।

यह सुनकर भगवान्‌ अग्निने राजासे कहा, “एवमस्तु (ऐसा ही होगा)”। तभीसे आजतक माहिष्मती नगरीमें अग्निदेवका निवास बना हुआ है ।। ३२ ।।

दृष्टं हि सहदेवेन दिश॑ विजयता तदा

ततस्तां समलंकृत्य कन्यामाहृतवाससम्‌ ।। ३३ |।

ददौ दुर्योधनो राजा पावकाय महात्मने

सहदेवने दक्षिण दिशाकी विजय करते समय वहाँ अग्निदेवको प्रत्यक्ष देखा था। अग्निदेवके वहाँ रहना स्वीकार कर लेनेपर राजा दुर्योधनने अपनी कन्याको सुन्दर वस्त्र पहनाकर नाना प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत करके महात्मा अग्निके हाथमें दे दिया |। ३३ *3॥

प्रतिजग्राह चाग्निस्तु राजकन्यां सुदर्शनाम्‌ ।। ३४ ।।

विधिना वेददृष्टेन वसोर्धारामिवाध्वरे

अग्निने वेदोक्त विधिसे राजकन्या सुदर्शनाको उसी प्रकार ग्रहण किया, जैसे वे यज्ञमें वसुधारा ग्रहण करते हैं ।। ३४ $ ।।

तस्या रूपेण शीलेन कुलेन वपुषा श्रिया ।। ३५ ।।

अभवत्‌ प्रीतिमानग्निर्गर्भे चास्या मनो दधे |

सुदर्शनाके रूप, शील, कुल, शरीरकी आकृति और कान्तिको देखकर अग्निदेव बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसमें गर्भाधान करनेका विचार किया ।। ३५३६ ।।

तस्या: समभवत्‌ पुत्रो नाम्ना55ग्नेय: सुदर्शन: ।। ३६ ।।

सुदर्शनस्तु रूपेण पूर्णेन्दुसद्शोपम:

शिशुरेवाध्यगात्‌ सर्व परं ब्रह्म सनातनम्‌ ।। ३७ ।।

कुछ कालके पश्चात्‌ उसके गर्भसे अग्निके एक पुत्र हुआ जिसका नाम सुदर्शन रखा गया। वह रूपमें पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर था और उसे बचपनमें ही सर्वस्वरूप सनातन परब्रह्मका ज्ञान हो गया था ।।

अथौघवान्‌ नाम नृपो नृगस्थासीत्‌ पितामह:

तस्याथौघवती कन्या पुत्रश्नौघरथो5भवत्‌ ।। ३८ ।।

उन दिनों राजा नृगके पितामह ओघवान्‌ इस पृथ्वीपर राज्य करते थे। उनके ओघवती नामवाली एक कन्या और ओघरथ नामवाला एक पुत्र था || ३८ ।।

तामोघवान्‌ ददौ तस्मै स्वयमोघवतीं सुताम्‌

सुदर्शनाय विदुषे भार्यार्थे देवरूपिणीम्‌ ।। ३९ ।।

ओघवती देवकन्याके समान सुन्दरी थी। ओघवानने अपनी उस पुत्रीको विद्वान्‌ सुदर्शनको पत्नी बनानेके लिये दे दिया || ३९ ।।

गृहस्थाश्रमरतस्तया सह सुदर्शन:

कुरुक्षेत्रेसद्‌ राजन्नोघवत्या समन्वित: ।। ४० ।।

राजन! सुदर्शन उसके साथ गृहस्थ-धर्मका पालन करने लगे। उन्होंने ओधवतीके साथ कुरक्षेत्रमें निवास किया ।। ४० ।।

गृहस्थश्वावजेष्यामि मृत्युमित्येव प्रभो

प्रतिज्ञामकरोद्‌ धीमान्‌ दीप्ततेजा विशाम्पते ।। ४१ ।।

प्रजानाथ! प्रभो! उद्दीप्त तेजवाले उस बुद्धिमान सुदर्शनने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं गृहस्थ-धर्मका पालन करते हुए ही मृत्युकोी जीत लूँगा || ४१ ।।

तामथौघवतीं राजन्‌ पावकसुतो<ब्रवीत्‌

अतिथे: प्रतिकूलं ते कर्तव्यं कथंचन ।। ४२ ।।

राजन्‌! अग्निकुमार सुदर्शनने ओघवतीसे कहा--'देवि! तुम्हें अतिथिके प्रतिकूल किसी तरह कोई कार्य नहीं करना चाहिये” ।। ४२ ।।

येन येन तुष्येत नित्यमेव त्वयातिथि:

अप्यात्मन: प्रदानेन ते कार्या विचारणा ।। ४३ ।।

“जिस-जिस वस्तुसे अतिथि संतुष्ट हो, वह वस्तु तुम्हें सदा ही उसे देनी चाहिये। यदि अतिथिके संतोषके लिये तुम्हें अपना शरीर भी देना पड़े तो मनमें कभी अन्यथा विचार करना ।। ४३ ||

एतद्‌ व्रतं मम सदा हृदि सम्परिवर्तते

गृहस्थानां सुश्रोणि नातिथेर्विद्यते परम्‌ ।। ४४ ।।

'सुन्दरी! अतिथि-सेवाका यह व्रत मेरे हृदयमें सदा स्थित रहता है। गृहस्थोंके लिये अतिथि-सेवासे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है ।। ४४ ।।

प्रमाणं यदि वामोरु वचस्ते मम शो भने

इदं वचनमव्यग्रा हृदि त्वं धारये: सदा ।। ४५ ।।

“वामोरु शोभने! यदि तुम्हें मेरा वचन मान्य हो तो मेरी इस बातको शान्त भावसे सदा अपने हृदयमें धारण किये रहना ।। ४५ ।।

निष्क्रान्ते मयि कल्याणि तथा संनिहिते5नघे

नातिथिस्ते5वमन्तव्य: प्रमाणं यद्यहं तव ।। ४६ ।।

“कल्याणि! निष्पाप! यदि तुम मुझे आदर्श मानती हो तो मैं घरमें रहूँ या घरसे कहीं दूर निकल जाऊँ, तुम्हें किसी भी दशामें अतिथिका अनादर नहीं करना चाहिये' || ४६ ।।

तमब्रवीदोघवती तथा मुर्धश्नि कृताञ्जलि:

मे त्वद्गबचनात्‌ किंचिन्न कर्तव्यं कथंचन ।। ४७ ।।

यह सुनकर ओघवतीने दोनों हाथ जोड़ मस्तकमें लगाकर कहा--“कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो मैं आपकी आज्ञासे किसी कारणवश कर सकूँ” ।। ४७ ।।

जिगीषमाणस्तु गृहे तदा मृत्यु: सुदर्शनम्‌

पृष्ठतोडन्वगमद्‌ू राजनू्‌ रन्ध्रान्वेषी तदा सदा ।। ४८ ।।

राजन! उन दिनों गृहस्थ-धर्ममें स्थित हुए सुदर्शनको जीतनेकी इच्छासे मृत्यु उनका छिद्र खोजती हुई सदा उनके पीछे लगी रहती थी ।। ४८ ।।

इध्मार्थ तु गते तस्मिन्नग्निपुत्रे सुदर्शने

अतिर्थित्राह्मण: श्रीमांस्तामाहौघवती तदा ।। ४९ ||

एक दिन अम्निपुत्र सुदर्शन जब समिधा लानेके लिये बाहर चले गये, उसी समय उनके घरपर एक तेजस्वी ब्राह्मण अतिथि आया और ओघवतीसे बोला-- || ४९ ||

आतिदथ्यं कृतमिच्छामि त्वयाद्य वरवर्णिनि

प्रमाणं यदि धर्मस्ते गृहस्थाभ्रमसम्मत: ।। ५० ।।

“वरवर्णिनि! यदि तुम गृहस्थसम्मत धर्मको मान्य समझती हो तो आज मैं तुम्हारे द्वारा किया गया आतिथ्यसत्कार ग्रहण करना चाहता हूँ || ५० ।।

इत्युक्ता तेन विप्रेण राजपुत्री यशस्विनी

विधिना प्रतिजग्राह वेदोक्तेन विशाम्पते ।। ५१ ।।

प्रजानाथ! उस ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर यशस्विनी राजकुमारी ओघवतीने वेदोक्त विधिसे उसका पूजन किया ।। ५१ ।।

आसन चैव पाद्यं तस्मै दत्त्वा द्विजातये |

प्रोवाचौघवती विप्रं केनार्थ: कि ददामि ते ।। ५२ ।।

ब्राह्मणको बैठनेके लिये आसन और पैर धोनेके लिये जल देकर ओघवतीने उससे पूछा--“विप्रवर! आपको किस वस्तुकी आवश्यकता है? मैं आपकी सेवामें क्‍या भेंट करूँ?” ।। ५२ ।।

तामब्रवीत्‌ ततो विप्रो राजपुत्रीं सुदर्शनाम्‌

त्वया ममार्थ: कल्याणि निर्विशड्कैतदाचर || ५३ ।।

तब ब्राह्मणने दर्शनीय सौन्दर्यसे सुशोभित राजकुमारी ओघवतीसे कहा--“कल्याणि! मुझे तुमसे ही काम है। तुम नि:शंक होकर मेरा यह प्रिय कार्य करो ।। ५३ ।।

यदि प्रमाणं धर्मस्ते गृहस्थाअ्रमसम्मत:

प्रदानेनात्मनो राज्ञि कर्तुमरहसि मे प्रियम्‌ ।। ५४ ।।

“रानी! यदि तुम्हें गृहस्थसम्मत धर्म मान्य है तो मुझे अपना शरीर देकर मेरा प्रिय कार्य करना चाहिये” ।। ५४ ।।

तया छन्‍्द्यमानो<न्यैरीप्सितैर्नूपकन्यया

नान्यमात्मप्रदानात्‌ तस्या वत्रे वरं द्विज: ।। ५५ ।।

राजकन्याने दूसरी कोई अभीष्ट वस्तु माँगनेके लिये उस अतिथिसे बारंबार अनुरोध किया, किंतु उस ब्राह्मणने उसके शरीर-दानके सिवा और कोई अभिलषित पदार्थ उससे नहीं माँगा || ५५ |।

सा तु राजसुता स्मृत्वा भर्तुर्वचनमादित:

तथेति लज्जमाना सा तमुवाच द्विजर्षभम्‌ ।। ५६ ।।

तब राजकुमारीने पहले कहे हुए पतिके वचनको याद करके लजाते-लजाते उस द्विजश्रेष्ठठे कहा--“अच्छा, आपकी आज्ञा स्वीकार है” || ५६ ।।

ततो विहस्य विप्रर्षि: सा चैवाथ विवेश

संस्मृत्य भर्तुर्वचनं गृहस्थाश्रमकाड्क्षिण: ।। ५७ ।।

गृहस्थाश्रम-धर्मके पालनकी इच्छा रखनेवाले पतिकी कही हुई बातको स्मरण करके जब उसने ब्राह्मणके समक्ष 'हाँ' कर दिया, तब उस विप्र ऋषिने मुसकराकर ओघवतीके साथ घरके भीतर प्रवेश किया ।। ५७ ।।

अथेध्यानमुपादाय पावकिरुपागमत्‌

मृत्युना रौद्रभावेन नित्यं बन्धुरिवान्वित: ।। ५८ ।।

इतनेहीमें अग्निकुमार सुदर्शन समिधा लेकर लौट आये। मृत्यु क्रूर भावनासे सदा उनके पीछे लगी रहती थी, मानो कोई स्नेही बन्धु अपने प्रिय बन्धुके पीछे-पीछे चल रहा हो || ५८ ।।

ततस्त्वाश्रममागम्य पावकसुतस्तदा

तां व्याजहारौघवतीं क्वासि यातेति चासकृत्‌ ।। ५९ ।।

आश्रमपर पहुँचकर फिर अग्निपुत्र सुदर्शन अपनी पत्नी ओघवतीको बारंबार पुकारने लगे--'देवि! तुम कहाँ चली गयी?” ।। ५९ ।।

तस्मै प्रतिवच: सा तु भरत्रें प्रददौ तदा

कराभ्यां तेन विप्रेण स्पृष्टा भर्तुव्॒ता सती ।। ६० ।।

उच्छिष्टास्मीति मन्‍्वाना लज्जिता भर्तुरिव

तूष्णी भूताभवत्‌ साध्वी चोवाचाथ किंचन ।। ६१ ।।

परंतु ओधवतीने उस समय अपने पतिको कोई उत्तर नहीं दिया। अतिथिरूपमें आये हुए ब्राह्मणने अपने दोनों हाथोंसे उसे छू दिया था। इससे वह सती-साध्वी पतिव्रता अपनेको दूषित मानकर अपने स्वामीसे भी लज्जित हो गयी थी; इसीलिये वह साध्वी चुप हो गयी। कुछ भी बोल सकी ।। ६०-६१ ।।

अथ तां पुनरेवेदं प्रोवाच सुदर्शन:

क्व सा साध्वी क्‍्व सा याता गरीय: किमतो मम ।। ६२ ।।

पतिव्रता सत्यशीला नित्यं चैवार्जवे रता

कथ्थ॑ प्रत्युदेत्यद्य स्मपमाना यथा पुरा ।। ६३ ।।

अब सुदर्शन फिर पुकार-पुकारकर इस प्रकार कहने लगे--“मेरी वह साध्वी पत्नी कहाँ है? वह सुशीला कहाँ चली गयी? मेरी सेवासे बढ़कर कौन गुरुतर कार्य उसपर पड़ा। वह पतिव्रता, सत्य बोलनेवाली और सदा सरलभावसे रहनेवाली है। आज पहलेकी ही भाँति मुसकराती हुई वह मेरी अगवानी क्यों नहीं कर रही है?” ।। ६२-६३ ।।

उटजस्थस्तु तं॑ विप्र: प्रत्युवाच सुदर्शनम्‌

अतिथ्थिं विद्धि सम्प्राप्तं ब्राह्मणं पावके माम्‌ ।। ६४ ।।

यह सुनकर आश्रमके भीतर बैठे हुए ब्राह्मणने सुदर्शनको उत्तर दिया--“अग्निकुमार! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं ब्राह्मण हूँ और तुम्हारे घरपर अतिथिके रूपमें आया हूँ ।। ६४ ।।

अनया हनन्‍्द्यमानो*हं भार्यया तव सत्तम |

तैस्तैरतिथिसत्कारैर््रेद्य॒न्नेषा वृता मया ॥। ६५ ।।

'साधुशिरोमणे! तुम्हारी इस पत्नीने अतिथि-सत्कारके द्वारा मेरी इच्छा पूर्ण करनेका वचन दिया है। ब्रह्मन! तब मैंने इसे ही वरण कर लिया है ।। ६५ ।।

अनेन विधिना सेयं मामर्च्छति शुभानना

अनुरूप यदत्रान्यत्‌ तद्‌ भवान्‌ कर्तुमहति ।। ६६ ।।

“इसी विधिके अनुसार यह सुमुखी इस समय मेरी सेवामें उपस्थित हुई है। अब यहाँ तुम्हें दूसरा जो कुछ उचित प्रतीत हो, वह कर सकते हो” ।। ६६ ।।

कूटमुद्गरहस्तस्तु मृत्युस्तं वै समन्वगात्‌

हीनप्रतिज्ञमत्रैनं वधिष्यामीति चिन्तयन्‌ ।। ६७ ।।

इसी समय मृत्यु हाथमें लोहदण्ड लिये सुदर्शनके पीछे आकर खड़ी हो गयी। वह सोचती थी कि अब तो यह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ बैठेगा। इसलिये इसे यहीं मार डालूँगी || ६७ ।।

सुदर्शनस्तु मनसा कर्मणा चक्षुषा गिरा

त्यक्तेर्ष्यस्त्यक्तमन्युश्व॒ स्मयमानो<5ब्रवीदिदम्‌ ।। ६८ ।।

परंतु सुदर्शन मन, वाणी, नेत्र और क्रियासे भी ईर्ष्या तथा क्रोधका त्याग कर चुके थे। वे हँसते-हँसते यों बोले-- ।। ६८ ।।

सुरतं ते<स्तु विप्राग्रय प्रीतिर्हि परमा मम

गृहस्थस्य हि धर्मो5ग्रय: सम्प्राप्तातिथिपूजनम्‌ ।। ६९ ।।

“विप्रवर! आपकी सुरत कामनापूर्ण हो। इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता है; क्योंकि घरपर आये हुए अतिथिका पूजन करना गृहस्थके लिये सबसे बड़ा धर्म है ।। ६९ ।।

अतिथि: पूजितो यस्य गृहस्थस्य तु गच्छति

नान्यस्तस्मात्‌ परो धर्म इति प्राहुर्मनीषिण: || ७० ।।

“जिस गृहस्थके घरपर आया हुआ अतिथि पूजित होकर जाता है उसके लिये उससे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है--ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं || ७० ।।

प्राणा हि मम दाराश्न यच्चान्यद्‌ विद्यते वसु

अतिथिभ्यो मया देयमिति मे व्रतमाहितम्‌ ।। ७१ ।।

“मेरे प्राण, मेरी पत्नी तथा मेरे पास और जो कुछ धन-दौलत हैं, वह सब मेरी ओरसे अतिथियोंके लिये निछावर है, ऐसा मैंने व्रत ले रखा है ।। ७१ ।।

निःसंदिग्धं॑ यथा वाक्यमेतन्मे समुदाह्ृतम्‌

तेनाहं विप्र सत्येन स्वयमात्मानमालभे ।। ७२ ।।

“ब्रह्मन्‌! मैंने जो यह बात कही है, इसमें संदेह नहीं है। इस सत्यको सिद्ध करनेके लिये मैं स्वयं ही अपने शरीरको छूकर शपथ खाता हूँ || ७२ ।।

पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्न पठचमम्‌

बुद्धिरात्मा मन: कालो दिशश्वैव गुणा दश ।। ७३ ।।

नित्यमेव हि पश्यन्ति देहिनां देहसंश्रिता:

सुकृतं दुष्कृतं चापि कर्म धर्मभूतां वर || ७४ ।।

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण! पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, नेत्र, बुद्धि, आत्मा, मन, काल और दिशाएँ--से दस गुण (वस्तुएँ) सदा ही प्राणियोंके शरीरमें स्थित होकर उनके पुण्य और पापकर्मको देखा करते हैं || ७३-७४ ।।

यथैषा नानृता वाणी मयाद्य समुदीरिता

तेन सत्येन मां देवा: पालयन्तु दहन्तु वा || ७५ ।।

“आज मेरी कही हुई यह वाणी यदि मिथ्या नहीं है तो इस सत्यके प्रभावसे देवता मेरी रक्षा करें, अथवा मिथ्या होनेपर मुझे जलाकर भस्म कर डालें” ।। ७५ ।।

ततो नाद: समभवद्‌ दिक्षु सर्वासु भारत

असकृत्‌ सत्यमित्येवं नैतन्मिथ्येति सर्वतः ।। ७६ ।।

भरतनन्दन! सुदर्शनके इतना कहते ही सम्पूर्ण दिशाओंसे बारंबार आवाज आने लगी -- तुम्हारा कथन सत्य है। इसमें झूठका लेश भी नहीं है” || ७६ ।।

उटजात्‌ तु ततस्तस्मान्निश्लक्राम वै द्विज:

वपुषा द्यां भूमिं व्याप्य वायुरिवोद्यत: || ७७ ।।

तत्पश्चात्‌ वह ब्राह्मण उस आश्रमसे बाहर निकला। वह अपने शरीरसे वायुकी भाँति पृथ्वी और आकाशको व्याप्त करके स्थित हो गया || ७७ ।।

स्वरेण विप्र: शैक्षेण त्रील्लॉकाननुनादयन्‌

उवाच चैन धर्मज्ञ पूर्वमामन्त्रय नामत: ।। ७८ ।।

शिक्षाके अनुकूल उदात्त आदि स्वरसे तीनों लोकोंको प्रतिध्वनित करते हुए उस ब्राह्मणने पहले धर्मज्ञ सुदर्शनको सम्बोधित करके उससे इस प्रकार कहा-- ।। ७८ ।।

धर्मोडहमस्मि भद्ठर ते जिज्ञासार्थ तवानघ

प्राप्त: सत्यं ते ज्ञात्वा प्रीतिर्मे परमा त्वयि ।। ७९ ।।

“निष्पाप सुदर्शन! तुम्हारा कल्याण हो। मैं धर्म हूँ और तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिये यहाँ आया हूँ। तुममें सत्य है--यह जानकर मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ ।। ७९ ।।

विजिततश्न त्वया मृत्युर्यो5यं त्वामनुगच्छति

रन्ध्रान्वेषी तव सदा त्वया धृत्या वशी कृत: ।। ८० ।।

“तुमने इस मृत्युको, जो सदा तुम्हारा छिद्र ढूँढ़ती हुई तुम्हारे पीछे लगी रहती थी, जीत लिया। तुमने अपने धैर्यसे मृत्युको वशमें कर लिया है || ८० ।।

चास्ति शक्तिस्त्रैलोक्ये कस्यचित्‌ पुरुषोत्तम

पतिव्रतामिमां साध्वीं तवोद्वीक्षितुमप्युत ।। ८१ ।।

“पुरुषोत्तम! तीनों लोकोंमें किसीकी भी ऐसी शक्ति नहीं है जो तुम्हारी इस सती-साध्वी पतिव्रता पत्नीकी ओर कलुषित भावनासे आँख उठाकर देख भी सके' ।। ८१ ।।

रक्षिता त्वदगुणैरेषा पतिव्रतगुणैस्तथा

अधृष्या यदियं ब्रूयात्‌ तथा तन्नान्यथा भवेत्‌ ॥। ८२ ।।

“यह तुम्हारे गुणोंसे तथा अपने पातित्रत्यके गुणोंद्वारा भी सदा सुरक्षित है। कोई भी इसका पराभव नहीं कर सकता। यह जो बात अपने मुहसे निकालेगी वह सत्य ही होगी।

मिथ्या नहीं हो सकती ।। ८२ ।।

एषा हि तपसा स्वेन संयुक्ता ब्रह्म॒वादिनी

पावनार्थ लोकस्य सरिच्छेष्ठा भविष्यति ।। ८३ ।।

अर्धेनौधवती नाम त्वामर्धेनानुयास्यति

शरीरेण महाभागा योगो हाुस्या वशे स्थित: ।। ८४ ।।

“अपने तपोबलसे युक्त यह ब्रह्मवादिनी नारी संसारको पवित्र करनेके लिये अपने आधे शरीरसे ओघवती नामवाली श्रेष्ठ नदी होगी और आधे शरीरसे यह परम सौभाग्यवती सती तुम्हारी सेवामें रहेगी। योग सदा इसके वशमें रहेगा || ८३-८४ ।।

अनया सह लोकांश्व गन्तासि तपसार्जितान्‌

यत्र नावृत्तिमभ्येति शाश्वतांस्तानू सनातनान्‌ ।। ८५ ।।

“तुम भी इसके साथ अपनी तपस्यासे प्राप्त हुए उन सनातन लोकोंमें जाओगे जहाँसे फिर इस संसारमें लौटना नहीं पड़ता || ८५ ।।

अनेन चैव देहेन लोकांस्त्वमभिपत्स्यसे

निर्जितश्च त्वया मृत्युरैश्वर्य तवोत्तमम्‌ ।। ८६ ।।

“तुम इसी शरीरसे उन दिव्य लोकोंमें जाओगे; क्योंकि तुमने मृत्युको जीत लिया है और तुम्हें उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त है ।। ८६ ।।

पज्चभूतान्यतिक्रान्त: स्ववीर्याच्च मनोजव:

गृहस्थधर्मेणानेन कामक्रोधौ ते जिती ।। ८७ ।।

“अपने पराक्रमसे पञ्चभूतोंको लाँधचकर तुम मनके समान वेगवान्‌ हो गये हो। इस गृहस्थ-धर्मके आचरणसे ही तुमने काम और क्रोधपर विजय पा ली है” ।। ८७ ।।

स्‍्नेहो रागश्न तन्द्री मोहो द्रोहश्च॒ केवल:

तव शुश्रूषया राजन्‌ राजपुत्र्या विनिर्जिता: ।। ८८ ।।

'राजन्‌! राजकुमारी ओघवतीने भी तुम्हारी सेवाके बलसे स्नेह (आसक्ति), राग, आलस्य, मोह और द्रोह आदि दोषोंको जीत लिया है” ।। ८८ ।।

भीष्म उवाच

शुक्लानां तु सहस्रेण वाजिनां रथमुत्तमम्‌

युक्त प्रगृह्दा भगवान्‌ वासवो5प्याजगाम तम्‌ ।। ८९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर भगवान्‌ इन्द्र भी श्वेत रंगके एक हजार घोड़ोंसे जुते हुए उत्तम रथको लेकर उनसे मिलनेके लिये आये ।। ८९ ।।

मृत्युरात्मा लोकाश्न जिता भूतानि पञ्च

बुद्धि: कालो मनो व्योम कामक्रोधी तथैव ।। ९० ।।

इस प्रकार सुदर्शनने अतिथि-सत्कारके पुण्यसे मृत्यु, आत्मा, लोक, पञ्चभूत, बुद्धि, काल, मन, आकाश, काम और क्रोधको भी जीत लिया ।। ९० ||

तस्माद्‌ गृहाश्रमस्थस्य नान्यद्‌ दैवतमस्ति वै

ऋते5तिर्थिं नरव्यात्र मनसैतद्‌ विचारय ।। ९१ ।।

पुरुषसिंह! इसलिये तुम अपने मनमें यह निश्चित विचार कर लो कि गृहस्थ पुरुषके लिये अतिथिको छोड़कर दूसरा कोई देवता नहीं है ।। ९१ ।।

अतिथि: पूजितो यद्धि ध्यायते मनसा शुभम्‌ |

तत्‌ क्रतुशतेनापि तुल्यमाहुर्मनीषिण: ।। ९२ ।।

यदि अतिथि पूजित होकर मन-ही-मन गृहस्थके कल्याणका चिन्तन करे तो उससे जो फल मिलता है उसकी सौ यज्ञोंसे भी तुलना नहीं हो सकती अर्थात्‌ सौ यज्ञोंसे भी बढ़कर है। ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है || ९२ ।।

पात्र त्वतिथिमासाद्य शीलादढूयं यो पूजयेत्‌

दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ।। ९३ ।।

जो गृहस्थ सुपात्र और सुशील अतिथिको पाकर उसका यथोचित सत्कार नहीं करता, वह अतिथि उसे अपना पाप दे उसका पुण्य लेकर चला जाता है ।। ९३ ।।

एतत्‌ ते कथित पुत्र मया55ख्यानमनुत्तमम्‌

यथा हि विजितो मृत्युर्गृहस्थेन पुराभवत्‌ ।। ९४ ।।

बेटा! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार पूर्वकालमें गृहस्थने जिस प्रकार मृत्युपर विजय पायी थी, वह उत्तम उपाख्यान मैंने तुमसे कहा ।। ९४ ।।

धन्यं यशस्यमायुष्यमिदमाख्यानमुत्तमम्‌ |

बुभूषताभिमन्तव्यं सर्वदुश्चरितापहम्‌ ।। ९५ ।।

यह उत्तम आख्यान धन, यश और आयुकी प्राप्ति करानेवाला है। इससे सब प्रकारके दुष्कर्मोंका नाश हो जाता है, अतः अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको सदा ही इसके प्रति आदरबुद्धि रखनी चाहिये ।। ९५ ।।

इदं यः कथयेद्‌ विद्वानहन्यहनि भारत

सुदर्शनस्य चरितं पुण्याँलल्‍लोकानवाप्रुयात्‌ ।। ९६ ।।

भरतनन्दन! जो विद्दान्‌ सुदर्शनके इस चरित्रका प्रतिदिन वर्णन करता है वह पुण्यलोकोंको प्राप्त होता है- ।। ९६ ।।

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सुदर्शनोपाख्याने द्वितीयो<5ध्याय: ॥॥ || इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें सुदर्शनका उपाख्यानविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥। ॥।

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- इस अध्यायमें वर्णित चरित्र असाधारण शक्तिसम्पन्न पुरुषोंके हैं। आजकलके साधारण मनुष्योंको इसके उस अंशका अनुकरण नहीं करना चाहिये जिसमें स्त्रीके लिये अपने शरीर-प्रदानकी बात कही गयी है। अतिथिको अन्न, जल, बैठनेके लिये आसन, रहनेके लिये स्थान, सोनेके लिये बिस्तर और वस्त्र आदि वस्तुएँ अपनी शक्तिके अनुसार समर्पित करनी चाहिये। मीठे वचनोंद्वारा उसका आदर-सत्कार भी करना चाहिये। इतना ही इस अध्यायका तात्पर्य है।

तृतीयो<थध्याय:

विश्वामित्रको ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति कैसे हुई--इस विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न

युधिछिर उवाच

ब्राह्माण्यं यदि दुष्प्राप्यं त्रिभिर्वर्ण्नराधिप

कथें प्राप्तं महाराज क्षत्रियेण महात्मना ।। ।।

विश्वामित्रेण धर्मात्मन्‌ ब्राह्मणत्वं नरर्षभ |

श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन तन्मे ब्रूहि पितामह ।। ।।

युधिष्ठिरने पूछा--महाराज! नरेश्वर! यदि अन्य तीन वर्णोके लिये ब्राह्मणत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है तो क्षत्रियकुलमें उत्पन्न महात्मा विश्वामित्रने कैसे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया? धर्मात्मन्‌! नरश्रेष्ठ पितामह! इस बातको मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ, आप मुझे बताइये ।। १-२ ।।

तेन हामितवीर्येण वसिष्ठस्य महात्मन:

हतं॑ पुत्रशतं सद्यस्तपसापि पितामह ।। ।।

पितामह! अमित पराक्रमी विश्वामित्रने अपनी तपस्याके प्रभावसे महात्मा वसिष्ठके सौ पुत्रोंको तत्काल नष्ट कर दिया था ।। ।।

यातुधानाश्व बहवो राक्षसास्तिग्मतेजस:

मन्युना5<विष्टदेहेन सृष्टा: कालान्तकोपमा: ।। ।।

उन्होंने क्रोधके आवेशमें आकर बहुत-से प्रचण्ड तेजस्वी यातुधान एवं राक्षस रच डाले थे जो काल और यमराजके समान भयानक थे ।। ।।

महान्‌ कुशिकवंशकश्र ब्रह्मर्षिशतसंकुल:

स्थापितो नरलोके<स्मिन्‌ विद्वद्ब्राह्मणसंस्तुत: ।। ।।

इतना ही नहीं, इस मनुष्य-लोकमें उन्होंने उस महान्‌ कुशिक-वंशको स्थापित किया जो अब सैकड़ों ब्रह्मर्षियोंसे व्याप्त और दिद्वान ब्राह्मणोंसे प्रशंसित है ।।

ऋचीकस्यात्मजश्नैव शुन:शेपो महातपा:

विमोक्षितो महासत्रात्‌ पशुतामप्युपागत: ।। ।।

ऋचीक (अजीगर्त) का महातपस्वी पुत्र शुनःशेप एक यज्ञमें यज्ञ-पशु बनाकर लाया गया था; किंतु विश्वामित्रजीने उस महायज्ञसे उसको छुटकारा दिला दिया ।। ।।

हरिश्रन्द्रक्रतौ देवांस्तोषयित्वा55त्मतेजसा

पुत्रतामनुसम्प्राप्तो विश्वामित्रस्य धीमत: ।। ।।

हरिश्वन्द्रके उस यज्ञमें अपने तेजसे देवताओंको संतुष्ट करके विश्वामित्रने शुन:शेपको छुड़ाया था; इसलिये वह बुद्धिमान विश्वामित्रके पुत्रभावको प्राप्त हो गया ।। ।।

नाभिवादयते ज्येष्ठं देवरातं नराधिप

पुत्रा: पज्चाशदेवापि शप्ता: श्वपचतां गता: ॥। ।॥।

नरेश्वर! शुनः:शेप देवताओंके देनेसे देवरात नामसे प्रसिद्ध हो विश्वामित्रका ज्येष्ठ पुत्र हुआ। उसके छोटे भाई--विश्वामित्रके अन्य पचास पुत्र उसे बड़ा मानकर प्रणाम नहीं करते थे; इसलिये विश्वामित्रके शापसे वे सब-के-सब चाण्डाल हो गये ।। ।।

त्रिशड्कुर्बन्धुभिमक्त ऐक्ष्वाक: प्रीतिपूर्वकम्‌

अवाक्‌शिरा दिवं नीतो दक्षिणामाश्रितो दिशम्‌ ।। ।।

जिस इक्ष्वाकुवंशी त्रिशंकुको भाई-बन्धुओंने त्याग दिया था और जब वह स्वर्गसे भ्रष्ट होकर दक्षिण दिशामें नीचे सिर किये लटक रहा था, तब विश्वामित्रजीने ही उसे प्रेमपूर्वक स्वर्गलोकमें पहुँचाया था ।। |।

विश्वामित्रस्यथ विपुला नदी देवर्षिसेविता

कौशिकी शिवा पुण्या ब्रद्मर्षिसुरसेविता || १० ।।

देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों और देवताओंसे सेवित, पवित्र, मंगलकारिणी एवं विशाल कौशिकी नदी विश्वामित्रके ही प्रभावसे प्रकट हुई है || १० ।।

तपोविधघ्नकरी चैव पञ्चचूडा सुसम्मता

रम्भा नामाप्सरा: शापाद्‌ यस्य शैलत्वमागता ।। ११ ।।

पाँच चोटीवाली लोकप्रिय रम्भा नामक अप्सरा विश्वामित्रजीकी तपस्यामें विघ्न डालने गयी थी, जो उनके शापसे पत्थर हो गयी ।। ११ ।।

तथैवास्य भयाद्‌ बद्ध्वा वसिष्ठ: सलिले पुरा

आत्मानं मज्जयन्‌ श्रीमान्‌ विपाश: पुनरुत्थित: ।। १२ ।।

तदाप्रभृति पुण्या हि विपाशाभून्महानदी

विख्याता कर्मणा तेन वसिष्ठस्य महात्मन: ।। १३ ।।

पूर्वकालमें विश्वामित्रके ही भयसे अपने शरीरको रस्सीसे बाँधकर श्रीमान्‌ वसिष्ठजी अपने-आपको एक नदीके जलमें डुबो रहे थे; परंतु उस नदीके द्वारा पाशरहित (बन्धनमुक्त) हो पुन: ऊपर उठ आये। महात्मा वसिष्ठके उस महान्‌ कर्मसे विख्यात हो वह पवित्र नदी उसी दिनसे “विपाशा” कहलाने लगी ।। १२-१३ ।।

वाम्भिश्न भगवान्‌ येन देवसेनाग्रग: प्रभु:

स्तुतः प्रीतमना श्चासीच्छापाच्चैनममुज्चत ।। १४ ।।

वाणीद्वारा स्तुति करनेपर उन विश्वामित्रपर सामर्थ्य शाली भगवान्‌ इन्द्र प्रसन्न हो गये थे और उनको शापमुक्त कर दिया था ।। १४ ।।

ध्रुवस्यौत्तानपादस्य ब्रद्मर्षीणां तथैव

मध्यं ज्वलति यो नित्यमुदीचीमाश्रितो दिशम्‌ ।। १५ ।।

तस्यैतानि कर्माणि तथान्यानि कौरव

क्षत्रियस्येत्यतो जातमिदं कौतूहलं मम ।। १६ ।।

जो विश्वामित्र उत्तानपादके पुत्र ध्रुव तथा ब्रह्मर्षियों (सप्तर्षियों)-के बीचमें उत्तर दिशाके आकाशका आश्रय ले तारारूपसे सदा प्रकाशित होते रहते हैं, वे क्षत्रिय ही रहे हैं। कुरुनन्दन! उनके ये तथा और भी बहुत-से अदभुत कर्म हैं, उन्हें याद करके मेरे हृदयमें यह जाननेका कौतूहल उत्पन्न हुआ है कि वे ब्राह्मण कैसे हो गये? ।। १५-१६ ।।

किमेतदिति तत्त्वेन प्रब्रूहि भरतर्षभ

देहान्तरमनासाद्य कथं ब्राह्मणो&भवत्‌ ।। १७ ।।

भरतश्रेष्ठ) यह क्या बात है? इसे ठीक-ठीक बताइये। विश्वामित्रजी दूसरा शरीर धारण किये बिना ही कैसे ब्राह्मण हो गये? ।। १७ ।।

एतत्‌ तत्त्वेन मे तात सर्वमाख्यातुमर्हसि

मतड़स्य यथातत्त्वं तथैवैतद्‌ वदस्व मे ।। १८ ।।

तात! यह सब आप यथार्थरूपसे बतानेकी कृपा करें। जैसे मतड़को तपस्या करनेसे भी ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हुआ, वैसी ही बात विश्वामित्रके लिये क्‍यों नहीं हुई? यह मुझे बताइये ।। १८ ।।

स्थाने मतड़ो ब्राह्म॒ण्यं नालभद्‌ भरतर्षभ

चण्डालयोनौ जातो हि कथं ब्राह्मण्यमाप्तवान्‌ ।। १९ ।।

भरतश्रेष्ठ! मतड़को जो ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हुआ, वह उचित ही था; क्योंकि उसका जन्म चाण्डालकी योनिमें हुआ था; परंतु विश्वामित्रने कैसे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया? ।। १९ |।

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विश्वामित्रोपाख्याने तृतीयो5ध्याय: ॥। ।॥। इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वनें विशज्वामित्रका उपाख्यानविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥।

ऑपन--माजल बछ। जि

चतुथों5 ध्याय:

आजमीढके वंशका वर्णन तथा विश्वामित्रके जन्मकी कथा और उनके पुत्रोंके नाम

भीष्म उवाच

श्रूयतां पार्थ तत्त्वेन विश्वामित्रो यथा पुरा

ब्राह्मणत्वं गतस्तात ब्रद्यूर्षित्वं तथैव ।। ।।

भीष्मजीने कहा--तात! कुन्तीनन्दन! पूर्वकालमें विश्वामित्रजीने जिस प्रकार ब्राह्मणत्व तथा ब्रह्मर्षित्व प्राप्त किया, वह प्रसंग यथार्थरूपसे बता रहा हूँ, सुनो ।।

भरतस्यान्वये चैवाजमीढो नाम पार्थिव:

बभूव भरतश्रेष्ठ यज्वा धर्मभूतां वर: ।। ।।

भरतवंशमें अजमीढ नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। भरतश्रेष्ठ) वे राजा अजमीढ यज्ञकर्ता एवं धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ थे ।। ।।

तस्य पुत्रो महानासीज्जह्लुर्नाम नरेश्वर:

दुहितृत्वमनुप्राप्ता गड़ा यस्य महात्मन: ।। ।।

उनके पुत्र महाराज जह्लु हुए, जिन महात्मा नरेशके समीप जाकर गंगाजी पुत्रीभावको प्राप्त हुई थीं ।। ।।

तस्यात्मजस्तुल्यगुण: सिन्धुद्वीपो महायशा:

सिन्धुद्वीपाच्च राजर्षिबलाकाश्वो महाबल: ।। ।।

जह्के पुत्रका नाम सिन्धुद्वीप था, जो पिताके समान ही गुणवान्‌ और महायशस्वी थे।

सिन्धुद्वीपसे महाबली राजा बलाकाश्वका जन्म हुआ था ।। ।।

वल्लभस्तस्य तनय: साक्षाद्धर्म इवापर: |

कुशिकस्तस्य तनय: सहस्राक्षसमद्युति: ।। ।।

बलाकाश्च॒का पुत्र वललभनामसे प्रसिद्ध हुआ, जो साक्षात्‌ दूसरे धर्मके समान था। वल्लभके पुत्र कुशिक हुए, जो इन्द्रके समान तेजस्वी थे ।। ।।

कुशिकस्यात्मज: श्रीमान्‌ गाधिनाम जनेश्वर:

अपुत्र: प्रसवेनार्थी वनवासमुपावसत्‌ ।। ।।

कुशिकके पुत्र महाराज गाधि हुए, जो दीर्घकालतक पुत्रहीन रह गये। तब संतानकी इच्छासे पुण्यकर्म करनेके लिये वे वनमें रहने लगे ।। ।।

कन्या जज्ञे सुतात्‌ तस्य वने निवसत: सतः

नाम्ना सत्यवती नाम रूपेणाप्रतिमा भुवि ॥। ।।

वहाँ रहते समय सोमयाग करनेसे राजाके एक कन्या हुई, जिसका नाम सत्यवती था। भूतलपर कहीं भी उसके रूप और सौन्दर्यकी तुलना नहीं थी ।। ।।

गीताप्रेस, गोरखपुर

गा $/॥६८-0: ५4

शिव-पार्वती

बालकको जिलानेकी प्रतिज्ञा भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा उत्तराके मृत

ह-ल-.

हा

पार्ववीजी भगवान्‌ शडकरको शरीरधारिणी समस्त नदियोंका परिचय दे रही हैं

|

/ 8)

ञ्क

शा गीताप्रेस, गोरखपुर

युधिछ्ठिरका अपने आश्रित कुत्तेके लिये त्याग

पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णु

तां वच्रे भार्गव: श्रीमांक्ष्यवनस्यथात्मसम्भव:

ऋचीक इति विख्यातो विपुले तपसि स्थित: ।। ।।

उन दिनों च्यवनके पुत्र भृगुवंशी श्रीमान्‌ ऋचीक विख्यात तपस्वी थे और बड़ी भारी तपस्यामें संलग्न रहते थे। उन्होंने राजा गाधिसे उस कन्याको माँगा ।। ।।

सतां प्रददौ तस्मै ऋचीकाय महात्मने

दरिद्र इति मत्वा वै गाधि: शत्रुनिबर्हण: ।। ।।

शत्रुसूदन_ गाधिने महात्मा ऋचीकको दरिद्र समझकर उन्हें अपनी कन्या नहीं दी ॥। |।

प्रत्याख्याय पुनर्यातमब्रवीद्‌ राजसत्तम:

शुल्कं॑ प्रदीयतां महां ततो वत्स्यसि मे सुताम्‌ ।। १० ।।

उनके इनकार कर देनेपर जब महर्षि लौटने लगे तब नृपश्रेष्ठ गाधिने उनसे कहा --'महर्षे! मुझे शुल्क दीजिये, तब आप मेरी पुत्रीको विवाहद्वारा प्राप्त कर सकेंगे” || १० ।।

ऋचीक उवाच

कि प्रयच्छामि राजेन्द्र तुभ्यं शुल्कमहं नूप

दुहितुर्ब्रहयासंसक्तो माभूत्‌ तत्र विचारणा ।। ११ ।।

ऋचीकने पूछा--राजेन्द्र! मैं आपकी पुत्रीके लिये आपको क्या शुल्क दूँ? आप निस्संकोच होकर बताइये। नरेश्वर! इसमें आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।। ११ ।।

गाधिरुवाच

चन्द्ररश्मिप्रकाशानां हयानां वातरंहसाम्‌ |

एकतः: श्यामकर्णानां सहस्रं देहि भार्गव ।। १२ ।।

गाधिने कहा--भूगुनन्दन! आप मुझे शुल्करूपमें एक हजार ऐसे घोड़े ला दीजिये जो चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ और वायुके समान वेगवान्‌ हों तथा जिनका एक-एक कान श्याम रंगका हो || १२ ।।

भीष्म उवाच

ततः भृगुशार्दूलक्ष्यवनस्यात्मज: प्रभु:

अब्रवीद्‌ वरुणं देवमादित्यं पतिमम्भसाम्‌ ।। १३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तब भृगुश्रेष्ठ च्यवनपुत्र शक्तिशाली महर्षि ऋचीकने जलके स्वामी अदितिनन्दन वरुणदेवके पास जाकर कहा-- ।। १३ ।।

एकत: श्यामकर्णानां हयानां चन्द्रवर्चसाम्‌

सहसतरं वातवेगानां भिक्षे त्वां देवसत्तम || १४ ।।

“देवशिरोमणे! मैं आपसे चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ तथा वायुके समान वेगवान्‌ एक हजार ऐसे घोड़ोंकी भिक्षा माँगता हूँ जिनका एक ओरका कान श्याम रंगका हो” ।। १४ ।।

तथेति वरुणो देव आदित्यो भृगुसत्तमम्‌ |

उवाच यत्र ते छन्दस्तत्रोत्थास्यन्ति वाजिन: ।। १५ ।।

तब अदितिनन्दन वरुणदेवने उन भृगुश्रेष्ठ ऋच्चीकसे कहा--बहुत अच्छा, जहाँ आपकी इच्छा होगी, वहींसे इस तरहके घोड़े प्रकट हो जायँगे” ।। १५ ।।

ध्यातमात्रमचीकेन हयानां चन्द्रवर्चसाम्‌ |

गड्ाजलात्‌ समुत्तस्थी सहस्नं विपुलौजसाम्‌ ।। १६ ।।

तदनन्तर ऋचीकके चिन्तन करते ही गंगाजीके जलसे चन्द्रमाके समान कान्तिवाले एक हजार तेजस्वी घोड़े प्रकट हो गये ।। १६ ।।

अदूरे कान्यकुब्जस्य गज्जायास्तीरमुत्तमम्‌

अश्वतीर्थ तदद्यापि मानवै: परिचक्ष्यते || १७ ।।

कन्नौजके पास ही गंगाजीका वह उत्तम तट आज भी मानवोंद्वारा अश्वतीर्थ कहलाता है ।। १७ ||

ततो वै गाधये तात सहस्र॑ं वाजिनां शुभम्‌ |

ऋचीक: प्रददौ प्रीत: शुल्कार्थ तपतां वर: ।। १८ ।।

तात! तब तपस्वी मुनियोंमें श्रेष्ठ ऋचीक मुनिने प्रसन्न होकर शुल्कके लिये राजा गाधिको वे एक हजार सुन्दर घोड़े दे दिये || १८ ।।

ततः विस्मितो राजा गाधि: शापभयेन

ददौ तां समलंकृत्य कन्यां भगुसुताय वै ।। १९ ।।

तब आश्चर्यवचकित हुए राजा गाधिने शापके भयसे डरकर अपनी कन्याको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके भूगुनन्दन ऋचीकको दे दिया ।। १९ ।।

जग्राह विधिवत्‌ पार्णिं तस्या ब्रह्मूर्षिसत्तम: |

सा त॑ं पतिमासाद्य पर हर्षमवाप ।। २० ||

ब्रह्मर्षिशिरेमणि ऋचीकने उसका विधिवत्‌ पाणिग्रहण किया। वैसे तेजस्वी पतिको पाकर उस कन्याको भी बड़ा हर्ष हुआ || २० ।।

तुतोष ब्रद्यार्षिस्तस्या वृत्तेन भारत

छन्‍्दयामास चैवैनां वरेण वरवर्णिनीम्‌ ।। २१ ।।

भरतनन्दन! अपनी पत्नीके सद्व्यवहारसे ब्रह्मर्षि बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने उस परम सुन्दरी पत्नीको मनोवांछित वर देनेकी इच्छा प्रकट की || २१ ।।

मात्रे तत्‌ सर्वमाचख्यौ सा कन्या राजसत्तम |

अथ तामब्रवीन्माता सुतां किंचिदवाड्मुखी ।। २२ ।।

नृपश्रेष्ठ तब उस राजकन्याने अपनी मातासे मुनिकी कही हुई सब बातें बतायीं। वह सुनकर उसकी माताने संकोचसे सिर नीचे करके पुत्रीसे कहा-- ।। २२ ।।

ममापि पुत्रि भर्ता ते प्रसादं कर्तुमरहति

अपत्यस्य प्रदानेन समर्थश्न महातपा: ।। २३ ।।

“बेटी! तुम्हारे पतिको पुत्र प्रदान करनेके लिये मुझपर भी कृपा करनी चाहिये, क्योंकि वे महान्‌ तपस्वी और समर्थ हैं! | २३ ।।

ततः सा त्वरितं गत्वा तत्‌ सर्व प्रत्यवेदयत्‌

मातुश्चिकीर्षितं राजन्चीकस्तामथाब्रवीत्‌ ।। २४ ।।

राजन! तदनन्तर सत्यवतीने तुरंत जाकर माताकी वह सारी इच्छा ऋचीकसे निवेदन की। तब ऋचीकने उससे कहा-- ।। २४ ।।

गुणवन्तमपत्यं सा अचिराज्जनयिष्यति

मम प्रसादात्‌ कल्याणि माभूत्‌ ते प्रणयोडन्यूथा ।। २५ ।।

“कल्याणि! मेरे प्रसादसे तुम्हारी माता शीघ्र ही गुणवान्‌ पुत्रको जन्म देगी। तुम्हारा प्रेमपूर्ण अनुरोध असफल नहीं होगा ।। २५ ।।

तव चैव गुणश्लाघी पुत्र उत्पत्स्यते महान्‌

अस्मद्वंशकर: श्रीमान्‌ सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते ।। २६ ।।

“तुम्हारे गर्भसे भी एक अत्यन्त गुणवान्‌ और महान्‌ तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा, जो हमारी वंशपरम्पराको चलायेगा। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ || २६ ।।

ऋतुस्नाता साशथ्रत्थं त्वं वृक्षमुदुम्बरम्‌

परिष्वजेथा: कल्याणि तत एवमवाप्स्यथ: || २७ ||

“कल्याणि! तुम्हारी माता ऋतुस्नानके पश्चात्‌ पीपलके वृक्षका आलिंगन करे और तुम गूलरके वृक्षका। इससे तुम दोनोंको अभीष्ट पुत्रकी प्राप्ति होगी || २७ ।।

चरुद्वयमिदं चैव मन्त्रपूतं शुचिस्मिते

त्वंच सा चोपभुज्जीतं ततः पुत्राववाप्स्थथ: || २८ ।।

“पवित्र मुसकानवाली देवि! मैंने ये दो मन्त्रपूत चरु तैयार किये हैं। इनमेंसे एकको तुम खा लो और दूसरेको तुम्हारी माता। इससे तुम दोनोंको पुत्र प्राप्त होंगे! || २८ ।।

ततः सत्यवती हृष्टा मातरं प्रत्यभाषत

यदूचीकेन कथितं तच्चाचख्यौ चरुद्भधयम्‌ ।। २९ ।।

तब सत्यवतीने हर्षमग्न होकर ऋचीकने जो कुछ कहा था, वह सब अपनी माताको बताया और दोनोंके लिये तैयार किये हुए पृथक्‌ू-पृथक्‌ चरुओंकी भी चर्चा की || २९ ।।

तामुवाच ततो माता सुतां सत्यवतीं तदा

पुत्रि पूर्वोपपन्नाया: कुरुष्व वचनं मम ।। ३० ।।

उस समय माताने अपनी पुत्री सत्यवतीसे कहा--“बेटी! माता होनेके कारण पहलेसे मेरा तुमपर अधिकार है; अतः तुम मेरी बात मानो” || ३० ।।

भर्त्रा एष दत्तस्ते चरु्मन्त्रपुरस्कृत:

एनं प्रयच्छ महां त्वं मदीयं त्वं गृहाण ।। ३१ ।।

“तुम्हारे पतिने जो मन्त्रपूत चरु तुम्हारे लिये दिया है, वह तुम मुझे दे दो और मेरा चरु तुम ले लो | ३१ ।।

व्यत्यासं वृक्षयोश्वापि करवाव शुचिस्मिते

यदि प्रमाणं वचनं मम मातुरनिन्दिते || ३२ ।।

“पवित्र हास्यवाली मेरी अच्छी बेटी! यदि तुम मेरी बात मानने योग्य समझो तो हमलोग वृक्षोंमें भी अदल-बदल कर लें" ।। ३२ ।।

स्वमपत्यं विशिष्ट हि सर्व इच्छत्यनाविलम्‌

व्यक्त भगवता चात्र कृतमेवं भविष्यति ।। ३३ ।।

“प्रायः सभी लोग अपने लिये निर्मल एवं सर्वगुणसम्पन्न श्रेष्ठ पुत्रकी इच्छा करते हैं। अवश्य ही भगवान्‌ ऋचीकने भी चरु निर्माण करते समय ऐसा तारतम्य रखा होगा || ३३ ।।

ततो मे त्वच्चरी भाव: पादपे सुमध्यमे

कथं विशिष्टो भ्राता मे भवेदित्येव चिन्तय ।। ३४ ।।

'सुमध्यमे! इसीलिये तुम्हारे लिये नियत किये गये चरु और वृक्षमें मेरा अनुराग हुआ है। तुम भी यही चिन्तन करो कि मेरा भाई किसी तरह श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हो” || ३४ ।।

तथा कृतवत्यौ ते माता सत्यवती सा

अथ गर्भावनुप्राप्ते उभे ते वै युधिछ्ठिर ।। ३५ ।।

युधिष्ठिररे इस तरह सलाह करके सत्यवती और उसकी माताने उसी तरह उन दोनों वस्तुओंका अदल-बदलकर उपयोग किया। फिर तो वे दोनों गर्भवती हो गयीं ।। ३५ ।।

दृष्टवा गर्भगनुप्राप्तां भार्या महानृषि:

उवाच तां सत्यवतीं दुर्मना भृगुसत्तम: ।। ३६ ।।

अपनी पत्नी सत्यवतीको गर्भवती अवस्थामें देखकर भृगुश्रेष्ठ महर्षि ऋचीकका मन खिन्न हो गया ।।

व्यत्यासेनोपयुक्तस्ते चरुव्यक्त भविष्यति

व्यत्यास: पादपे चापि सुव्यक्तं ते कृत: शुभे ॥। ३७ ।।

उन्होंने कहा--'शुभे! जान पड़ता है तुमने बदलकर चरुका उपयोग किया है। इसी तरह तुमलोगोंने वृक्षोंके आलिंगनमें भी उलट-फेर कर दिया है--ऐसा स्पष्ट प्रतीत हो रहा है ।। ३७ ।।

मया हि विश्व यद्ब्रह्मा त्वच्चरौ संनिवेशितम्‌

क्षत्रवीर्य सकल॑ चरौ तस्या निवेशितम्‌ ।। ३८ ।।

“मैंने तुम्हारे चरुमें सम्पूर्ण ब्रह्मतजका संनिवेश किया था और तुम्हारी माताके चसरुमें समस्त क्षत्रियोचित शक्तिकी स्थापना की थी” || ३८ ।।

त्रैलोक्यविख्यातगुएणं त्वं विप्रं जनयिष्यसि

साच क्षत्रं विशिष्ट वै तत एतत्‌ कृतं मया ।। ३९ ।।

“मैंने सोचा था कि तुम त्रिभुवनमें विख्यात गुणवाले ब्राह्मणको जन्म दोगी और तुम्हारी माता सर्वश्रेष्ठ क्षत्रियकी जननी होगी। इसीलिये मैंने दो तरहके चरुओंका निर्माण किया था || ३९ ||

व्यत्यासस्तु कृतो यस्मात्‌ त्वया मात्रा ते शुभे

तस्मात्‌ सा ब्राह्मण श्रेष्ठ माता ते जनयिष्यति ।। ४० ॥।

क्षत्रियं तूग्रकर्माणं त्वं भद्रे जनयिष्यसि

नहि ते तत्‌ कृतं साधु मातृस्नेहेन भाविनि ।। ४१ ।।

'शुभे! तुमने और तुम्हारी माताने अदला-बदली कर ली है, इसलिये तुम्हारी माता श्रेष्ठ ब्राह्मणपुत्रको जन्म देगी और भटद्रे! तुम भयंकर कर्म करनेवाले क्षत्रियकी जननी होओगी। भाविनि! माताके स्नेहमें पड़कर तुमने यह अच्छा काम नहीं किया” || ४०-४१ ।।

सा श्रुत्वा शोकसंतप्ता पपात वरवर्णिनी

भूमौ सत्यवती राजन्‌ छिन्नेव रुचिरा लता | ४२ ।।

राजन्‌! पतिकी यह बात सुनकर सुन्दरी सत्यवती शोकसे संतप्त हो वृक्षसे कटी हुई मनोहर लताके समान मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ी || ४२ ।।

प्रतिलभ्य सा संज्ञां शिरसा प्रणिपत्य |

उवाच भार्या भर्तरें गाधेयी भार्गवर्षभम्‌ ।। ४३ ।।

प्रसादयन्त्यां भार्यायां मयि ब्रह्मविदां वर

प्रसादं कुरु विप्र्॒ें मे स्यात्‌ क्षत्रिय: सुत: ।। ४४ ।।

थोड़ी देरमें जब उसे चेत हुआ, तब वह गाधिकुमारी अपने स्वामी भृूगुभूषण ऋचीकके चरणोंमें सिर रखकर प्रणामपूर्वक बोली--'ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मर्ष! मैं आपकी पत्नी हूँ, अतः आपसे कृपा-प्रसादकी भीख चाहती हूँ। आप ऐसी कृपा करें जिससे मेरे गर्भसे क्षत्रिय पुत्र उत्पन्न हो || ४३-४४ ।।

काम ममोग्रकर्मा वै पौत्रो भवितुमर्हति

नतु मे स्यात्‌ सुतो ब्रद्म॒न्नेष मे दीयतां वर: ।। ४५ ।।

“मेरा पौत्र चाहे उग्रकर्मा क्षत्रियस्वभावका हो जाय; परंतु मेरा पुत्र वैसा हो। ब्रह्मन! मुझे यही वर दीजिये” ।। ४५ ।।

एवमस्त्विति होवाच स्वां भार्या सुमहातपा:

ततः सा जनयामास जगदरग्निं सुतं शुभम्‌ ।। ४६ ।।

तब उन महातपस्वी ऋषिने अपनी पत्नीसे कहा, “अच्छा, ऐसा ही हो”। तदनन्तर सत्यवतीने जमदग्निनामक शुभगुणसम्पन्न पुत्रको जन्म दिया ।। ४६ |।

विश्वामित्रं चाजनयद्‌ गाधिभार्या यशस्विनी

ऋषे: प्रसादाद्‌ राजेन्द्र ब्रद्मर्षेब्रह्मयवादिनम्‌ ।। ४७ ।।

राजेन्द्र! उन्हीं ब्रह्मर्षिकि कृपा-प्रसादसे गाधिकी यशस्विनी पत्नीने ब्रह्मवादी विश्वामित्रको उत्पन्न किया ।।

ततो ब्राह्मणतां यातो विश्वामित्रो महातपा: |

क्षत्रिय: सोडप्यथ तथा ब्रह्म॒ुवंशस्य कारक: ।। ४८ ।।

इसीलिये महातपस्वी विश्वामित्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो ब्राह्मणवंशके प्रवर्तक हुए ।। ४८ ।।

तस्य पुत्रा महात्मानो ब्रह्मुवंशविवर्धना:

तपस्विनो ब्रह्म॒विदो गोत्रकर्तार एव ।। ४९ ||

उन ब्रह्मवेत्ता तपस्वीके महामनस्वी पुत्र भी ब्राह्मणवंशकी वृद्धि करनेवाले और गोत्रकर्ता हुए || ४९ ।।

मधुच्छन्दश्व भगवान्‌ देवरातश्न वीर्यवान्‌ |

अक्षीणश्न शकुन्तश्न बश्रु: कालपथस्तथा ।। ५० ||

याज्ञवल्क्यश्नल विख्यातस्तथा स्थूणो महाव्रत:

उलूको यमदूतश्न तथर्षि: सैन्धवायन: ।। ५१ ।।

वल्गुजड्घश्न भगवान्‌ गालवश्व महानृषि:

ऋषिर्वज़्स्तथा ख्यात: सालंकायन एव ॥। ५२ ।।

लीलाढ्यो नारदश्वैव तथा कूर्चामुख: स्मृत:

वादुलिमुसलश्नैव वक्षोग्रीवस्तथैव ।। ५३ ।।

आंध्रिको नैकदृक्‌ चैव शिलायूप: शित: शुचि:

चक्रको मारुतन्तव्यो वातघ्नो5थाश्वलायन: ।। ५४ ।।

श्यामायनो<थ गार्ग्यश्व॒ जाबालि: सुश्रुतस्तथा

कारीषिरथ संभश्रुत्य: परपौरवतन्तव: ।। ५५ ।।

महानृषिश्व कपिलस्तथर्षिस्ताडकायन:

तथैव चोपगहनस्तथर्षिश्वासुरायण: ।। ५६ ।।

मार्दमर्षिररिरिण्याक्षो जड़ारिबाश्रिवायणि: |

भूतिर्विभूति: सूतश्न सुरकृत्‌ तु तथैव ।। ५७ ।।

अरालिननचिकश्रैव चाम्पेयोज्जयनौ तथा

नवतनन्‍्तुर्बकनख: सेयनो यतिरेव ।। ५८ ।।

अम्भोरुहश्चारुमत्स्य: शिरीषी चाथ गार्दभि:

ऊर्जयोनिरुदापेक्षी नारदी महानृषि: ।। ५९ ।।

विश्वामित्रात्मजा: सर्वे मुनयो ब्रह्म॒वादिन:

भगवान्‌ मधुच्छन्दा, शक्तिशाली देवरात, अक्षीण, शकुन्त, बभ्ु, कालपथ, विख्यात याज्ञवल्क्य, महाव्रती स्थूण, उलूक, यमदूत, सैन्धवायन ऋषि, भगवान्‌ वल्गुजंघ, महर्षि गालव, वज्रमुनि, विख्यात सालंकायन, लीलाढ्य, नारद, कूर्चामुख, वादुलि, मुसल, वक्षोग्रीव, आड्ूप्रिक, नैकदृकू, शिलायूप, शित, शुचि, चक्रक, मारुतन्तव्य, वातघ्न, आश्वलायन, श्यामायन, गार्ग्य, जाबालि, सुश्रुत, कारीषि, संश्रुत्य, पर, पौरव, तन्‍्तु, महर्षि कपिल, मुनिवर ताडकायन, उपगहन, आसुरायण ऋषि, मार्दमर्षि, हिरण्याक्ष, जंगारि, बाभ्रवायणि, भूति, विभूति, सूत, सुरकृत्‌ु, अरालि, नाचिक, चाम्पेय, उज्जयन, नवतत्तु, बकनख, सेयन, यति, अम्भोरुह, चारुमत्स्य, शिरीषी, गार्दभि, ऊर्जयोनि, उदापेक्षी और महर्षि नारदी--ये सभी विश्वामित्रके पुत्र एवं ब्रह्मयगादी ऋषि थे || ५०--५९ ।।

तथैव क्षत्रियो राजन्‌ विश्वामित्रो महातपा: ।। ६० ||

ऋषचीकेनाहितं ब्रह्म परमेतद्‌ युधिष्ठिर

राजा युधिष्ठिर! महातपस्वी विश्वामित्र यद्यपि क्षत्रिय थे तथापि ऋचीक मुनिने उनमें परम उत्कृष्ट ब्रह्मतजका आधान किया था ।। ६० ।।

एतत्‌ ते सर्वमाख्यातं तत्त्वेन भरतर्षभ ।। ६१ ।।

विश्वामित्रस्थ वै जन्म सोमसूर्याग्नितेजस:

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सोम, सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी विश्वामित्रके जन्मका सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे बताया है || ६१६ ।। यत्र यत्र संदेहो भूयस्ते राजसत्तम तत्र तत्र मां ब्रूहि च्छेत्तास्मि तव संशयम्‌ ।। ६२ ।। नृपश्रेष्ठट अब फिर तुम्हें जहाँ-जहाँ संदेह हो उस-उस विषयकी बात मुझसे पूछो। मैं तुम्हारे संशयका निवारण करूँगा ।। ६२ ।। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि विश्वामित्रोपाख्याने चतुर्थोडध्याय: ।। ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वनें विशज्वामित्रका उपाख्यानविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥। ॥।

न२््च्य्निताय्स श्यु #ीीा्-ानत्तज्स

पञठ्चमो<ध्याय:

स्वामिभक्त एवं ३६३ किक रुषकी श्रेष्ठता बतानेके लिये इन्द्र और संवादका उल्लेख

युधिछिर उवाच

आनुृशंस्यस्य धर्मज्ञ गुणान्‌ भक्तजनस्य श्रोतुमिच्छामि धर्मज्ञ तन्मे ब्रूहि पितामह ।। ।। युधिष्ठिरने कहा--धर्मज्ञ पितामह! अब मैं दयालु और भक्त पुरुषोंके गुण सुनना चाहता हूँ; अतः कृपा करके मुझे उनके गुण ही बताइये ।। ।। भीष्म उवाच

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌

वासवस्य संवादं शुकस्य महात्मन: ॥। ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें भी महामनस्वी तोते और इन्द्रका जो संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है || ।।

विषये काशिराजस्य ग्रामान्निष्क्रम्य लुब्धक:

सविषं काण्डमादाय मृगयामास वै मृगम्‌ ॥। ।।

काशिराजके राज्यकी बात है, एक व्याध विषमें बुझाया हुआ बाण लेकर गाँवसे निकला और शिकारके लिये किसी मृगको खोजने लगा ।। ।।

तत्र चामिषलुब्धेन लुब्धकेन महावने

अविदूरे मृगान्‌ दृष्टवा बाण: प्रतिसमाहित: ।। ।।

उस महान्‌ वनमें थोड़ी ही दूर जानेपर मांसलोभी व्याधने कुछ मृगोंको देखा और उनपर बाण चला दिया ।। ।।

तेन दुर्वारितास्त्रेण निमित्तचपलेषुणा

महान्‌ वनतरुस्तत्र विद्धो मृगजिघांसया ।। ।।

व्याधका वह बाण अमोघ था; परंतु निशाना चूक जानेके कारण मृगको मारनेकी इच्छासे छोड़े गये उस बाणने एक विशाल वृक्षको वेध दिया ।। ।।

तीक3्षणविषदिग्धेन शरेणातिबलात्‌ क्षतः

उत्सृज्य फलपत्राणि पादप: शोषमागत: ।। ।।

तीखे विषसे पुष्ट हुए उस बाणसे बड़े जोरका आघात लगनेके कारण उस वृक्षमें जहर फैल गया। उसके फल और पत्ते झड़ गये और धीरे-धीरे वह सूखने लगा ।। ।।

तस्मिन्‌ वक्षे तथाभूते कोटरेषु चिरोषित:

जहाति शुको वासं तस्य भक्‍त्या वनस्पते: ।। ।।

उस वृक्षके खोंखलेमें बहुत दिनोंसे एक तोता निवास करता था। उसका उस वृक्षके प्रति बड़ा प्रेम हो गया था, इसलिये वह उसके सूखनेपर भी वहाँका निवास छोड़ नहीं रहा था ।।७।।

निष्प्रचारो निराहारो ग्लान: शिथिलवागपि

कृतज्ञः: सह वृक्षेण धर्मात्मा सो5प्यशुष्यत ।। ।।

वह धर्मात्मा एवं कृतज्ञ तोता कहीं आता-जाता नहीं था। चारा चुगना भी छोड़ चुका था। वह इतना शिथिल हो गया था कि उससे बोलातक नहीं जाता था। इस प्रकार उस वृक्षेके साथ वह स्वयं भी सूखता चला जा रहा था ।। ।।

तमुदारं महासत्त्वमतिमानुषचेष्टितम्‌

समदुःखसुखं दृष्टवा विस्मित: पाकशासन: ।। ||

उसका धैर्य महान्‌ था। उसकी चेष्टा अलौकिक दिखायी देती थी। दुःख और सुखमें समान भाव रखनेवाले उस उदार तोतेको देखकर पाकशासन इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ ।। ||

ततश्चिन्तामुपगत: शक्र: कथमयं द्विज:

तिर्यग्योनावसम्भाव्यमानृशंस्थमवस्थित: ।। १० ।।

इन्द्र यह सोचने लगे कि यह पक्षी कैसे ऐसी अलौकिक दयाको अपनाये बैठा है, जो पक्षीकी योनिमें प्रायः असम्भव है ।। १० ।।

अथवा नात्र चित्र हि अभवद्‌ वासवस्य तु

प्राणिनामपि सर्वेषां सर्व सर्वत्र दृश्यते || ११ ।।

अथवा इसमें कोई आश्वर्यकी बात नहीं है; क्योंकि सब जगह सब प्राणियोंमें सब तरहकी बातें देखनेमें आती हैं--ऐसी भावना मनमें लानेपर इन्द्रका मन शान्त हुआ ।। ११ ||

ततो ब्राह्मणवेषेण मानुषं रूपमास्थित:

अवतीर्य महीं शक्रस्तं पक्षिणमुवाच ।। १२ ।।

तदनन्तर वे ब्राह्मणके वेशमें मनुष्यका रूप धारण करके पृथ्वीपर उतरे और उस शुक पक्षीसे बोले-- ।। १२ ।।

शुक भो पक्षिणां श्रेष्ठ दाक्षेयी सुप्रजा त्वया

पृच्छे त्वां शुकमेनं त्वं कस्मान्न त्यजसि द्रुमम्‌ ।। १३ ।।

'पक्षियोंमें श्रेष्ठ शुक! तुम्हें पाकर दक्षकी दौहित्री शुकी उत्तम संतानवाली हुई है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि अब इस वृक्षको क्‍यों नहीं छोड़ देते हो?” ।। १३ ।।

अथ पृष्ट: शुकः प्राह मूर्धश्ना समभिवाद्य तम्‌ |

स्वागतं देवराज त्वं विज्ञातस्तपसा मया ।। १४ ।।

उनके इस प्रकार पूछनेपर शुकने मस्तक नवाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा --देवराज! आपका स्वागत है। मैंने तपस्थाके बलसे आपको पहचान लिया है! ।।

ततो दशशताक्षेण साधु साध्विति भाषितम्‌ |

अहो विज्ञानमित्येवं मनसा पूजितस्तत:ः ।। १५ ।।

यह सुनकर सहसनेत्रधारी इन्द्रने मन-ही-मन कहा--“वाह! वाह! क्या अदभुत विज्ञान है!” ऐसा कहकर उन्होंने मनसे ही उसका आदर किया ।। १५ ।।

तमेवं शुभकर्माणं शुकं परमधार्मिकम्‌ |

विजानन्नपि तां प्रीतिं पप्रच्छ बलसूदन: ।। १६ ।।

*वृक्षके प्रति इस तोतेका कितना प्रेम है” इस बातको जानते हुए भी बलसूदन इन्द्रने शुभकर्म करनेवाले उस परम धर्मात्मा शुकसे पूछा-- ।। १६ ।।

निष्पत्रमफलं शुष्कमशरण्यं पतत्रिणाम्‌ |

किमर्थ सेवसे वृक्ष यदा महदिदं वनम्‌ ।। १७ ।।

'शुक! इस वक्षके पत्ते झड़ गये, फल भी नहीं रहे। यह सूख जानेके कारण पक्षियोंके बसेरे लेने योग्य नहीं रह गया है। जब यह विशाल वन पड़ा हुआ है तब तुम इस दूँठ वृक्षका सेवन किसलिये करते हो? ।। १७ ।।

अन्येडपि बहवो वृक्षा: पत्रसंच्छन्नकोटरा:

शुभा: पर्याप्तसंचारा विद्यन्तेडस्मिन्‌ महावने ।। १८ ।।

“इस विशाल वनमें और भी बहुत-से वृक्ष हैं जिनके खोखले हरे-हरे पत्तोंसे आच्छादित हैं, जो सुन्दर हैं तथा जिनपर पक्षियोंके संचारके लिये योग्य पर्याप्त स्थान हैं ।। १८ ।।

गतायुषमसामर्थ्य क्षीणसारं हतश्रियम्‌ |

विमृश्य प्रज्ञया धीर जहीम॑ स्थविरं द्रुमम्‌ ।। १९ ।।

“धीर शुक! इस वृक्षकी आयु समाप्त हो गयी, शक्ति नष्ट हो गयी। इसका सार क्षीण हो गया और इसकी शोभा भी छिन गयी। अपनी बुद्धिके द्वारा इन सब बातोंपर विचार करके अब इस बूढ़े वृक्षको त्याग दो” || १९ ।।

भीष्म उवाच

तदुपश्रुत्य धर्मात्मा शुक: शक्रेण भाषितम्‌

सुदीर्घमतिनि:श्व॒स्य दीनो वाक्यमुवाच ।। २० ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इन्द्रकी यह बात सुनकर धर्मात्मा शुकने लंबी साँस खींचकर दीनभावसे यह बात कही-- || २० ।।

अनतिक्रमणीयानि दैवतानि शचीपते

यत्राभवत्‌ तव प्रश्नस्तन्निबोध सुराधिप ।। २१ ।।

“शचीवल्लभ! दैवका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। देवराज! जिसके विषयमें आपने प्रश्न किया है, उसकी बात सुनिये || २१ ।।

अस्मिन्नहं टद्रुमे जात: साधुभिश्न गुणैर्युत:

बालभावेन संगुप्त: शत्रुभिश्षल धर्षित: ॥। २२ ।।

“मैंने इसी वृक्षपर जन्म लिया और यहीं रहकर अच्छे-अच्छे गुण सीखे हैं। इस वृक्षने अपने बालककी भाँति मुझे सुरक्षित रखा और मेरे ऊपर शत्रुओंका आक्रमण नहीं होने दिया।” || २२ ||

किमनुक्रोश्य वैफल्यमुत्पादयसि मेडनघ

आनृशंस्याभियुक्तस्य भक्तस्यानन्यगस्य ।। २३ ।।

“निष्पाप देवेन्द्र! इन्हीं सब कारणोंसे मेरी इस वृक्षके प्रति भक्ति है। मैं दयारूपी धर्मके पालनमें लगा हूँ और यहाँसे अन्यत्र नहीं जाना चाहता। ऐसी दशामें आप कृपा करके मेरी सद्भावनाको व्यर्थ बनानेकी चेष्टा क्यों करते हैं?” ।। २३ ।।

अनुक्रोशो हि साधूनां महद्धर्मस्य लक्षणम्‌ |

अनुक्रोशश्व साधूनां सदा प्रीति प्रयच्छति ।। २४ ।।

श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये दूसरोंपर दया करना ही महान्‌ धर्मका सूचक है। दयाभाव श्रेष्ठ पुरुषोंको सदा ही आनन्द प्रदान करता है ।। २४ ।।

त्वमेव दैवतै: सर्वे: पृच्छयसे धर्मसंशयात्‌

अतत्त्वं देवदेवानामाधिपत्ये प्रतिष्ठित: |। २५ ।।

“धर्मके विषयमें संशय होनेपर सब देवता आपसे ही अपना संदेह पूछते हैं। इसीलिये आप देवाधिदेवोंके अधिपति पदपर प्रतिष्ठित हैं | २५ ।।

नाहसे मां सहस्राक्ष ट्रुमं त्याजयितुं चिरात्‌

समर्थमुपजीव्येमं त्यजेयं कथमद्य वै २६ ।।

'सहस्राक्ष! आप इस वृक्षको मुझसे छुड़ानेके लिये प्रयत्न कीजिये। जब यह समर्थ था तब मैंने दीर्घकालसे इसीके आश्रयमें रहकर जीवन धारण किया है और आज जब यह शक्तिहीन हो गया तब इसे छोड़कर चल दूँ--यह कैसे हो सकता है?” ।। २६ ।।

तस्य वाक्येन सौम्येन हर्षित: पाकशासन:

शुकं प्रोवाच धर्मात्मा आनृशंस्येन तोषित: || २७ ।।

तोतेकी इस कोमल वाणीसे पाकशासन इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई। धर्मात्मा देवेन्द्रने शुककी दयालुतासे संतुष्ट हो उससे कहा-- ।। २७ ।।

वरं वृणीष्वेति तदा वव्रे वरं शुक:

आनुृशंस्यपरो नित्यं तस्य वृक्षस्य सम्भवम्‌ ।। २८ ।।

'शुक! तुम मुझसे कोई वर माँगो।” तब दयापरायण शुकने यह वर माँगा कि “यह वृक्ष पहलेकी ही भाँति हरा-भरा हो जाय” ।। २८ ।।

विदित्वा दृढां भक्ति तां शुके शीलसम्पदम्‌ |

प्रीत: क्षिप्रमथो वृक्षममृतेनावसिक्तवान्‌ ।। २९ |।

तोतेकी इस सुदृढ़ भक्ति और शील-सम्पत्तिको जानकर इन्द्रको और भी प्रसन्नता हुई। उन्होंने तुरंत ही उस वृक्षको अमृतसे सींच दिया || २९ ।।

तत:ः फलानि पत्राणि शाखाश्षापि मनोहरा:

शुकस्य दृढ्भत्तित्वात्‌ श्रीमत्तां प्राप द्रुम: ।। ३० ।।

फिर तो उसमें नये-नये पत्ते, फल और मनोहर शाखाएँ निकल आयीं। तोतेकी दृढ़भक्तिके कारण वह वृक्ष पूर्ववत्‌ श्रीसम्पन्न हो गया ।। ३० ।।

शुकश्न कर्मणा तेन आनृशंस्यकृतेन वै

आयुषो<न्‍न्ते महाराज प्राप शक्रसलोकताम्‌ ।। ३१ ।।

महाराज! वह शुक भी आयु समाप्त होनेपर अपने उस दयापूर्ण बर्तावके कारण इन्द्रलोकको प्राप्त हुआ ।। ३१ ।।

एवमेव मनुष्येन्द्र भक्तिमन्तं समाश्रित:

सर्वार्थसिद्धि लभते शुकं प्राप्य यथा द्रुम: ।। ३२ ।।

नरेन्द्र! जैसे भक्तिमान्‌ू शुकका सहवास पाकर उस वृक्षने सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि प्राप्त कर ली, उसी प्रकार अपनेमें भक्ति रखनेवाले पुरुषका सहारा पाकर प्रत्येक मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध कर लेता है || ३२ ।।

इति श्रीमहा भारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि शुकवासवसंवादे पठ्चमो<ध्याय: ॥| || इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शुक और इन्द्रका संवादविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ॥/

अपन ह< बक। है >>

षष्ठो5 ध्याय:

दैवकी अपेक्षा पुरुषार्थकी श्रेष्ठताका वर्णन

युधिछिर उवाच

पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद

दैवे पुरुषकारे किंस्वित्‌ श्रेष्ठतरं भवेत्‌ ।। ।।

युधिष्ठिरने पूछा--सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ महाप्राज्ञ पितामह! दैव और पुरुषार्थमें कौन श्रेष्ठ है? ।। ।।

भीष्म उवाच

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌

वसिष्ठस्य संवादं ब्रह्मणश्न॒ युधिष्ठिर || ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें वसिष्ठ और ब्रह्माजीके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहण दिया जाता है ।। ।।

दैवमानुषयो: किंस्वित्‌ कर्मणो: श्रेष्ठमित्युत

पुरा वसिष्ठो भगवान्‌ पितामहमपृच्छत ।। ।।

प्राचीन कालकी बात है, भगवान्‌ वसिष्ठने लोकपितामह ब्रह्माजीसे पूछा--'प्रभो! दैव और पुरुषार्थमें कौन श्रेष्ठ है? ।। ।।

ततः पद्मोद्भवो राजन्‌ देवदेव: पितामह:

उवाच मधुरं वाक्यमर्थवद्धेतुभूषितम्‌ ।। ।।

राजन्‌! तब कमलजन्मा देवाधिदेव पितामहने मधुर स्वरमें युक्तियुक्त सार्थक वचन कहा-- ।। ||

ब्रह्मोवाच

(बीजतो हाड्कुरोत्पत्तिरड्कुरात्‌ पर्णसम्भव:

पर्णान्नाला: प्रसूयन्ते नालात्‌ स्कन्ध: प्रवर्तते ।।

स्कन्धात्‌ प्रवर्तते पुष्पं पुष्पान्निर्वर्तती फलम्‌

फलानिरर्वर्यतेी बीजं॑ बीज॑ नाफलमुच्यते ।।)

ब्रह्माजीने कहा--मुने! बीजसे अंकुरकी उत्पत्ति होती है, अंकुरसे पत्ते होते हैं। पत्तोंस नाल, नालसे तने और डालियाँ होती हैं। उनसे पुष्प प्रकट होता है। फ़ूलसे फल लगता है और फलसे बीज उत्पन्न होता है और बीज कभी निष्फल नहीं बताया गया है ।।

नाबीजं जायते किंचिन्न बीजेन बिना फलम्‌ |

बीजादू बीज॑ प्रभवति बीजादेव फलं स्मृतम्‌ ।। ।।

बीजके बिना कुछ भी पैदा नहीं होता, बीजके बिना फल भी नहीं लगता। बीजसे बीज प्रकट होता है और बीजसे ही फलकी उत्पत्ति मानी जाती है ।। ।।

यादृशं वपते बीज क्षेत्रमासाद्य कर्षक:

सुकृते दुष्कृते वापि तादृश॑ लभते फलम्‌ ।। ।।

किसान खेतमें जाकर जैसा बीज बोता है उसीके अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार पुण्य या पाप--जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है ।। ।।

यथा बीजं विना क्षेत्रमुप्तं भवति निष्फलम्‌ |

तथा पुरुषकारेण विना दैवं सिध्यति ।। ।।

जैसे बीज खेतमें बोये बिना फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार दैव (प्रारब्ध) भी पुरुषार्थके बिना नहीं सिद्ध होता || ।।

क्षेत्र पुरुषकारस्तु दैवं बीजमुदाहतम्‌

क्षेत्रत्रीणसमायोगात्‌ ततः सस्यं समृद्ध्यते ।। ।।

पुरुषार्थ खेत है और दैवको बीज बताया गया है। खेत और बीजके संयोगसे ही अनाज पैदा होता है ।। ।।

कर्मण: फलनिर्वत्ति स्वयमश्नाति कारक:

प्रत्यक्ष दृश्यते लोके कृतस्यापकृतस्य ॥। ।।

कर्म करनेवाला मनुष्य अपने भले या बुरे कर्मका फल स्वयं ही भोगता है। यह बात संसारमें प्रत्यक्ष दिखायी देती है ।। ।।

शुभेन कर्मणा सौख्यं दु:ःखं पापेन कर्मणा

कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित्‌ ।। १० ।।

शुभ कर्म करनेसे सुख और पाप कर्म करनेसे दुःख मिलता है। अपना किया हुआ कर्म सर्वत्र ही फल देता है। बिना किये हुए कर्मका फल कहीं नहीं भोगा जाता ।। १० ।।

कृती सर्वत्र लभते प्रतिष्ठां भाग्यसंयुताम्‌

अकृती लभते भ्रष्ट: क्षते क्षारावसेचनम्‌ ।। ११ ।।

पुरुषार्थी मनुष्य सर्वत्र भाग्यके अनुसार प्रतिष्ठा पाता है; परंतु जो अकर्मण्य है वह सम्मानसे भ्रष्ट होकर घावपर नमक छिड़कनेके समान असहा दुःख भोगता है ।। ११ ।।

तपसा रूपसौभाग्यं रत्नानि विविधानि

प्राप्पते कर्मणा सर्व दैवादकृतात्मना ।। १२ ।।

मनुष्यको तपस्यासे रूप, सौभाग्य और नाना प्रकारके रत्न प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कर्मसे सब कुछ मिल सकता है; परंतु भाग्यके भरोसे निकम्मे बैठे रहनेवालेको कुछ नहीं मिलता ।। १२ ||

तथा स्वर्गक्ष भोगश्न निष्ठा या मनीषिता

सर्व पुरुषकारेण कृतेनेहोपलभ्यते ।। १३ ।।

इस जगतमें पुरुषार्थ करनेसे स्वर्ग, भोग, धर्ममें निष्ठा और बुद्धिमत्ता--इन सबकी उपलब्धि होती है || १३ ।।

ज्योतींषि त्रिदशा नागा यक्षाश्षन्द्रार्कमारुता:

सर्व पुरुषकारेण मानुष्याद्‌ देवतां गता: ॥। १४ ।।

नक्षत्र, देवता, नाग, यक्ष, चन्द्रमा, सूर्य और वायु आदि सभी पुरुषार्थ करके ही मनुष्यलोकसे देवलोकको गये हैं ।। १४ ।।

अर्थो वा मित्रवर्गो वा ऐश्वर्य वा कुलान्वितम्‌

श्रीक्षापि दुर्लभा भोक्तुं तथैवाकृतकर्मभि: ।। १५ ।।

जो पुरुषार्थ नहीं करते वे धन, मित्रवर्ग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्मीका भी उपभोग नहीं कर सकते ।। १५ ।।

शौचेन लभते विे्र: क्षत्रियो विक्रमेण तु

वैश्य: पुरुषकारेण शूद्र: शुश्रूषया श्रियम्‌ ।। १६ ।।

ब्राह्मण शौचाचारसे, क्षत्रिय पराक्रमसे, वैश्य उद्योगसे तथा शूद्र तीनों वर्णोकी सेवासे सम्पत्ति पाता है ।। १६ ।।

नादातांर भजन्त्यर्था क्लीबं नापि निष्क्रियम्‌

नाकर्मशीलं नाशूरं तथा नैवातपस्विनम्‌ ।। १७ ।।

तो दान देनेवाले कंजूसको धन मिलता है, नपुंसकको, अकर्मण्यको, कामसे जी चुरानेवालेको, शौर्यहीनको और तपस्या करनेवालेको ही मिलता है ।। १७ |।

येन लोकास्त्रय: सृष्टा दैत्या: सर्वाश्व देवता:

एष भगवान्‌ विष्णु: समुद्रे तप्पते तप: ।। १८ ।।

जिन्होंने तीनों लोकों, दैत्यों तथा सम्पूर्ण देवताओंकी भी सृष्टि की है, वे ही ये भगवान्‌ विष्णु समुद्रमें रहकर तपस्या करते हैं ।। १८ ।।

स्वं चेत्‌ कर्मफलं स्यात्‌ सर्वमेवाफलं भवेत्‌

लोको दैवं समालक्ष्य उदासीनो भवेन्ननु ।। १९ ।।

यदि अपने कर्मोंका फल प्राप्त हो तो सारा कर्म ही निष्फल हो जाय और सब लोग भाग्यको ही देखते हुए कर्म करनेसे उदासीन हो जायेँ ।। १९ ।।

अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैवमनुवर्तते

वृथा श्राम्यति सम्प्राप्पय पतिं क्लीबमिवाड़ना ।। २० ।।

मनुष्यके योग्य कर्म करके जो पुरुष केवल दैवका अनुसरण करता है वह दैवका आश्रय लेकर व्यर्थ ही कष्ट उठाता है। जैसे कोई स्त्री अपने नपुंसक पतिको पाकर भी कष्ट ही भोगती है ।। २० ।।

तथा मानुषे लोके भयमस्ति शुभाशुभे

तथा त्रिदशलोके हि भयमल्पेन जायते ।। २१ ।।

इस मनुष्यलोकमें शुभाशुभ कर्मोंसे उतना भय नहीं प्राप्त होता, जितना कि देवलोकमें थोड़े ही पापसे भय होता है || २१ ।।

कृत: पुरुषकारस्तु दैवमेवानुवर्तते

दैवमकृते किंचित्‌ कस्यचिद्‌ दातुमहति ।॥ २२ ।।

किया हुआ पुरुषार्थ ही दैवका अनुसरण करता है; परंतु पुरुषार्थ करनेपर दैव किसीको कुछ नहीं दे सकता ।। २२ ।।

यथा स्थानान्यनित्यानि दूृश्यन्ते दैवतेष्वपि

कथं कर्म विना दैवं स्थास्यति स्थापयिष्यति ।। २३ ।।

देवताओंमें भी जो इन्द्रादिके स्थान हैं वे अनित्य देखे जाते हैं। पुण्यकर्मके बिना दैव कैसे स्थिर रहेगा और कैसे वह दूसरोंको स्थिर रख सकेगा ।। २३ ।।

दैवतानि लोके5स्मिन्‌ व्यापारं यान्ति कस्यचित्‌

व्यासडूं जनयन्त्युग्रमात्माभिभवशड्कया ।। २४ ।।

देवता भी इस लोकमें किसीके पुण्यकर्मका अनुमोदन नहीं करते हैं, अपितु अपनी पराजयकी आशंकासे वे पुण्यात्मा पुरुषमें भयंकर आसक्ति पैदा कर देते हैं (जिससे उनके धर्ममें विघ्न उपस्थित हो जाय) ।। २४ ।।

ऋषीणां देवतानां सदा भवति विग्रह:

कस्य वाचा हादैवं स्याद्‌ यतो दैवं प्रवर्तते | २५ ।।

ऋषियों और देवताओंमें सदा कलह होता रहता है (देवता ऋषियोंकी तपस्यामें विघ्न डालते हैं तथा ऋषि अपने तपोबलसे देवताओंको स्थानभ्रष्ट कर देते हैं।। फिर भी दैवके बिना केवल कथन मात्रसे किसको सुख या दुःख मिल सकता है? क्योंकि कर्मके मूलमें दैवका ही हाथ है ।| २५ ।।

कथं तस्य समुत्पत्तिर्यतो दैवं प्रवर्तते

एवं त्रिदशलोके<पि प्राप्यन्ते बहवो गुणा: ।। २६ ।।

दैवके बिना पुरुषार्थकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है? क्योंकि प्रवृत्तिका मूल कारण दैव ही है (जिन्होंने पूर्वजन्ममें पुण्यकर्म किये हैं, वे ही दूसरे जन्ममें भी पूर्वसंस्कारवश पुण्यमें प्रवृत्त होते हैं। यदि ऐसा हो तो सभी पुण्यकर्मोंमें ही लग जायँ)। देवलोकमें भी दैववश ही बहुत-से गुण (सुखद साधन) उपलब्ध होते हैं || २६ ।।

आत्मैव ह्ात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:

आत्मैव हाात्मन: साक्षी कृतस्याप्यकृतस्य ।। २७ ।।

आत्मा ही अपना बन्धु है, आत्मा ही अपना शत्रु है तथा आत्मा ही अपने कर्म और अकर्मका साक्षी है | २७ ।।

कृतं चाप्यकृतं किंचित्‌ कृते कर्मणि सिद्ध्यति |

सुकृतं दुष्कृतं कर्म यथार्थ प्रपद्यते || २८ ।।

प्रबल पुरुषार्थ करनेसे पहलेका किया हुआ भी कोई कर्म बिना किया हुआ-सा हो जाता है और वह प्रबल कर्म ही सिद्ध होकर फल प्रदान करता है। इस तरह पुण्य या पापकर्म अपने यथार्थ फलको नहीं दे पाते हैं || २८ ।।

देवानां शरणं पुण्य॑ सर्व पुण्यैरवाप्यते

पुण्यशील नर प्राप्य कि दैवं प्रकरिष्यति ।। २९ ।।

देवताओंका आश्रय पुण्य ही है। पुण्यसे ही सब कुछ प्राप्त होता है। पुण्यात्मा पुरुषको पाकर दैव क्‍या करेगा? ।। २९ |।

पुरा ययातिर्वि भ्रष्टक्ष्यावित: पतित: क्षितौ

पुनरारोपित: स्वर्ग दौहित्रै: पुण्यकर्मभि: ।। ३० ।।

पूर्वकालमें राजा ययाति पुण्य क्षीण होनेपर स्वर्गसे च्युत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े थे; परंतु उनके पुण्यकर्मा दौह्ित्रोंने उन्हें पुन: स्वर्गलोकमें पहुँचा दिया || ३० ।।

पुरूरवाश्च राजर्षिद्विजैरभिहित: पुरा

ऐल इत्यभिविख्यात: स्वर्ग प्राप्तो महीपति: ।। ३१ ।।

इसी तरह पूर्वकालमें ऐल नामसे विख्यात राजर्षि पुरूरवा ब्राह्मणोंके आशीर्वाद देनेपर स्वर्गलोकको प्राप्त हुए थे || ३१ ।।

अश्वमेधादिभिर्यज्ञै: सत्कृत: कोसलाधिप:

महर्षिशापात्‌ सौदास: पुरुषादत्वमागत: ।। ३२ ||

(अब इसके विपरीत दृष्टन्त देते हैं--) अश्वमेध आदि यज्ञोंद्वारा सम्मानित होनेपर भी कोशलनरेश सौदासको महर्षि वसिष्ठके शापसे नरभक्षी राक्षस होना पड़ा || ३२ ||

अश्व॒त्थामा रामश्न मुनिपुत्रौ धनुर्थरौ

गच्छत: स्वर्गलोक॑ सुकृतेनेह कर्मणा ।॥। ३३ ।।

इसी प्रकार अश्वत्थामा और परशुराम--ये दोनों ही ऋषिपुत्र और धनुर्धर वीर हैं। इन दोनोंने पुण्यकर्म भी किये हैं तथापि उस कर्मके प्रभावसे स्वर्गमें नहीं गये |। ३३ ।।

वसुर्यज्ञशतैरिष्टवा द्वितीय इव वासव:

मिथ्याभिधानेनैकेन रसातलतलं गत: ।। ३४ ।।

द्वितीय इन्द्रके समान सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी राजा वसु एक ही मिथ्या भाषणके दोषसे रसातलको चले गये ।। ३४ ।।

बलिदवीैरोचनिर्बद्धों धर्मपाशेन दैवतै:

विष्णो: पुरुषकारेण पातालसदन: कृत: ॥। ३५ ।।

विरोचनकुमार बलिको देवताओंने धर्मपाशसे बाँध लिया और भगवान्‌ विष्णुके पुरुषार्थसे वे पातालवासी बना दिये गये ।। ३५ ।।

शक्रस्योद्गम्य चरणं प्रस्थितो जनमेजय:

द्विजस्त्रीणां वध कृत्वा कि दैवेन वारित: ।। ३६ ।।

राजा जनमेजय द्विज स्त्रियोंका वध करके इन्द्रके चरणका आश्रय ले जब स्वर्गलोकको प्रस्थित हुए, उस समय दैवने उसे आकर क्‍यों नहीं रोका ।। ३६ ।।

अज्ञानाद्‌ ब्राह्मणं हत्वा स्पृष्टोे बालवधेन |

वैशम्पायनविप्रर्षि: कि दैवेन वारित: ।। ३७ ।।

ब्रह्मर्षि वैशम्पायन अज्ञानवश ब्राह्णकी हत्या करके बाल-वधके पापसे भी लिप्त हो गये थे तो भी दैवने उन्हें स्वर्ग जानेसे क्यों नहीं रोका ।। ३७ ।।

गोप्रदानेन मिथ्या ब्राह्मणेभ्यो महामखे

पुरा नृगश्न राजर्षि: कूकलासत्वमागत: ।। ३८ ।।

पूर्वकालमें राजर्षि नृग बड़े दानी थे। एक बार किसी महायजञ्ञमें ब्राह्मणोंको गोदान करते समय उनसे भूल हो गयी; अर्थात्‌ एक गऊको दुबारा दानमें दे दिया, जिसके कारण उन्हें गिरगिटकी योनिमें जाना पड़ा ।। ३८ ।।

धुन्धुमारश्न राजर्षि: सत्रेष्वेव जरां गत:

प्रीतिदायं परित्यज्य सुष्वाप गिरिव्रजे || ३९ ।।

राजर्षि धुन्धुमार यज्ञ करते-करते बूढ़े हो गये तथापि देवताओंके प्रसन्नतापूर्वक दिये हुए वरदानको त्यागकर गिरिवत्रजमें सो गये (यज्ञका फल नहीं पा सके) ।।

पाण्डवानां हूतं राज्यं धार्तराष्ट्रमहाबलै:

पुन: प्रत्याह्दतं चैव दैवाद्‌ भुजसंश्रयात्‌ ।। ४० ।।

महाबली धृतराष्ट्र-पुत्रोंने पाण्डवोंका राज्य हड़प लिया था। उसे पाण्डवोंने पुनः बाहुबलसे ही वापस लिया। दैवके भरोसे नहीं ।। ४० ।।

तपोनियमसंयुक्ता मुनयः संशितव्रता:

कि ते दैवबलात्‌ शापमुत्सृजन्ते कर्मणा ।। ४१ ।।

तप और नियममें संयुक्त रहकर कठोर व्रतका पालन करनेवाले मुनि क्या दैवबलसे ही किसीको शाप देते हैं, पुरुषार्थके बलसे नहीं? ।। ४१ ।।

पापमुत्सृजते लोके सर्व प्राप्य सुदुर्लभम्‌

लोभमोहसमापन्न दैवं त्रायते नरम्‌ ।। ४२ ।।

संसारमें समस्त सुदुर्लभ सुख-भोग किसी पापीको प्राप्त हो जाय तो भी वह उसके पास टिकता नहीं, शीघ्र ही उसे छोड़कर चल देता है। जो मनुष्य लोभ और मोहमें डूबा हुआ है उसे दैव भी संकटसे नहीं बचा सकता ।।

यथाग्नि: पवनोद्धूतः सुसूक्ष्मोडपि महान्‌ भवेत्‌

तथा कर्मसमायुक्त दैवं साधु विवर्धते ।। ४३ ।।

जैसे थोड़ी-सी भी आग वायुका सहारा पाकर बहुत बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थका सहारा पाकर दैवका बल विशेष बढ़ जाता है ।। ४३ ।।

यथा तैलक्षयाद्‌ दीप: प्रह्यासमुपगच्छति तथा कर्मक्षयाद्‌ दैवं प्रहासमुपगच्छति ।। ४४ ।। जैसे तेल समाप्त हो जानेसे दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्मके क्षीण हो जानेपर दैव भी नष्ट हो जाता है ।। ४४ ।। विपुलमपि धनौघं प्राप्य भोगान्‌ स्त्रियो वा पुरुष इह शक्त: कर्महीनो हि भोक्तुम्‌ सुनिहितमपि चार्थ दैवतै रक्ष्यमाणं पुरुष इह महात्मा प्राप्तुते नित्ययुक्त: ।। ४५ ।। उद्योगहीन मनुष्य धनका बहुत बड़ा भण्डार, तरह-तरहके भोग और स्त्रियोंको पाकर भी उनका उपभोग नहीं कर सकता; किंतु सदा उद्योगमें लगा रहनेवाला महामनस्वी पुरुष देवताओंद्वारा सुरक्षित तथा गाड़कर रखे हुए धनको भी प्राप्त कर लेता है || ४५ ।। व्ययगुणमपि साधु कर्मणा संश्रयन्ते भवति मनुजलोकाद्‌ देवलोको विशिष्ट: बहुतरसुसमृद्ध्या मानुषाणां गृहाणि पितृवनभवनाभं दृश्यते चामराणाम्‌ ।। ४६ ।। जो दान करनेके कारण निर्धन हो गया है, ऐसे सत्पुरुषके पास उसके सत्कर्मके कारण देवता भी पहुँचते हैं और इस प्रकार उसका घर मनुष्यलोककी अपेक्षा श्रेष्ठ देवलोक-सा हो जाता है। परंतु जहाँ दान नहीं होता वह घर बड़ी भारी समृद्धिसे भरा हो तो भी देवताओंकी दृष्टिमें वह श्मशानके ही तुल्य जान पड़ता है || ४६ ।। फलति विकर्मा जीवलोके दैवं व्यपनयति विमार्ग नास्ति दैवे प्रभुत्वम्‌ | गुरुमिव कृतमग्रयं कर्म संयाति दैवं नयति पुरुषकार: संचितस्तत्र तत्र || ४७ ।। इस जीव-जगत्‌में उद्योगहीन मनुष्य कभी फूलता-फलता नहीं दिखायी देता। दैवमें इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे कुमार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगा दे। जैसे शिष्य गुरुको आगे करके चलता है उसी तरह दैव पुरुषार्थको ही आगे करके स्वयं उसके पीछे चलता है। संचित किया हुआ पुरुषार्थ ही दैवको जहाँ चाहता है, वहाँ-वहाँ ले जाता है || ४७ ।। एतत्‌ ते सर्वमाख्यातं मया वै मुनिसत्तम | फलं पुरुषकारस्य सदा संदृश्य तत्त्वतः ।। ४८ ।। मुनिश्रेष्ठ! मैंने सदा पुरुषार्थके ही फलको प्रत्यक्ष देखकर यथार्थरूपसे ये सारी बातें तुम्हें बतायी हैं || ४८ ।। अभ्युत्थानेन दैवस्य समारब्धेन कर्मणा विधिना कर्मणा चैव स्वर्गमार्गमवाप्लुयात्‌ ।। ४९ ।।

मनुष्य दैवके उत्थानसे आरम्भ किये हुए पुरुषार्थसे उत्तम विधि और शास्त्रोक्त सत्कर्मसे ही स्वर्गलोकका मार्ग पा सकता है ।। ४९ ।।

इति श्रीमहा भारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि दैवपुरुषकारनिर्देशे षष्ठोडध्याय: ॥। ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें दैव और पुरुषार्थका निर्देशविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥। ॥। (दाक्षिणात्य अधिक पाठके श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं)

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सप्तमो<्ध्याय:

कर्मोके फलका वर्णन

युधिछिर उवाच

कर्मणां समस्तानां शुभानां भरतर्षभ फलानि महतां श्रेष्ठ प्रब्रूहि परिपृच्छत: ।। ।। युधिष्ठिरने पूछा-महापुरुषोंमें प्रधान भरतश्रेष्ठ! अब मैं समस्त शुभ कर्मोके फल क्या हैं? यह पूछ रहा हूँ, अत: यही बताइये ।। ।। भीष्म उवाच

हन्त ते कथयिष्यामि यन्मां पृच्छसि भारत

रहस्यं यदृषीणां तु तच्छृणुष्व युधिष्ठिर

या गति: प्राप्यते येन प्रेत्यभावे चिरेप्सिता ।। ।।

भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन युधिष्ठिर! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, यह ऋषियोंके लिये भी रहस्यका विषय है; किंतु मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। सुनो, मरनेके बाद जिस मनुष्यको जैसी चिर अभिलषित गति मिलती है, उसका भी वर्णन करता हूँ ।। ।।

येन येन शरीरेण यद्‌ यत्‌ कर्म करोति यः

तेन तेन शरीरेण तत्‌ तत्‌ फलमुपाश्चुते ।। ।।

मनुष्य जिस-जिस (स्थूल या सूक्ष्म) शरीरसे जो-जो कर्म करता है उसी-उसी शरीरसे उस-उस कर्मका फल भोगता है ।। ।।

यस्यां यस्यामवस्थायां यत्‌ करोति शुभाशुभम्‌ |

तस्यां तस्यामवस्थायां भुद्धक्ते जन्मनि जन्मनि ।। ।।

जिस-जिस अवस्थामें वह जो-जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, प्रत्येक जन्मकी उसी- उसी अवस्थामें वह उसका फल भोगता है ।। ।।

नश्यति कृतं कर्म सदा पज्चेन्द्रियैरिह

ते हास्य साक्षिणो नित्यं पष्ठ आत्मा तथैव ।। ।।

पाँचों इन्द्रियोंद्रारा किया हुआ कर्म कभी नष्ट नहीं होता है। वे पाँचों इन्द्रियाँ और छठा मन--ये उस कर्मके साक्षी होते हैं || ।।

चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्‌ वाचं दद्याच्च सूनृताम्‌

अनुव्रजेदुपासीत यज्ञ: पञ्चदक्षिण: ॥। ।।

अतः मनुष्यको उचित है कि यदि कोई अतिथि घरपर जाय तो उसको प्रसन्न दृष्टिसे देखे। उसकी सेवामें मन लगावे। मीठी बोली बोलकर उसे संतुष्ट करे। जब वह जाने लगे तो

उसके पीछे-पीछे कुछ दूरतक जाय और जबतक वह रहे उसके स्वागत-सत्कारमें लगा रहे >-ये पाँच काम करना गृहस्थके लिये पाँच प्रकारकी दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ कहलाता है ।। |।

यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते |

श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्‌ ।। ।।

जो थके-माँदे अपरिचित पथिकको प्रसन्नतापूर्वक अन्न दान करता है, उसे महान्‌ पुण्यफलकी प्राप्ति होती है ।। ।।

स्थण्डिलेषु शयानानां गृहाणि शयनानि

चीरवल्कलसंवीते वासांस्याभरणानि ।। ।।

जो वानप्रस्थी वेदीपर शयन करते हैं उन्हें जन्मान्तरमें उत्तम गृह और शग्याकी प्राप्ति होती है। जो चीर और वल्कल वस्त्र पहनते हैं उन्हें दूसरे जन्ममें उत्तम वस्त्र और उत्तम आभूषणोंकी प्राप्ति होती है ।। ।।

वाहनानि यानानि योगात्मनि तपोधने

अग्नीनुपशयानस्य राज्ञ: पौरुषमेव ।। ।।

जिसका चित्त योगयुक्त होता है उस तपोधन पुरुषको दूसरे जन्ममें अच्छे-अच्छे वाहन और यान उपलब्ध होते हैं तथा अग्निकी उपासना करनेवाले राजाको जन्मान्तरमें पौरुषकी प्राप्ति होती है ।। ।।

रसानां प्रतिसंहारे सौभाग्यमनुगच्छति

आमिषप्रतिसंहारे पशून्‌ पुत्रांश्व विन्दति ।। १० ।।

रसोंका परित्याग करनेसे सौभाग्यकी और मांसका त्याग करनेसे पशुओं तथा पुत्रोंकी प्राप्ति होती है ।। १० ।।

अवाक्शिरास्तु यो लम्बेदुदवासं यो वसेत्‌

सततं चैकशायी य: लभेतेप्सितां गतिम्‌ ।। ११ ।।

जो तपस्वी नीचे सिर करके लटकता है अथवा जलमें निवास करता है; तथा जो सदा ही अकेला सोता (तब्रह्मचर्यका पालन करता) है, वह मनोवांछित गतिको प्राप्त होता है ।। ११ ||

पाद्यमासनमेवाथ दीपमन्नं प्रतिश्रयम्‌

दद्यादतिथिपूजार्थ यज्ञ: पजचदक्षिण: ।। १२ ।।

जो अतिथिको पैर धोनेके लिये जल, बैठनेके लिये आसन, प्रकाशके लिये दीपक, खानेके लिये अन्न और ठहरनेके लिये घर देता है, इस प्रकार अतिथिका सत्कार करनेके लिये इन पाँच वस्तुओंका दान 'पंचदक्षिण यज्ञ” कहलाता है ।। १२ ।।

वीरासनं वीरशय्यां वीरस्थानमुपागत:

अक्षयास्तस्य वै लोका: सर्वकामगमास्तथा ।। १३ ।।

जो वीरासन रणभूमिमें जाकर वीरशय्या (मृत्यु)-को प्राप्त हो वीरस्थान (स्वर्गलोक) में जाता है, उसे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति होती है। वे लोक सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाले होते हैं ।। १३ ।।

धनं लभेत दानेन मौनेनाज्ञां विशाम्पते

उपभोगांश्व तपसा ब्रद्मचर्येण जीवितम्‌ ।। १४ ।।

प्रजानाथ! मनुष्य दानसे धन पाता है, मौन-व्रतके पालनसे दूसरोंद्वारा आज्ञापालन करानेकी शक्ति प्राप्त करता है, तपस्यासे भोग और ब्रह्मचर्य-पालनसे जीवन (आयु)-की उपलब्धि होती है ।। १४ ।।

रूपमैश्वर्यमारोग्यमहिंसाफलम श्षुते

फलमूलाशिनो राज्यं स्वर्ग: पर्णाशिनां भवेत्‌ ।। १५ ।।

अहिंसा धर्मके आचरणसे रूप, ऐश्वर्य और आरोग्यरूपी फलकी प्राप्ति होती है। फल- मूल खानेवालेको राज्य और पत्ते चबाकर रहनेवालेको स्वर्गकी प्राप्ति होती है ।। १५ ।।

प्रायोपवेशिनो राजन्‌ सर्वत्र सुखमुच्यते

गवाढ्य: शाकदीक्षायां स्वर्गगामी तृणाशन: ।। १६ ।।

राजन! जो आमरण अनशनका व्रत लेकर बैठता है उसके लिये सर्वत्र सुख बताया गया है। शाकाहारकी दीक्षा लेनेपर गोधनकी प्राप्ति होती है और तृण खाकर रहनेवाला पुरुष स्वर्गलोकमें जाता है || १६ ।।

स्त्रियस्त्रिषवर्णं स्नात्वा वायुं पीत्वा क्रतुं लभेत्‌

स्वर्ग सत्येन लभते दीक्षया कुलमुत्तमम्‌ ।। १७ ।।

स्त्री-सम्बन्धी भोगोंका परित्याग करके त्रिकाल स्नान करते हुए वायु पीकर रहनेसे यज्ञका फल प्राप्त होता है। सत्यसे मनुष्य स्वर्गको और दीक्षासे उत्तम कुलको पाता है ।। १७ ।।

सलिलाशी भवेद्‌ यस्तु सदाग्नि: संस्कृतो द्विज:

मनुं साधयतो राज्यं नाकपृष्ठमनाशके ॥। १८ ।।

जो ब्राह्मण सदा जल पीकर रहता है, अग्निहोत्र करता है और मन्त्र-साधनामें संलग्न रहता है, उसे राज्य मिलता है और निराहारखरत करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है ।। १८ ।।

उपवासं दीक्षायामभिषेकं पार्थिव

कृत्वा द्वादश वर्षाणि वीरस्थानाद्‌ विशिष्यते ।। १९ ।।

पृथ्वीनाथ! जो पुरुष बारह वर्षोतकके लिये व्रतकी दीक्षा लेकर अन्नका त्याग करता और तीर्थोमें स्नान करता रहता है, उसे रणभूमिमें प्राण त्यागनेवाले वीरसे भी बढ़कर उत्तम लोककी प्राप्ति होती है ।। १९ ।।

अधीत्य सर्ववेदान्‌ वै सद्यो दुःखादू विमुच्यते

मानसं हि चरन्‌ धर्म स्वर्गलोकमुपाश्ुते || २० ।।

जो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर लेता है, वह तत्काल दु:ःखसे मुक्त हो जाता है तथा जो मनसे धर्मका आचरण करता है, उसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है || २० ।।

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या जीर्य॑ति जीर्यत:

योडसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजत: सुखम्‌ ।। २१ ।।

खोटी बुद्धिवाले पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्यके जीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणनाशक रोगके समान सदा कष्ट देती रहती है, उस तृष्णाका त्याग कर देनेवाले पुरुषको ही सुख मिलता है || २१ ।।

यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्‌ |

एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।। २२ ।।

जैसे बछड़ा हजारों गौओंके बीचमें अपनी माताको ढूँढ़ लेता है, उसी प्रकार पहलेका किया हुआ कर्म भी कर्ताको पहचानकर उसका अनुसरण करता है ।। २२ ।।

अचोटद्यमानानि यथा पुष्पाणि फलानि

स्वकाल नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुरा कृतम्‌ ।। २३ ।।

जैसे फूल और फल किसीकी प्रेरणा होनेपर भी अपने समयका उल्लंघन नहीं करते --ठीक समयपर फूलने-फलने लग जाते हैं, वैसे ही पहलेका किया हुआ कर्म भी समयपर फल देता ही है || २३ ।।

जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यत:

चक्षु:श्रोत्रे जीर्येते तृष्णैका तु जीर्यते ।। २४ ।।

मनुष्यके जीर्ण (जराग्रस्त) होनेपर उसके केश जीर्ण होकर झड़ जाते हैं, वृद्ध पुरुषके दाँत भी टूट जाते हैं, नेत्र और कान भी जीर्ण होकर अन्धे-बहरे हो जाते हैं। केवल तृष्णा ही जीर्ण नहीं होती है (वह सदा नयी-नवेली बनी रहती है) ।। २४ ।।

येन प्रीणाति पितरं तेन प्रीत: प्रजापति:

प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता ।। २५ ।।

येन प्रीणात्युपाध्यायं तेन स्याद्‌ ब्रह्म पूजितम्‌

मनुष्य जिस व्यवहारसे पिताको प्रसन्न करता है, उससे भगवान्‌ प्रजापति प्रसन्न होते हैं। जिस बर्तावसे वह माताको सन्तुष्ट करता है, उससे पृथ्वी देवीकी भी पूजा हो जाती है तथा जिससे वह उपाध्यायको तृप्त करता है, उसके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न हो जाती है || २५३ ।।

सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृता:

अनादूृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफला: क्रिया: ।। २६ ।।

जिसने इन तीनोंका आदर किया, उसके द्वारा सभी धर्मोका आदर हो गया और जिसने इन तीनोंका अनादर कर दिया, उसकी सम्पूर्ण यज्ञादिक क्रियाएँ निष्फल हो जाती

हैं ।। २६ ।। वैशम्पायन उवाच भीष्मस्यैतद्‌ वचःश्रुत्वा विस्मिता: कुरुपुड्रवा: आसन प्रहृष्टमनस: प्रीतिमन्तो5भवंस्तदा ।। २७ ।। वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीष्मजीकी यह बात सुनकर समस्त श्रेष्ठ कुरुवंशी आश्वर्यचकित हो उठे। सबके मनमें हर्षजनित उल्लास भर गया। उस समय सभी बड़े प्रसन्न हुए || २७ ।। भीष्म उवाच यन्मन्त्रे भवति वृथोपयुज्यमाने यत्‌ सोमे भवति वृथाभिषूयमाणे यच्चाग्नौ भवति वृथाभिटृ्‌यमाने तत्‌ सर्व भवति वृथाभिधीयमाने ।। २८ ।। भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! वेदमन्त्रोंका व्यर्थ (अशुद्ध) उपयोग (उच्चारण) करनेपर जो पाप लगता है, सोमयागको दक्षिणा आदि देनेके कारण व्यर्थ कर देनेपर जो दोष लगता है तथा विधि और मन्त्रके बिना अग्निमें निरर्थक आहुति देनेपर जो पाप होता है; वह सारा पाप मिथ्या भाषण करनेसे प्राप्त होता है ।। २८ ।। इत्येतदृषिणा प्रोक्तमुक्तवानस्मि यद्‌ विभो शुभाशुभफलप्राप्ती किमत: श्रोतुमिच्छसि ।। २९ ।। राजन! शुभ और अशुभ फलकी प्राप्तिके विषयमें महर्षि व्यासने ये सब बातें बतायी थीं, जिन्हें मैंने इस समय तुमसे कहा है। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।।

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि कर्मफलिकोपाख्याने सप्तमो<थध्याय: ।॥ ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कर्मफलका उपाख्यानविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥।

ऑपन-माज बछ। डे

अष्टमो< ध्याय: श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी महिमा

युधिछिर उवाच

के पूज्या: के नमस्कार्या: कान्‌ नमस्यसि भारत

एतन्मे सर्वमाचक्ष्व येभ्य: स्पृहयसे नूप ।। ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! इस जगत्‌में कौन-कौन पुरुष पूजन और नमस्कारके योग्य हैं? आप किनको प्रणाम करते हैं? तथा नरेश्वर! आप किनको चाहते हैं? यह सब मुझे बताइये ।। ।।

उत्तमापद्गतस्यापि यत्र ते वर्तते मन:

मनुष्यलोके सर्वस्मिन्‌ यदमुत्रेह चाप्युत ।। ।।

बड़ी-से-बड़ी आपत्तिमें पड़नेपर भी आपका मन किनका स्मरण किये बिना नहीं रहता? तथा इस समस्त मानवलोक और परलोकमें हितकारक क्‍या है? ये सब बातें बतानेकी कृपा करें ।। ।।

भीष्म उवाच

स्पृहयामि द्विजातिभ्यो येषां ब्रह्म परं धनम्‌

येषां स्वप्रत्यय: स्वर्गस्तप: स्वाध्यायसाधनम्‌ ।। ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जिनका ब्रह्म (वेद) ही परम धन है, आत्मज्ञान ही स्वर्ग है तथा वेदोंका स्वाध्याय करना ही श्रेष्ठ तप है, उन ब्राह्मणोंको मैं चाहता हूँ ।। ।।

येषां बालाश्न वृद्धाश्व पितृपैतामहीं धुरम्‌

उद्धहन्ति सीदन्ति तेभ्यो वै स्पृहयाम्यहम्‌ ।। ।।

जिनके कुलमें बच्चेसे लेकर बूढ़ेतक बाप-दादोंकी परम्परासे चले आनेवाले धार्मिक कार्यका भार सँभालते हैं; परंतु उसके लिये मनमें कभी खेदका अनुभव नहीं करते है; ऐसे ही लोगोंको मैं चाहता हूँ ।। ।।

विद्यास्वभिविनीतानां दान्तानां मृदुभाषिणाम्‌ |

श्रुतवृत्तोपपन्नानां सदाक्षरविदां सताम्‌ ।। ।।

संसत्सु वदतां तात हंसानामिव संघश:

मड्ुल्यरूपा रुचिरा दिव्यजीमूतनि:स्वना: ।। ।।

सम्यगुच्चरिता वाच: श्रूयन्ते हि युधिष्ठिर

शुश्रूषमाणे नृपतौ प्रेत्य चेह सुखावहा: ।। ।।

जो विनीत भावसे विद्याध्ययन करते हैं, इन्द्रियोंको संयममें रखते हैं और मीठे वचन बोलते हैं, जो शास्त्रज्ञान और सदाचार दोनोंसे सम्पन्न हैं, अविनाशी परमात्माको जाननेवाले सत्पुरुष हैं, तात युधिष्ठिर! सभाओंमें बोलते समय हंससमूहोंकी भाँति जिनके मुखसे मेघके समान गम्भीर स्वरसे मनोहर मंगलमयी एवं अच्छे ढंगसे कही गयी बातें सुनायी देती हैं, उन ब्राह्मणोंको ही मैं चाहता हूँ। यदि राजा उन महात्माओंकी बातें सुननेकी इच्छा रखे तो वे उसे इहलोक और परलोकमें भी सुख पहुँचानेवाली होती हैं || ५--७ ।।

ये चापि तेषां श्रोतार: सदा सदसि सम्मता:

विज्ञानगुणसम्पन्नास्ते भ्य श्ष॒ स्पृहयाम्यहम्‌ ।। ।।

जो प्रतिदिन उन महात्माओंकी बातें सुनते हैं, वे श्रोता विज्ञानगुणसे सम्पन्न हो सभाओंमें सम्मानित होते हैं। मैं ऐसे श्रोताओंकी भी चाह रखता हूँ ।। ।।

सुसंस्कृतानि प्रयता: शुचीनि गुणवन्ति |

ददत्यन्नानि तृप्त्यर्थ ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठिर ।। ।।

ये चापि सतत राजंस्तेभ्यश्व स्पृहयाम्यहम्‌

राजा युधिष्ठिर! जो पवित्र होकर ब्राह्मणोंको उनकी तृप्तिके लिये शुद्ध और अच्छे ढंगसे तैयार किये हुए पवित्र तथा गुणकारक अन्न परोसते हैं, उनको भी मैं सदा चाहता हूँ ।। ९३६ ।।

शक्यं होवाहवे योद्धं दातुमनसूयितम्‌ ।। १० ।।

शूरा वीराश्न शतश: सन्ति लोके युधिष्छिर

येषां संख्यायमानानां दानशूरो विशिष्यते ।। ११ ।।

युधिष्ठिर! संग्राममें युद्ध करना सहज है। परंतु दोषदृष्टिसे रहित होकर दान देना सहज नहीं है। संसारमें सैकड़ों शूरवीर हैं; परंतु उनकी गणना करते समय जो उनमें दानशूर हो, वही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है ।।

धन्य: स्यां यद्य॒हं भूय: सौम्य ब्राह्मणको5पि वा |

कुले जातो धर्मगतिस्तपोविद्यापरायण: ।। १२ ।।

सौम्य! यदि मैं कुलीन, धर्मात्मा, तपस्वी और विद्वान्‌ अथवा कैसा भी ब्राह्मण होता तो अपनेको धन्य समझता || १२ ।।

मे त्वत्त: प्रियतरो लोके5स्मिन्‌ पाण्डुनन्दन

त्वत्तश्षापि प्रियतरा ब्राह्मणा भरतर्षभ ।। १३ ।।

पाण्डुनन्दन! इस संसारमें मुझे तुमसे अधिक प्रिय कोई नहीं है; परंतु भरतश्रेष्ठ! ब्राह्मणोंको मैं तुमसे भी अधिक प्रिय मानता हूँ ।। १३ ।।

यथा मम प्रियतमास्त्वत्तो विप्रा: कुरूत्तम |

तेन सत्येन गच्छेयं लोकान्‌ यत्र शान्तनुः ।। १४ ।।

कुरुश्रेष्ठ! “ब्राह्मण मुझे तुम्हारी अपेक्षा भी बहुत अधिक प्रिय हैं--इस सत्यके प्रभावसे मैं उन्हीं पुण्यलोकोंमें जाऊँगा जहाँ मेरे पिता महाराज शान्तनु गये हैं ।। १४ ।।

मे पिता प्रियतरो ब्राह्मणेभ्यस्तथाभवत्‌

मे पितु: पिता वापि ये चान्येडपि सुहृज्जना: ।। १५ ।।

मेरे पिता भी मुझे ब्राह्मणोंकी अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं रहे हैं। पितामह और अन्य सुहृदोंको भी मैंने कभी ब्राह्मणोंसे अधिक प्रिय नहीं समझा है || १५ ।।

नहि मे वृजिनं किंचिद्‌ विद्यते ब्राह्मणेष्विह

अणु वा यदि वा स्थूलं विद्यते साधुकर्मसु ।। १६ ।।

मेरे द्वारा ब्राह्मणोंके प्रति किन्हीं श्रेष्ठ कर्मोमें कभी छोटा-मोटा किंचिन्मात्र भी अपराध नहीं हुआ है ।। १६ ।।

कर्मणा मनसा वापि वाचा वापि परंतप

यन्मे कृतं ब्राह्मुणेभ्यस्तेनाद्य तपाम्यहम्‌ ।। १७ ।।

शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! मैंने मन, वाणी और कर्मसे ब्राह्मणोंका जो थोड़ा- बहुत उपकार किया है, उसीके प्रभावसे आज इस अवस्थामें पड़ जानेपर भी मुझे पीड़ा नहीं होती है || १७ ।।

ब्रह्मण्य इति मामाहुस्तया वाचास्मि तोषित:

एतदेव पवित्रेभ्य: सर्वेभ्य: परमं स्मृतम्‌ ।। १८ ।।

लोग मुझे ब्राह्मणभक्त कहते हैं। उनके इस कथनसे मुझे बड़ा संतोष होता है। ब्राह्मणोंकी सेवा ही सम्पूर्ण पवित्र कर्मोंसे बढ़कर परम पवित्र कार्य है ।। १८ ।।

पश्यामि लोकानमलान्‌ शुचीन्‌ ब्राह्मणयायिन:

तेषु मे तात गन्तव्यमह्वाय चिराय ।। १९ |।

तात! ब्राह्मणकी सेवामें रहनेवाले पुरुषको जिन पवित्र और निर्मल लोकोंकी प्राप्ति होती है, उन्हें मैं यहींसे देखता हूँ। अब शीघ्र मुझे चिरकालके लिये उन्हीं लोकोंमें जाना है ।। १९ ||

यथा भार्त्राश्रियो धर्म: स्त्रीणां लोके युधिष्ठिर

देव: सा गतिर्नन्या क्षत्रियस्य तथा द्विजा: ॥। २० ।।

युधिष्ठिर! जैसे स्त्रियोंके लिये पतिकी सेवा ही संसारमें सबसे बड़ा धर्म है, पति ही उनका देवता और वही उनकी परम गति है, उनके लिये दूसरी कोई गति नहीं है; उसी प्रकार क्षत्रियके लिये ब्राह्मणकी सेवा ही परम धर्म है। ब्राह्मण ही उनका देवता और परम गति है, दूसरा नहीं || २० ।।

क्षत्रिय: शतवर्षी दशवर्षी द्विजोत्तम:

पितापुत्रौ विज्ञेयौ तयोरहिं ब्राह्मणो गुरु: २१ ।।

क्षत्रिय सौ वर्षका हो और श्रेष्ठ ब्राह्मण दस वर्षकी अवस्थाका हो तो भी उन दोनोंको परस्पर पुत्र और पिताके समान जानना चाहिये। उनमें ब्राह्मण पिता है और क्षत्रिय पुत्र | २१ |।

नारी तु पत्यभावे वै देवरं कुरुते पतिम्‌

पृथिवी ब्राह्मणालाभे क्षत्रियं कुरुते पतिम्‌ ।। २२ ।।

जैसे नारी पतिके अभावमें देवरको पति बनाती है, उसी प्रकार पृथ्वी ब्राह्मणके मिलनेपर ही क्षत्रियको अपना अधिपति बनाती है || २२ ।।

(ब्राह्मणानुज्ञया ग्राह्मूं राज्यं सपुरोहितै:

तद्रक्षणेन स्वर्गोडस्य तत्कोपान्नरको$क्षय: ।।)

पुरोहितसहित राजाओंको ब्राह्मणकी आज्ञासे राज्य ग्रहण करना चाहिये। ब्राह्मणकी रक्षासे ही राजाको स्वर्ग मिलता है और उसको रुष्ट कर देनेसे वह अनन्तकालके लिये नरकमें गिर जाता है ।।

पुत्रवच्च ततो रक्ष्या उपास्या गुरुवच्च ते

अग्निवच्चोपचर्य वै ब्राह्मणा: कुरुसत्तम ।। २३ ।।

कुरुश्रेष्ठ! ब्राह्मणोंकी पुत्रके समान रक्षा, गुरुकी भाँति उपासना और अग्निकी भाँति उनकी सेवा-पूजा करनी चाहिये ।। २३ ।।

ऋजून्‌ सतः सत्यशीलान्‌ सर्वभूतहिते रतान्‌

आशीविषानिव क्रुद्धान्‌ द्विजान्‌ परिचरेत्‌ सदा ।। २४ ।।

(दूरतो मातृवत्‌ पूज्या विप्रदारा: सुरक्षया ।)

सरल, साधु, स्वभावत:ः सत्यवादी तथा समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले ब्राह्मणोंकी सदा ही सेवा करनी चाहिये और क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पके समान समझकर उनसे भयभीत रहना चाहिये। ब्राह्मणोंकी जो स्त्रियाँ हों उनकी भी सुरक्षाका ध्यान रखते हुए माताके समान उनका दूरसे ही पूजन करना चाहिये ।।

तेजसस्तपसश्चैव नित्यं बिभ्येद्‌ युधिष्ठिर

उभे चैते परित्याज्ये तेजश्रैव तपस्तथा ।। २५ ।।

युधिष्ठिर! ब्राह्मणोंक तेज और तपसे सदा डरना चाहिये तथा उनके सामने अपने तप एवं तेजका अभिमान त्याग देना चाहिये |। २५ ।।

व्यवसायस्तयो: शीघ्रमुभयोरेव विद्यते

हन्युः क्रुद्धा महाराज ब्राह्मणा ये तपस्विन: ।। २६ ।।

महाराज! ब्राह्मणके तप और क्षत्रियके तेजका फल शीघ्र ही प्रकट होता है तथापि जो तपस्वी ब्राह्मण हैं वे कुपित होनेपर तेजस्वी क्षत्रियको अपने तपके प्रभावसे मार सकते हैं ।। २६ |।

भूय: स्यादुभयं दत्तं ब्राह्मणाद्‌ यदकोपनात्‌

कुर्यादुभयत: शेषं दत्तशेषं शेषयेत्‌ ।। २७ ।।

क्रोधरहित--क्षमाशील ब्राह्मणको पाकर क्षत्रियकी ओरसे अधिक मात्रामें प्रयुक्त किये गये तप और तेज आगपर रूईके ढेरके समान तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यदि दोनों ओरसे एक-दूसरेपर तेज और तपका प्रयोग हो तो उनका सर्वथा नाश नहीं होता; परंतु क्षमाशील ब्राह्मणके द्वारा खण्डित होनेसे बचा हुआ क्षत्रियका तेज किसी तेजस्वी ब्राह्मणपर प्रयुक्त हो तो वह उससे प्रतिहत होकर सर्वथा नष्ट हो जाता है, थोड़ा-सा भी शेष नहीं रह जाता ।। २७ ||

दण्डपाणियर्यथा गोषु पालो नित्यं हि रक्षयेत्‌

ब्राह्मणान्‌ ब्रह्म तथा क्षत्रिय: परिपालयेत्‌ ।। २८ ।।

जैसे चरवाहा हाथमें डंडा लेकर सदा गौओंकी रखवाली करता है, उसी प्रकार क्षत्रियको उचित है कि वह ब्राह्मणों और वेदोंकी सदा रक्षा करे || २८ ।।

पितेव पुत्रान्‌ रक्षेथा ब्राह्म॒णान्‌ धर्मचेतस:

गृहे चैषामवेक्षेथा: किंस्विदस्तीति जीवनम्‌ ॥। २९ |।

राजाको चाहिये कि वह धर्मात्मा ब्राह्मणोंकी उसी तरह रक्षा करे, जैसे पिता पुत्रोंकी करता है। वह सदा इस बातकी देख-भाल करता रहे कि उनके घरमें जीवन-निर्वाहके लिये क्या है और क्या नहीं है ।। २९ ।।

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टमो5ध्याय: ।। ।। इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी प्रशंशाविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। (दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६ श्लोक मिलाकर कुल ३०३ श्लोक हैं)

भीस्न्म+ज (2) आसजमसना

नवमो<्ध्याय:

ब्राह्मणको देनेकी प्रतिज्ञा करके देने तथा उसके धनका

अपहरण करनेसे दोषकी प्राप्तिके विषयमें सियार और

वानरके संवादका उल्लेख एवं ब्राह्मणोंको दान देनेकी महिमा

युधिछिर उवाच

ब्राह्मणानां तु ये लोका: प्रतिश्रुत्य पितामह

प्रयच्छन्ति मोहात्‌ ते के भवन्ति महाद्युते || ।।

एतनमे तत्त्वतो ब्रूहि धर्म धर्मभूतां वर

प्रतिश्रुत्य दुरात्मानो प्रयच्छन्ति ये नरा: ।। ।॥।

युधिष्ठिरने पूछा--धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी पितामह! जो लोग ब्राह्मणोंको कुछ

देनेकी प्रतिज्ञा करके फिर मोहवश नहीं देते जो दुरात्मा दानका संकल्प करके भी दान नहीं देते वे क्या होते हैं? यह धर्मका विषय मुझे यथार्थरूपसे बताइये ।। १-२ ।।

भीष्म उवाच

यो दद्यात्‌ प्रतिश्रुत्य स्वल्पं वा यदि वा बहु आशास्तस्य हता: सर्वा: क्लीबस्येव प्रजाफलम्‌ ।। भीष्मजीने कहा--युथधिष्ठिर! जो थोड़ा या अधिक देनेकी प्रतिज्ञा करके उसे नहीं देता

है, उसकी सभी आशाएँ वैसे ही नष्ट हो जाती हैं जैसे नपुंसककी संतानरूपी फलविषयक आशा || ||

यां रात्रि जायते जीवो यां रात्रि विनश्यति

एतस्मिन्नन्तरे यद्‌ यत्‌ सुकृतं तस्य भारत ।। ।।

यच्च तस्य हुतं किंचिद्‌ दत्तं वा भरतर्षभ

तपस्तप्तमथो वापि सर्व तस्योपहन्यते ।। ।।

भरतनन्दन! जीव जिस रातको जन्म लेता है और जिस रातको उसकी मौत होती है--

इन दोनों रात्रियोंके बीचमें जीवनभर वह जो-जो पुण्यकर्म करता है, भरतश्रेष्ठ! उसने आजीवन जो कुछ होम, दान तथा तप किया होता है, उसका वह सब कुछ उस प्रतिज्ञा- भंगके पापसे नष्ट हो जाता है ।। ४-५ ।।

अथैतद्‌ वचन प्राहुर्धर्मशास्त्रविदो जना: निशम्य भरतश्रेष्ठ बुद्ध्या परमयुक्तया ।। ।।

भरतश्रेष्ठ! धर्मशास्त्रके ज्ञाता मनुष्य अपनी परम योगयुक्त बुद्धिसे विचार करके यह उपर्युक्त बात कहते हैं ।। ।।

अपि चोदाहरन्तीमं धर्मशास्त्रविदो जना:

अश्वानां श्यामकर्णानां सहस्रेण मुच्यते ।। ।।

धर्मशास्त्रोंके विद्वान यह भी कहते हैं कि प्रतिज्ञा-भंगका पाप करनेवाला पुरुष एक हजार श्यामकर्ण घोड़ोंका दान करनेसे उस पापसे मुक्त होता है || ।।

अन्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌ |

शृगालस्य संवादं वानरस्य भारत ॥। ।।

भारत! इस विषयमें विज्ञ पुरुष सियार और वानरके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ।।

तौ सखायोौ पुरा ह्ास्तां मानुषत्वे परंतप

अन्यां योनिं समापन्नौ शार्गालीं वानरीं तथा ॥। ।।

शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! मनुष्य-जन्ममें जो दोनों पहले एक-दूसरेके मित्र थे, वे ही दूसरे जन्ममें सियार और वानरकी योनिमें प्राप्त हो गये ।। ।।

ततः परासून्‌ खादन्तं शृगालं वानरोउब्रवीत्‌

श्मशानमध्ये सम्प्रेक्ष्य पूर्वजातिमनुस्मरन्‌ ।। १० ।।

कि त्वया पापकं पूर्व कृतं कर्म सुदारुणम्‌

यस्त्वं श्मशाने मृतकान्‌ पूतिकानत्सि कुत्सितान्‌ ११ ।।

तदनन्तर एक दिन सियारको मरघटमें मुर्दे खाता देख वानरने पूर्व-जन्मका स्मरण करके पूछा--“भैया! तुमने पहले जन्ममें कौन-सा भयंकर पाप किया था, जिससे तुम मरघटमें घृणित एवं दुर्गन्धयुक्त मुर्दे खा रहे हो?” ।। १०-११ ।।

एवमुक्त: प्रत्युवाच शृगालो वानरं तदा

ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुत्य मया तदुपाहृतम्‌ ।। १२ ।।

तत्कृते पापकीं योनिमापन्नो5स्मि प्लवड्भम

तस्मादेवंविध॑ भक्ष्यं भक्षयामि बुभुक्षित: ।। १३ ।।

वानरके इस प्रकार पूछनेपर सियारने उसे उत्तर दिया--'भाई वानर! मैंने ब्राह्मणको देनेकी प्रतिज्ञा करके वह वस्तु उसे नहीं दी थी। इसीके कारण मैं इस पापयोनिमें पड़ा हूँ और उसी पापसे भूखा होनेपर मुझे इस तरहका घृणित भोजन करना पड़ता है! || १२-१३ ।।

भीष्म उवाच

शृगालो वानरं प्राह पुनरेव नरोत्तम कि त्वया पातकं कर्म कृतं येनासि वानर: ।। १४ ।। भीष्मजी कहते हैं--नरश्रेष्ठत इसके बाद सियारने वानरसे पुनः पूछा--“तुमने कौन- सा पाप किया था? जिससे वानर हो गये?” ।। १४ ।। वानर उवाच

सदा चाहं फलाहारो ब्राह्मणानां प्लवड्भम:

तस्मान्न ब्राह्मणस्वं तु हर्तव्यं विदुषा सदा सम॑ विवादो मोक्तव्यो दातव्यं प्रतिश्रुतम्‌ १५ ।। वानरने कहा--मैं सदा ब्राह्मणोंका फल चुराकर खाया करता था; इसी पापसे वानर हुआ। अतः विज्ञ पुरुषको कभी ब्राह्मणका धन नहीं चुराना चाहिये। उनके साथ कभी झगड़ा नहीं करना चाहिये और उनके लिये जो वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा की गयी हो, वह अवश्य दे देनी चाहिये || १५ ।। भीष्म उवाच

इत्येतद्‌ ब्रुवतो राजन्‌ ब्राह्मणस्य मया श्रुतम्‌

कथां कथयत: पुण्यां धर्मज्ञस्य पुरातनीम्‌ ।। १६ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! यह कथा मैंने एक धर्मज्ञ ब्राह्मणके मुखसे सुनी है; जो प्राचीनकालकी पवित्र कथाएँ सुनाता था ।। १६ ।।

श्रुतश्चापि मया भूय: कृष्णस्यापि विशाम्पते |

कथां कथयत: पूर्व ब्राह्मणं प्रति पाण्डव ।। १७ ।।

प्रजानाथ! पाण्डुनन्दन! फिर मैंने यही बात भगवान्‌ श्रीकृष्णके मुखसे भी सुनी थी; जब कि वे पहले किसी ब्राह्मणसे ऐसी ही कथा कह रहे थे || १७ ।।

हर्तव्यं विप्रधन क्षन्तव्यं तेषु नित्यश:

बालाश्व नावमन्तव्या दरिद्रा: कृपणा अपि | १८ ।।

ब्राह्मणका धन कभी नहीं चुराना चाहिये। वे अपराध करें तो भी सदा उनके प्रति क्षमाभाव ही रखना चाहिये। वे बालक, दरिद्र अथवा दीन हों तो भी उनका अनादर नहीं करना चाहिये ।। १८ ।।

एवमेव मां नित्यं ब्राह्मणा: संदिशन्ति वै

प्रतिश्रुत्य भवेद्‌ देयं नाशा कार्या द्विजोत्तमे ।। १९ ।।

ब्राह्मगलोग भी मुझे सदा यही उपदेश दिया करते थे कि प्रतिज्ञा कर लेनेपर वह वस्तु ब्राह्यणको दे ही देनी चाहिये। किसी श्रेष्ठ ब्राह्ोणणी आशा भंग नहीं करनी चाहिये ।। १९ ।।

ब्राह्मणो हवाशया पूर्व कृतया पृथिवीपते

सुसमिद्धो यथा दीप्त: पावकस्तद्विध: स्मृत: ।। २० ।।

पृथ्वीनाथ! ब्राह्मणको पहले आशा दे देनेपर वह समिधासे प्रज्वलित हुई अग्निके समान उद्दीप्त हो उठता है ।।

य॑ निरीक्षेत संक्रुद्ध आशया पूर्वजातया

प्रदहेच्च हि तं राजन्‌ कक्षमक्षय्यभुग्‌ यथा ।। २१ ।।

राजन! पहलेकी लगी हुई आशा भंग होनेसे अत्यन्त क्रोधमें भरा हुआ ब्राह्मण जिसकी ओर देख लेता है, उसे उसी प्रकार जलाकर भस्म कर डालता है, जैसे अग्नि सूखी लकड़ी अथवा तिनकोंके बोझको जला देती है || २१ ।।

एव हि यदा तुष्टो वचसा प्रतिनन्दति

भवत्यगदसंकाशो विषये तस्य भारत ।। २२ ।।

भारत! वही ब्राह्मण जब आशापूर्तिसे संतुष्ट होकर वाणीद्वारा राजाका अभिनन्दन करता है--उसे आशीर्वाद देता है, तब उसके राज्यके लिये वह चिकित्सकके तुल्य हो जाता है ।। २२ ।।

पुत्रान्‌ पौत्रान्‌ पशुंश्वैव बान्धवान्‌ सचिवांस्तथा

पुरं जनपदं चैव शान्तिरिष्टेन पोषयेत्‌ || २३ ।।

तथा उस दाताके पुत्र-पौत्र, बन्धु-बान्धव, पशु, मन्त्री, नगर और जनपदके लिये वह शान्तिदायक बनकर उन्हें कल्याणका भागी बनाता और उन सबका पोषण करता है || २३ ।।

एतद्धि परम॑ तेजो ब्राह्मणस्येह दृश्यते

सहस्रकिरणस्येव सवितुर्धरणीतले ।। २४ ।।

इस पृथ्वीपर ब्राह्मणका उत्कृष्ट तेज सहस्र किरणोंवाले सूर्यदेवके समान दृष्टिगोचर होता है ।। २४ ।।

तस्माद्‌ दातव्यमेवेह प्रतिश्रुत्य युधिष्ठिर

यदीच्छेच्छो भनां जातिं प्राप्तुं भरतसत्तम ।। २५ ।।

भरतश्रेष्ठ युधिष्ठि!! इसलिये जो उत्तम योनिमें जन्म लेना चाहता हो, उसे ब्राह्मणको देनेकी प्रतिज्ञा की हुई वस्तु अवश्य दे डालनी चाहिये | २५ ।।

ब्राह्मणस्य हि दत्तेन ध्रुवं स्वर्गो हानुत्तम:

शक्य: प्राप्तुंविशेषेण दानं हि महती क्रिया ।। २६ ।।

ब्राह्मणको दान देनेसे निश्चय ही परम उत्तम स्वर्गलोकको विशेष रूपसे प्राप्त किया जा सकता है; क्योंकि दान महान्‌ पुण्यकर्म है ।। २६ ।।

इतो दत्तेन जीवन्ति देवता: पितरस्तथा

तस्माद्‌ दानानि देयानि ब्राह्मणेभ्यो विजानता ।। २७ ।।

इस लोकमें ब्राह्मणको दान देनेसे देवता और पितर तृप्त होते हैं; इसलिये विद्वान्‌ पुरुष ब्राह्मणको अवश्य दान दे ।। २७ ।।

महद्धि भरतश्रेष्ठ ब्राह्मणस्तीर्थमुच्यते

वेलायां तु कस्यांचिद्‌ गच्छेद्‌ विप्रो हपूजित: ।। २८ ।।

भरतश्रेष्ठ! ब्राह्मण महान्‌ तीर्थ कहे जाते हैं; अतः वे किसी भी समय घरपर जायाँ तो बिना सत्कार किये उन्हें नहीं जाने देना चाहिये | २८ ।।

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि शृगालवानरसंवादे नवमो<ध्याय: ॥। || इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपववके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें सियार और वानरका संवादविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ॥।

अपन क्राता बछ। अं काज

दशमो< ध्याय:

अनधिकारीको उपदेश देनेसे हानिके विषयमें एक शूद्र और तपस्वी ब्राह्मणकी कथा

युधिछिर उवाच

मित्रसौहार्दयोगेन उपदेशं करोति यः

जात्याधरस्य राजर्षेदोषस्तस्य भवेन्न वा ।। ।।

एतदिच्छामि तत्त्वेन व्याख्यातुं वै पितामह

सूक्ष्मा गतिर्हिं धर्मस्य यत्र मुहान्ति मानवा: ।। ।।

युधिछिरने पूछा--पितामह! यदि कोई मित्रता या सौहार्दके सम्बन्धसे किसी नीच जातिके मनुष्यको उपदेश देता है तो उस राजर्षिको दोष लगेगा या नहीं? मैं इस बातको यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ। आप इसका विशदरूपसे विवेचन करें; क्योंकि धर्मकी गति सूक्ष्म है, जहाँ मनुष्य मोहमें पड़ जाते हैं |। १-२ ।।

भीष्म उवाच

अन्न ते वर्तयिष्यामि शृणु राजन्‌ यथाक्रमम्‌

ऋषीणां वदतां पूर्व श्रुतमासीत्‌ यथा पुरा ॥। ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें पूर्वकालमें ऋषियोंके मुखसे जैसा मैंने सुना है, उसी क्रमसे बताऊँगा, तुम ध्यान देकर सुनो ।। ।।

उपदेशो कर्तव्यो जातिहीनस्य कस्यचित्‌

उपदेशे महान्‌ दोष उपाध्यायस्य भाष्यते ।। ।।

किसी भी नीच जातिके मनुष्यको उपदेश नहीं देना चाहिये। उसे उपदेश देनेपर उपदेशक आचार्यके लिये महान्‌ दोष बताया जाता है || ।।

निदर्शनमिदं राजन्‌ शृणु मे भरतर्षभ

दुरुक्तवचने राजन्‌ यथापूर्व युधिष्ठिर ।। ।।

भरतभूषण राजा युधिष्ठिर! इस विषयमें एक दृष्टान्त सुनो, जो दुःखमें पड़े हुए एक नीच जातिके पुरुषको उपदेश देनेसे सम्बन्धित है || |।

ब्रह्माश्रमपदे वृत्तं पाश्वे हिमवत: शुभे

तत्राश्रमपद पुण्यं नानावृक्षणणायुतम्‌ ।। ।।

हिमालयके सुन्दर पार्श्रभागमें, जहाँ बहुत-से ब्राह्मणोंके आश्रम बने हुए हैं, यह वृत्तान्त घटित हुआ था। उस प्रदेशमें एक पवित्र आश्रम है जहाँ नाना प्रकारके हरे-भरे वृक्ष शोभा पाते हैं | ।।

नानागुल्मलताकीर्ण मृगद्धिजनिषेवितम्‌ |

सिद्धचारणसंयुक्तं रम्यं पुष्पितकाननम्‌ ।। ।।

नाना प्रकारकी लता-बेलें वहाँ छायी हुई हैं। मृग और पक्षी उस आश्रमका सेवन करते हैं। सिद्ध और चारण वहाँ सदा निवास करते हैं। उस रमणीय आश्रमके आस-पासका वन सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित है | ।।

व्रतिभिर्बहुभि: कीर्ण तापसैरुपसेवितम्‌

ब्राह्मणैश्व महाभागै: सूर्यज्वलनसंनिभै: ।। ।।

बहुत-से व्रतपरायण तपस्वी उस आश्रमका सेवन करते हैं। कितने ही सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी महाभाग ब्राह्मण वहाँ भरे रहते हैं ।। ।।

नियमव्रतसम्पन्नै: समाकीर्ण तपस्विभि:

दीक्षितैर्भरतश्रेष्ठ यताहारैः कृतात्मभि: ।। ।।

भरतश्रेष्ठ! नियम और व्रतसे सम्पन्न, तपस्वी, दीक्षित, मिताहारी और जितात्मा मुनियोंसे वह आश्रम भरा रहता है ।। |।

तपो>5ध्ययनघोषैक्ष नादितं भरतर्षभ

वालखिल्यैश्व बहुभियय॑तिभिश्न निषेवितम्‌ ।। १० ।।

भरतभूषण! वहाँ सब ओर वेदाध्ययनकी ध्वनि गूँजती रहती है। बहुत-से वालखिल्य एवं संन्यासी उस आश्रमका सेवन करते हैं ।। १० ।।

तत्र कश्नित्‌ समुत्साहं कृत्वा शूद्रो दयान्वित:

आगतो ह्ाश्रमपदं पूजितश्न तपस्विभि: ।। ११ ।।

उसी आश्रममें कोई दयालु शूद्र बड़ा उत्साह करके आया। वहाँ रहनेवाले तपस्वी ऋषियोंने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया ।। ११ ||

तांस्तु दृष्टया मुनिगणान्‌ देवकल्पान्‌ महौजस:

विविधां वहतो दीक्षां सम्प्राहृष्पत भारत ।। १२ ।।

भरतनन्दन! उस आश्रमके महातेजस्वी देवोपम मुनियोंको नाना प्रकारकी दीक्षा धारण किये देख उस शूद्रको बड़ा हर्ष हुआ ।। १२ ।।

अथास्य बुद्धिरभवत्‌ तपस्ये भरतर्षभ

ततोअ<ब्रवीत्‌ कुलपति पादौ संगृह्म भारत ।। १३ ।।

भारत! भरतभूषण! उसके मनमें वहाँ तपस्या करनेका विचार उत्पन्न हुआ; अतः उसने कुलपतिके पैर पकड़कर कहा-- ।। १३ |।

भवत्प्रसादादिच्छामि धर्म वक्तुं द्विजर्षभ

तन्मां त्वं भगवन्‌ वक्तुं प्रत्राजयितुमरहसि ।। १४ ।।

द्विजश्रेष्ठ) मैं आपकी कृपासे धर्मका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। अत: भगवन्‌! आप मुझे विधिवत्‌ संन्यासीकी दीक्षा दे दें” || १४ ।।

वर्णावरो5हं भगवन्‌ शूद्रो जात्यास्मि सत्तम |

शुश्रूषां कर्तुमिच्छामि प्रपन्नाय प्रसीद मे | १५ ।।

“'भगवन्‌! साधुशिरोमणे! मैं वर्णोमें सबसे छोटा शूद्र जातिका हूँ और यहीं रहकर संतोंकी सेवा करना चाहता हूँ; अतः मुझ शरणागतपर आप प्रसन्न हों! | १५ ।।

कुलपतिरुवाच

शक्‍्यमिह शूद्रेण लिड्गमाश्रित्य वर्तितुम्‌

आस्यतां यदि ते बुद्धि: शुश्रूषानिरतो भव || १६ ।।

शुश्रूषया परॉल्लोकानवाप्स्यसि संशय: ।। १७ ।।

कुलपतिने कहा--इस आश्रममें कोई शूद्र संन्यासका चिह्न धारण करके नहीं रह सकता। यदि तुम्हारा विचार यहाँ रहनेका हो तो यों ही रहो और साधु-महात्माओंकी सेवा करो। सेवासे ही तुम उत्तम लोक प्राप्त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है ।। १६-१७ ।।

भीष्म उवाच

एवमुक्तस्तु मुनिना शूद्रोडचिन्तयन्नूप

कथमत्र मया कार्य श्रद्धा धर्मपरा मे ।। १८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--नरेश्वर! मुनिके ऐसा कहनेपर शूद्रने सोचा, यहाँ मुझे क्या करना चाहिये? मेरी श्रद्धा तो संन्यास-धर्मके अनुष्ठानके लिये ही है ।। १८ ।।

विज्ञातमेवं भवतु करिष्ये प्रियमात्मन:

गत्वा55श्रमपदाद्‌ दूरमुटजं कृतवांस्तु सः ।। १९ |।।

अच्छा, एक बात समझमें आयी। शूद्रके लिये ऐसा ही विधान हो तो रहे। मैं तो वही करूँगा जो मुझे प्रिय लगता है--ऐसा विचारकर उसने उस आश्रमसे दूर जाकर एक पर्णकुटी बना ली || १९ |।

तत्र वेदीं भूमिं देवतायतनानि

निवेश्य भरतश्रेष्ठ नियमस्थो 5 भवन्मुनि: ।। २० ।।

भरतश्रेष्ठ! वहाँ यज्ञके लिये वेदी, रहनेके लिये स्थान और देवालय बनाकर मुनिकी भाँति नियमपूर्वक रहने लगा ।। २० ।।

अभिषेकांश्व नियमान्‌ देवतायतनेषु

बलिं कृत्वा हुत्वा देवतां चाप्यपूजयत्‌ ।। २१ ।।

वह तीनों समय नहाता, नियमोंका पालन करता, देव-स्थानोंमें पूजा चढ़ाता, अग्निमें आहुति देता और देवताकी पूजा करता था ।। २१ ।।

संकल्पनियमोपेत: फलाहारो जितेन्द्रिय:

नित्यं संनिहिताभिस्तु ओषधीभि: फलैस्तथा ।। २२ ।।

अतिथीन्‌ पूजयामास यथावत्‌ समुपागतान्‌

एवं हि सुमहान्‌ कालो व्यत्यक्रामत तस्य वै ।। २३ ।।

वह मानसिक संकल्पोंका नियन्त्रण (चित्तवृतियोंका निरोध) करते हुए फल खाकर रहता और इन्द्रियोंको काबूमें रखता था। उसके यहाँ जो अन्न और फल उपस्थित रहता, उन्हींके द्वारा प्रतिदिन आये हुए अतिथियोंका यथोचित सत्कार करता था। इस प्रकार रहते हुए उस शूद्र मुनिको बहुत समय बीत गया ।।

अथास्य मुनिरागच्छत्‌ संगत्या वै तमाश्रमम्‌ |

सम्पूज्य स्वागतेनर्षि विधिवत्‌ समतोषयत्‌ ।। २४ ।।

एक दिन एक मुनि सत्संगकी दृष्टिसे उसके आश्रमपर पधारे। उस शूद्रने विधिवत्‌ स्वागत-सत्कार करके ऋषिका पूजन किया और उन्हें संतुष्ट कर दिया ।।

अनुकूला: कथा: कृत्वा यथागतमपृच्छत

ऋषि: परमतेजस्वी धर्मात्मा संशितव्रत: ।। २५ ।।

एवं सुबहुशस्तस्य शूद्रस्थ भरतर्षभ

सोडगच्छदाश्रममृषि: शूद्रं द्रष्ट नरर्षभ ।। २६ ।।

भरतभूषण नरश्रेष्ठ! तत्पश्चात्‌ उसने अनुकूल बातें करके उनके आगमनका वृत्तान्त पूछा। तबसे कठोर व्रतका पालन करनेवाले वे परम तेजस्वी धर्मात्मा ऋषि अनेक बार उस शूद्रके आश्रमपर उससे मिलनेके लिये आये || २५-२६ ।।

अथ तं॑ तापसं शूद्र: सो5ब्रवीद्‌ भरतर्षभ

पितृकार्य करिष्यामि तत्र मेडनुग्रह॑ कुरुू ।। २७ ।।

भरतश्रेष्ठ। एक दिन उस शूद्रने उन तपस्वी मुनिसे कहा--'मैं पितरोंका श्राद्ध करूँगा। आप उसमें मुझपर अनुग्रह कीजिये” || २७ ।।

बाढमित्येव तं विप्र उवाच भरतर्षभ

शुचिर्भूत्वा शूद्रस्तु तस्यर्षे: पाद्यमानयत्‌ ।। २८ ।।

भरतभूषण नरेश! तब ब्राह्मणने “बहुत अच्छा” कहकर उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात्‌ शूद्र नहा-धोकर शुद्ध हो उन ब्रह्मर्षिके पैर धोनेके लिये जल ले आया || २८ ।।

अथ दर्भाक्ष वन्यांश्षु ओषधीर्भरतर्षभ

पवित्रमासनं चैव बूसीं समुपानयत्‌ ।। २९ ।।

भरतर्षभ! तदनन्तर वह जंगली कुशा, अन्न आदि ओषधि, पवित्र आसन और कुशकी चटाई ले आया ।।

अथ दक्षिणमावृत्य बूसीं चरमशैर्षिकीम्‌

कृतामन्यायतो दृष्ट्वा तं शूद्रमृषिरब्रवीत्‌ ।। ३० ।।

उसने दक्षिण दिशामें ले जाकर ब्राह्मणके लिये पाश्रिमाग्र चटाई बिछा दी। यह शास्त्रके विपरीत अनुचित आचार देखकर ऋषिने शूद्रसे कहा-- || ३० ।।

कुरुष्वैतां पूर्वशीर्षा भवांश्वोदड्मुख: शुचि:

सच तत्‌ कृतवान्‌ शूद्र: सर्व यदृषिरब्रवीत्‌ ।। ३१ ।॥।

“तुम इस कुशकी चटाईका अग्रभाग तो पूर्व दिशाकी ओर करो और स्वयं शुद्ध होकर उत्तराभिमुख बैठो।' ऋषिने जो-जो कहा, शूद्रने वह सब किया ।। ३१ ।।

यथोपदिष्ट मेधावी दर्भा्यादि यथातथम्‌ |

हव्यकव्यविधिं कृत्स्नमुक्तं तेन तपस्विना ।। ३२ ।।

बुद्धिमान्‌ शूद्रने कुश, अर्घ्ध आदि तथा हव्य-कव्यकी विधि--सब कुछ उन तपस्वी मुनिके उपदेशके अनुसार ठीक-ठीक किया ।। ३२ ।।

ऋषिणा पितृकार्ये धर्मपथे स्थित:

पितृकार्ये कृते चापि विसृष्ट: जगाम ।। ३३ ।।

ऋषिके द्वारा पितृकार्य विधिवत्‌ सम्पन्न हो जानेपर वे ऋषि शूद्रसे विदा लेकर चले गये और वह शाद्र धर्ममार्गमें स्थित हो गया ।। ३३ ।।

अथ दीर्घस्य कालस्य तप्यन्‌ शूद्रतापस:

वने पञठ्चत्वमगमत्‌ सुकृतेन तेन वै ॥। ३४ ।।

अजायत महाराजवंशे महाद्युति:

तदनन्तर दीर्घकालतक तपस्या करके वह शूद्र तपस्वी वनमें ही मृत्युको प्राप्त हुआ और उसी पुण्यके प्रभावसे एक महान्‌ राजवंशमें महातेजस्वी बालकके रूपमें उत्पन्न हुआ || ३४३ ||

तथैव ऋषिस्तात कालधर्ममवाप ॥। ३५ ।।

पुरोहितकुले विप्र आजातो भरतर्षभ

एवं तौ तत्र सम्भूतावुभौ शूद्रमुनी तदा ।। ३६ ।।

क्रमेण वर्धितौ चापि विद्यासु कुशलावुभौ ।। ३७ ।।

तात! इसी प्रकार वे ऋषि भी कालधर्म-मृत्युको प्राप्त हुए। भरतश्रेष्ठ! वे ही ऋषि दूसरे जन्ममें उसी राजवंशके पुरोहितके कुलमें उत्पन्न हुए। इस प्रकार वह शूद्र और वे मुनि दोनों ही वहाँ उत्पन्न हुए, क्रमश: बढ़े और सब प्रकारकी विद्याओंमें निपुण हो गये ।।

अथर्ववेदे वेदे बभूवर्षि: सुनिष्ठित:

कल्पप्रयोगे चोत्पन्ने ज्योतिषे परं गत: ।। ३८ ।।

सांख्ये चैव परा प्रीतिस्तस्य चैवं व्यवर्धत

वे ऋषि वेद और अथर्ववेदके परिनिष्छित विद्वान्‌ हो गये। कल्पप्रयोग और ज्योतिषयमें भी पारंगत हुए। सांख्यमें भी उनका परम अनुराग बढ़ने लगा || ३८३ ।।

पितर्युपरते चापि कृतशौचस्तु पार्थिव ।। ३९ ।।

अभिषिक्त: प्रकृतिभी राजपुत्र: पार्थिव:

नरेश! पिताके परलोकवासी हो जानेपर शुद्ध होनेके पश्चात्‌ मन्त्री और प्रजा आदिने मिलकर उस राजकुमारको राजाके पदपर अभिषिक्त कर दिया ।।

अभिषिक्तेन ऋषिरभिषिक्त: पुरोहित: ।। ४० ।।

राजाने अभिषिक्त होनेके साथ ही उस ऋषिका भी पुरोहितके पदपर अभिषेक कर दिया || ४० ।।

तं पुरोधाय सुखमवसद्‌ भरतर्षभ |

राज्यं शशास धर्मेण प्रजाश्न॒ परिपालयन्‌ ।। ४१ ।।

भरतश्रेष्ठी ऋषिको पुरोहित बनाकर वह राजा सुखपूर्वक रहने और धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए राज्यका शासन करने लगा ।। ४१ ।।

पुण्याहवाचने नित्यं धर्मकार्येषु चासकृत्‌

उत्स्मयन्‌ प्राहसच्चापि दृष्टवा राजा पुरोहितम्‌ ।। ४२ ।।

जब पुरोहितजी प्रतिदिन पुण्याहवाचन करते और निरन्तर धर्मकार्यमें संलग्न रहते, उस समय राजा उन्हें देखकर कभी मुसकराते और कभी जोर-जोरसे हँसने लगते थे || ४२ ।।

एवं बहुशो राजन्‌ पुरोधसमुपाहसत्‌

लक्षयित्वा पुरोधास्तु बहुशस्तं नराधिपम्‌ ।। ४३ ।।

उत्स्मयन्तं सततं दृष्टवासौ मन्युमाविशत्‌ |

राजन! इस प्रकार अनेक बार राजाने पुरोहितका उपहास किया। पुरोहितने जब अनेक बार और निरन्तर उस राजाको अपने प्रति हँसते और मुसकराते लक्ष्य किया, तब उनके मनमें बड़ा खेद और क्षोभ हुआ ।।

अथ शून्ये पुरोधास्तु सह राज्ञा समागत: ।। ४४ ।।

कथाभिरनुकूलाभी राजानं चाभ्यरोचयत्‌

तदनन्तर एक दिन पुरोहितजी राजासे एकान्तमें मिले और मनोनुकूल कथाएँ सुनाकर राजाको प्रसन्न करने लगे || ४४ ||

ततोअब्रवीन्नरेन्द्रे पुरोधा भरतर्षभ ।। ४५ ।।

वरमिच्छाम्यहं त्वेक॑ त्वया दत्त महाद्मयुते || ४६ ।।

भरतश्रेष्ठ! फिर पुरोहित राजासे इस प्रकार बोले--“महातेजस्वी नरेश! मैं आपका दिया हुआ एक वर प्राप्त करना चाहता हूँ ।। ४५-४६ ।।

राजोवाच वराणां ते शतं दद्यां कि बतैकं द्विजोत्तम स्नेहाच्च बहुमानाच्च नास्त्यदेयं हि मे तव ।। ४७ ।।

राजाने कहा--द्विजश्रेष्ठ! मैं आपको सौ वर दे सकता हूँ। एककी तो बात ही क्‍्या। आपके प्रति मेरा जो स्नेह और विशेष आदर है, उसे देखते हुए मेरे पास आपके लिये कुछ

भी अदेय नहीं है ।। ४७ ।। पुरोहित उवाच एकं वै वरमिच्छामि यदि तुष्टो5सि पार्थिव प्रतिजानीहि तावत्‌ त्वं सत्यं यद्‌ वद नानृतम्‌ ।। ४८ ।। पुरोहितने कहा--पृथ्वीनाथ! यदि आप प्रसन्न हों तो मैं एक ही वर चाहता हूँ। आप पहले यह प्रतिज्ञा कीजिये कि “मैं टूँगा।! इस विषयमें सत्य कहिये, झूठ बोलिये ।। ४८ ।। भीष्म उवाच

बाढमित्येव तं राजा प्रत्युवाच युधिष्ठिर

यदि ज्ञास्यामि वक्ष्यामि अजानन्‌ तु संवदे ।। ४९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि! तब राजाने उत्तर दिया--“बहुत अच्छा। यदि मैं जानता होऊँगा तो अवश्य बता दूँगा और यदि नहीं जानता होऊँगा तो नहीं बताऊँगा” ।। ४९ ||

पुरोहित उवाच

पुण्याहवाचने नित्यं धर्मकृत्येषु चासकृत्‌

शान्तिहोमेषु सदा कि त्वं हससि वीक्ष्य माम्‌ ।। ५० ।।

पुरोहितजीने कहा--महाराज! प्रतिदिन पुण्याह-वाचनके समय तथा बारंबार धार्मिक कृत्य कराते समय एवं शान्तिहोमके अवसरोंपर आप मेरी ओर देखकर क्‍यों हँसा करते हैं? | ५० ।।

सव्रीड वै भवति हि मनो मे हसता त्वया

कामया शापितो राजन्‌ नान्यथा वक्तुमहसि ।। ५१ ।।

आपके हँसनेसे मेरा मन लज्जित-सा हो जाता है। राजन! मैं शपथ दिलाकर पूछ रहा हूँ, आप इच्छानुसार सच-सच बताइये। दूसरी बात कहकर बहलाइयेगा मत ।। ५१ ।।

सुव्यक्त कारणं ह्वात्र ते हास्यमकारणम्‌

कौतूहलं मे सुभृशं तत्त्वेन कथयस्व मे ।। ५२ ।।

आपके इस हँसनेमें स्पष्ट ही कोई विशेष कारण जान पड़ता है। आपका हँसना बिना किसी कारणके नहीं हो सकता। इसे जाननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है; अतः आप यथार्थ रूपसे यह सब कहिये ।। ५२ ।।

राजोवाच

एवमुक्ते त्वया विप्र यदवाच्यं भवेदपि अवश्यमेव वक्तव्यं शृणुष्वैकमना द्विज ॥। ५३ ।।

राजाने कहा--विप्रवर! आपके इस प्रकार पूछनेपर तो यदि कोई कहने योग्य बात हो तो उसे भी अवश्य ही कह देना चाहिये। अत: आप मन लगाकर सुनिये ।। ५३ ।।

पूर्वदेहे यथा वृत्तं तन्निबोध द्विजोत्तम

जातिं स्मराम्यहं ब्रह्मन्नवधानेन मे शृूणु || ५४ ।।

द्विजश्रेष्ठ। जब हमने पूर्वजन्ममें शरीर धारण किया था, उस समय जो घटना घटित हुई थी, उसे सुनिये। ब्रह्मन! मुझे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण है। आप ध्यान देकर मेरी बात सुनिये ।। ५४ ।।

शूद्रो<हमभवं पूर्व तापसो भृशसंयुतः

ऋषिरुग्रतपास्त्वं तदाभूद्‌ द्विजसत्तम ॥। ५५ ||

विप्रवर! पहले जन्ममें मैं शूद्र था। फिर बड़ा भारी तपस्वी हो गया। उन्हीं दिनों आप उग्र तप करनेवाले श्रेष्ठ महर्षि थे || ५५ ।।

प्रीयता हि तदा ब्रह्मन्‌ ममानुग्रहबुद्धिना

पितृकार्ये त्वया पूर्वमुपदेश: कृतोडनघ ।। ५६ ।।

निष्पाप ब्रह्मन! उन दिनों आप मुझसे बड़ा प्रेम रखते थे; अतः मेरे ऊपर अनुग्रह करनेके विचारसे आपने पितृकार्यमें मुझे आवश्यक विधिका उपदेश किया था ।। ५६ ।।

बृस्‍्यां दर्भेषु हव्ये कव्ये मुनिसत्तम

एतेन कर्मदोषेण पुरोधास्त्वमजायथा: ।। ५७ ।।

मुनिश्रेष्ठ! कुशके चट कैसे रखे जायँ? कुशा कैसे बिछायी जाय? हव्य और कव्य कैसे समर्पित किये जायँ? इन्हीं सब बातोंका आपने मुझे उपदेश दिया था। इसी कर्मदोषके कारण आपको इस जन्ममें पुरोहित होना पड़ा || ५७ ।।

अहं राजा विप्रेन्द्र पश्य कालस्य पर्ययम्‌

मत्कृतस्योपदेशस्य त्वयावाप्तमिदं फलम्‌ ।। ५८ ।।

विप्रेन्द्र! यह कालका उलट-फेर तो देखिये कि मैं तो शूद्रसे राजा हो गया और मुझे ही उपदेश करनेके कारण आपको यह फल मिला ।। ५८ |।

एतस्मात्‌ कारणाद्‌ ब्रह्मन्‌ प्रहसे त्वां द्विजोत्तम |

नत्वां परिभवन्‌ ब्रह्मन्‌ प्रहसामि गुरुर्भवान्‌ ।। ५९ |।

द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मन! इसी कारणसे मैं आपकी ओर देखकर हँसता हूँ। आपका अनादर करनेके लिये मैं आपकी हँसी नहीं उड़ाता हूँ; क्योंकि आप मेरे गुरु हैं ।।

विपर्ययेण मे मन्युस्तेन संतप्यते मन:

जातिं स्मराम्यहं तुभ्यमतस्त्वां प्रहसामि वै ।। ६० ।।

यह जो उलट-फेर हुआ है, इससे मुझको बड़ा खेद है और इसीसे मेरा मन संतप्त रहता है। मैं अपनी और आपकी भी पूर्वजन्मकी बातोंको याद करता हूँ; इसीलिये आपकी ओर देखकर हँस देता हूँ | ६० ।।

एवं तवोग्रं हि तप उपदेशेन नाशितम्‌

पुरोहितत्वमुत्सृज्य यतस्व त्वं पुनर्भवे | ६१ ।।

आपकी उग्र तपस्या थी, वह मुझे उपदेश देनेके कारण नष्ट हो गयी। अतः आप पुरोहितका काम छोड़कर पुनः संसार-सागरसे पार होनेके लिये प्रयत्न कीजिये ।। ६१ ।।

इतस्त्वमधमामन्यां मा योनि प्राप्स्यसे द्विज

गृह्मातां द्रविणं विप्र पूतात्मा भव सत्तम ।। ६२ ।।

ब्रह्मम! साधुशिरोमणे! कहीं ऐसा हो कि आप इसके बाद दूसरी किसी नीच योनिमें पड़ जायँ। अत: विप्रवर! जितना चाहिये धन ले लीजिये और अपने अन्त:ःकरणको पवित्र बनानेका प्रयत्न कीजिये ।। ६२ ।।

भीष्म उवाच

ततो विसृष्टो राज्ञा तु विप्रो दानान्‍न्यनेकश:

ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं भूमिं ग्रामांश्ष॒ सर्वश: ।। ६३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर राजासे विदा लेकर पुरोहितने बहुत-से ब्राह्मणोंको अनेक प्रकारके दान दिये। धन, भूमि और ग्राम भी वितरण किये ।। ६३ ।।

कृच्छाणि चीर्वा ततो यथोक्तानि द्विजोत्तमै: |

तीर्थानि चापि गत्वा वै दानानि विविधानि ।। ६४ ।।

उस समय श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके बताये अनुसार उन्होंने अनेक प्रकारके कृच्छुव्रत किये और तीर्थोमें जाकर नाना प्रकारकी वस्तुएँ दान की ।। ६४ ।।

दत्वा गाश्जैव विप्रेभ्य: पूतात्माभवदात्मवान्‌ |

तमेव चाश्रमं गत्वा चचार विपुलं तप: ।। ६५ ।।

ब्राह्मणोंको गोदान करके पवित्रात्मा होकर उन मनस्वी ब्राह्मणने फिर उसी आश्रमपर जाकर बड़ी भारी तपस्या की ।। ६५ ।।

ततः सिद्धि) परां प्राप्तो ब्राह्मणो राजसत्तम |

सम्मतश्नलाभवत्‌ तेषामाश्रमे तन्निवासिनाम्‌ ।। ६६ ।।

नृपश्रेष्ठ। तदनन्तर परम सिद्धिको प्राप्त होकर वे ब्राह्मण देवता उस आश्रममें रहनेवाले समस्त साधकोंके लिये सम्माननीय हो गये ।। ६६ ।।

एवं प्राप्तो महत्कृच्छुमृषि: सन्नपसत्तम

ब्राह्मणेन वक्तव्यं तस्माद्‌ वर्णावरे जने || ६७ ।।

नूपशिरोमणे! इस प्रकार वे ऋषि शूद्रको उपदेश देनेके कारण महान्‌ कष्टमें पड़ गये; इसलिये ब्राह्मणको चाहिये कि वह नीच वर्णके मनुष्यको उपदेश दे ।। ६७ ।।

(वर्जयेदुपदेशं सदैव ब्राह्मणो नूप

उपदेशं हि कुर्वाणो द्विज: कृच्छुमवाप्तुयात्‌

नरेश्वर! ब्राह्मणको चाहिये कि वह कभी शूद्रको उपदेश दे; क्योंकि उपदेश करनेवाला ब्राह्मण स्वयं ही संकटमें पड़ जाता है ।।

नेषितव्यं सदा वाचा द्विजेन नृपसत्तम

प्रवक्तव्यमिह किंचिद्‌ वर्णावरे जने ।।)

नृपश्रेष्ठ! ब्राह्णणको अपनी वाणीद्वारा कभी उपदेश देनेकी इच्छा ही नहीं करनी चाहिये। यदि करे भी तो नीच वर्णके पुरुषको तो कदापि कुछ उपदेश दे ।।

ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्यास्त्रयो वर्णा द्विजातय:

एतेषु कथयन्‌ राजन ब्राह्मुणो प्रदुष्पति ।। ६८ ।।

राजन! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। इन्हें उपदेश देनेवाला ब्राह्मण दोषका भागी नहीं होता है ।। ६८ ।।

तस्मात्‌ सद्धि्न वक्तव्यं कस्यचित्‌ किंचिदग्रत:

सूक्ष्मा गतिर्ि धर्मस्य दुर्ज्ञेया ह्कृतात्मभि: || ६९ ।।

इसलिये सत्पुरुषोंको कभी किसीके सामने कोई उपदेश नहीं देना चाहिये; क्योंकि धर्मकी गति सूक्ष्म है। जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध एवं वशीभूत नहीं कर लिया है, उनके लिये धर्मकी गतिको समझना बहुत ही कठिन है ।। ६९ ।।

तस्मान्मौनेन मुनयो दीक्षां कुर्वन्ति चादृता:

दुरुक्तस्य भयाद्‌ राजन्‌ नाभाषन्ते किंचन ।। ७० ।।

राजन! इसीलिये ऋषि-मुनि मौनभावसे ही आदसरपूर्वक दीक्षा देते हैं। कोई अनुचित बात मुँहसे निकल जाय, इसीके भयसे वे कोई भाषण नहीं देते हैं ।।

धार्मिका गुणसम्पन्ना: सत्यार्जवसमन्विता:

दुरुक्तवाचाभिहितै: प्राप्तुवन्तीह दुष्कृतम्‌ ।। ७१ ।।

धार्मिक, गुणवान्‌ तथा सत्य-सरलता आदि गुणोंसे सम्पन्न पुरुष भी शास्त्रविरुद्ध अनुचित वचन कह देनेके कारण यहाँ दुष्कर्मके भागी हो जाते हैं || ७१ ।।

उपदेशो कर्तव्य: कदाचिदपि कस्यचित्‌ |

उपदेशाद्धि तत्‌ पापं ब्राह्मण: समवाप्नुयात्‌ ।। ७२ ।।

ब्राह्मणको चाहिये कि वह कभी किसीको उपदेश करे; क्योंकि उपदेश करनेसे वह शिष्यके पापको स्वयं ग्रहण करता है ।। ७२ ।।

विमृश्य तस्मात्‌ प्राज्ञेन वक्तव्यं धर्ममिच्छता

सत्यानृतेन हि कृत उपदेशो हिनस्ति हि ।। ७३ ।।

अतः धर्मकी अभिलाषा रखनेवाले विद्वान्‌ पुरुषको बहुत सोच-विचारकर बोलना चाहिये; क्योंकि साँच और झूठमिश्रित वाणीसे किया गया उपदेश हानिकारक होता है ।। ७३ ।।

वक्तव्यमिह पृष्टेन विनिश्ित्य विनिश्चयम्‌ |

चोपदेश: कर्तव्यो येन धर्ममवाप्रुयात्‌ ।। ७४ ।।

यहाँ किसीके पूछनेपर बहुत सोच-विचारकर शास्त्रका जो सिद्धान्त हो वही बताना चाहिये तथा उपदेश वह करना चाहिये जिससे धर्मकी प्राप्ति हो || ७४ ।।

एतत्‌ ते सर्वमाख्यातमुपदेशकृते मया

महान्‌ क्लेशो हि भवति तस्मान्नोपदिशेदिह ।। ७५ ||

उपदेशके सम्बन्धमें मैंने ये सब बातें तुम्हें बतायी हैं। अनधिकारीको उपदेश देनेसे महान क्लेश प्राप्त होता है। इसलिये यहाँ किसीको उपदेश दे || ७५ ।।

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि शूद्रमुनिसंवादे दशमो<5ध्याय: ।। १० || इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शुद्र और मुनिका संवादविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १० (दाक्षिणात्य अधिक पाठके श्लोक मिलाकर कुल ७७ श्लोक हैं)

ऑपन- मा बछ। जि

एकादशोब< ध्याय:

लक्ष्मीके निवास करने और करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानोंका वर्णन

युधिछिर उवाच

कीदृशे पुरुषे तात स्त्रीषु वा भरतर्षभ

श्री: पद्मा वसते नित्यं तन्मे ब्रूहि पितामह ।। ।।

युधिष्ठिरने पूछा--तात! भरतमश्रेष्ठ! कैसे पुरुषमें और किस तरहकी स्त्रियोंमें लक्ष्मी नित्य निवास करती हैं? पितामह! यह मुझे बताइये ।। ।।

भीष्म उवाच

अत्र ते वर्णयिष्यामि यथावृत्तं यथाश्रुतम्‌

रुक्मिणी देवकीपुत्रसंनिधौ पर्यपृच्छत ।। ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें एक यथार्थ वृत्तान्तको मैंने जैसा सुना है, उसीके अनुसार तुम्हें बता रहा हूँ। देवकीनन्दन श्रीकृष्णके समीप रुक्मिणीदेवीने साक्षात्‌ लक्ष्मीसे जो कुछ पूछा था, वह मुझसे सुनो ।। ।।

नारायणस्याड्कगतां ज्वलन्तीं

दृष्टवा श्रियं पच्मसमानवर्णाम्‌ कौतूहलाद्‌ विस्मितचारुनेत्रा पप्रच्छ माता मकरध्वजस्य ।। ।।

भगवान्‌ नारायणके अड़्कमें बैठी हुई कमलके समान कान्तिवाली लक्ष्मीदेवीको अपनी प्रभासे प्रकाशित होती देख जिसके मनोहर नेत्र आश्वर्यसे खिल उठे थे, उन प्रद्यम्मजननी रुक्मिणीदेवीने कौतूहलवश लक्ष्मीसे पूछा-- ।। ॥।

कानीह भूतान्युपसेवसे त्वं

संतिष्ठसे कानिव सेवसे त्वम्‌ तानि त्रिलोकेश्वरभूतकान्ते तत्त्वेन मे ब्रूहि महर्षिकन्ये ।। ।।

“महर्षि भृगुकी पुत्री तथा त्रिलोकीनाथ भगवान्‌ नारायणकी प्रियतमे! देवि! तुम इस जगत्‌में किन प्राणियोंपर कृपा करके उनके यहाँ रहती हो? कहाँ निवास करती हो और किन-किनका सेवन करती हो? उन सबको मुझे यथार्थरूपसे बताओ” ।। ।।

एवं तदा श्रीरभिभाष्यमाणा

देव्या समक्ष गरुडध्वजस्य

उवाच वाक्यं मधुराभि धान मनोहरं चन्द्रमुखी प्रसन्ना ।। ।। रुक्मिणीके इस प्रकार पूछनेपर चन्द्रमुखी लक्ष्मीदेवीने प्रसन्न होकर भगवान्‌ गरुडध्वजके सामने ही मीठी वाणीमें यह वचन कहा ।। ।।

श्रीरवाच

वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने | अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्णसत्त्वे || ।। लक्ष्मी बोलीं--देवि! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरुषमें निवास करती हूँ जो सौभाग्यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधनतत्पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्त्वगुणसे युक्त हो ।। ।। नाकर्मशीले पुरुषे वसामि नास्तिके साड्करिके कृतघ्ने भिन्नवृत्ते नृशंसवर्णे चापि चौरे गुरुष्वसूये |। ।। जो पुरुष अकर्मण्य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतध्न, दुराचारी, क्रूर, चोर तथा गुरुजनोंके दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूँ ।। ।। ये चाल्पतेजोबलसत्त्वमाना: क्लिश्यन्ति कुप्यन्ति यत्र तत्र चैव तिष्ठामि तथाविधेषु नरेषु संगुप्तमनोरथेषु ।। ।। जिनमें तेज, बल, सत्त्व और गौरवकी मात्रा बहुत थोड़ी है, जो जहाँ-तहाँ हर बातमें खिन्न हो उठते हैं, जो मनमें दूसरा भाव रखते हैं और ऊपरसे कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्योंमें मैं निवास नहीं करती हूँ ।। ।। यश्चात्मनि प्रार्थयते किज्चिद्‌ यश्न स्वभावोपहतान्तरात्मा तेष्वल्पसंतोषपरेषु नित्य॑ नरेषु नाहं निवसामि सम्यक्‌ ।। ।। जो अपने लिये कुछ नहीं चाहता, जिसका अन्तःकरण मूढ़तासे आच्छन्न है, जो थोड़ेमें ही संतोष कर लेते हैं, ऐसे मनुष्योंमें मैं भलीभाँति नित्य निवास नहीं करती हूँ ।। स्वधर्मशीलेषु धर्मवित्सु

वृद्धोपसेवानिरते दान्ते कृतात्मनि क्षान्तिपरे समर्थ क्षान्तासु दान्तासु तथाडबलासु ।। १० || सत्यस्वभावार्जवसंयुतासु वसामि देवद्विजपूजिकासु जो स्वभावतः स्वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़े-बूढ़ोंकी सेवामें तत्पर, जितेन्द्रिय, मनको वशमें रखनेवाले, क्षमाशील और सामर्थ्यशाली हैं, ऐसे पुरुषोंमें तथा क्षमाशील एवं जितेन्द्रिय अबलाओंमें भी मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ स्वभावतः सत्यवादिनी तथा सरलतासे संयुक्त हैं, जो देवताओं और द्विजोंकी पूजा करनेवाली हैं, उनमें भी मैं निवास करती हूँ || १० ।। (अबन्ध्यकालेषु सदा दानशौचरतेषु | ब्रह्मचर्यतपोज्ञानगोद्विजातिप्रियेषु ।। जो अपने समयको कभी व्यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान एवं शौचाचारमें तत्पर रहते हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य, तपस्या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरुषोंमें मैं निवास करती हूँ ।। वसामि स्त्रीषु कान्तासु देवद्विजपरासु विशुद्धगृहभाण्डासु गोधान्याभिरतासु ।।) जो स्त्रियाँ कमनीय गुणोंसे युक्त, देवताओं तथा ब्राह्मणोंकी सेवामें तत्पर, घरके बर्तन- भाँड़ोंको शुद्ध तथा स्वच्छ रखनेवाली एवं गौओंकी सेवा तथा धान्यके संग्रहमें तत्पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूँ ।। प्रकीर्णभाण्डामनवेक्ष्यकारिणीं सदा भर्तुः प्रतिकूलवादिनीम्‌ ।। ११ ।। परस्य वेश्माभिरतामलज्जा- मेवंविधां तां परिवर्जयामि जो घरके बर्तनोंको सुव्यवस्थित रूपसे रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोच- समझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पतिके प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरोंके घरोंमें घूमने-फिरनेमें आसक्त रहती हैं और लज्जाको सर्वथा छोड़ बैठती हैं, उनको मैं त्याग देती हूँ ।। पापामचोक्षामवलेहिनीं व्यपेतधैर्या कलहप्रियां ।। १२ ।। निद्राभिभूतां सततं शयाना- मेवंविधां तां परिवर्जयामि

जो स्त्री निर्दयतापूर्वक पापाचारमें तत्पर रहनेवाली, अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींदमें बेसुध होकर सदा खाटपर पड़ी रहनेवाली होती है, ऐसी नारीसे मैं सदा दूर ही रहती हूँ || १२६ ।। सत्यासु नित्यं प्रियदर्शनासु सौभाग्ययुक्तासु गुणान्वितासु ।। १३ ।। वसामि नारीषु पतिव्रतासु कल्याणशीलासु विभूषितासु जो स्त्रियाँ सत्यवादिनी और अपनी सौम्य वेश-भूषाके कारण देखनेमें प्रिय होती हैं, जो सौभाग्यशालिनी, सदगुणवती, पतिव्रता एवं कल्याणमय आचार-विचारवाली होती हैं तथा जो सदा वस्त्राभूषणोंसे विभूषित रहती हैं, ऐसी स्त्रियोंमें मैं सदा निवास करती हूँ ।। १३ || यानेषु कन्यासु विभूषणेषु यज्ञेषु मेघेषु वृष्टिमत्सु || १४ ।। वसामि फुल्लासु पद्मिनीषु नक्षत्रवीथीषु शारदीषु गजेषु गोछ्ठेषु तथा55सनेषु सर:सु फुल्लोत्पलपड्कजेषु ।। १५ ।। सुन्दर सवारियोंमें, कुमारी कन्याओंमें, आभूषणोंमें, यज्ञोंमें, वर्षा करनेवाले मेघोंमें, खिले हुए कमलोंमें, शरद्‌ ऋतुकी नक्षत्र-मालाओंमें, हाथियों और गोशालाओंमें, सुन्दर आसनोंमें तथा खिले हुए उत्पल और कमलोंसे सुशोभित सरोवरोंमें मैं सदा निवास करती हूँ ।। १४-१५ || नदीषु हंसस्वननादितासु क्रौज्चावघुष्टस्वरशोभितासु विकीर्णकूलद्रुमराजितासु तपस्विसिद्धद्धिजसेवितासु ।। १६ ।। वसामि नित्यं सुबहूदकासु सिंहैर्गजैश्नाकुलितोदकासु जहाँ हँसोंकी मधुर ध्वनि गूँजती रहती है, क्रौंच पक्षीके कलरव जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जो अपने तटोंपर फैले हुए वृक्षोंकी श्रेणियोंसे शोभायमान हैं, जिनके किनारे तपस्वी, सिद्ध और ब्राह्मण निवास करते हैं, जिनमें बहुत जल भरा रहता है तथा सिंह और हाथी जिनके जलमें अवगाहन करते रहते हैं, ऐसी नदियोंमें भी मैं सदा निवास करती रहती हूँ ।। १६३ || मत्ते गजे गोवृषभे नरेन्द्र

सिंहासने सत्पुरुषेषु नित्यम्‌ ।। १७ ।। यस्मिज्जनो हव्यभुजं जुहोति गोब्राह्मणं चार्चति देवताश्च काले पुष्पैर्बलय: क्रियन्ते तस्मिन्‌ गृहे नित्यमुपैमि वासम्‌ ।। १८ ।। मतवाले हाथी, साँड़, राजा, सिंहासन और सत्पुरुषोंमें मेरा नित्य-निवास है। जिस घरमें लोग अग्निमें आहुति देते हैं, गौ, ब्राह्मण तथा देवताओंकी पूजा करते हैं और समय- समयपर जहाँ फूलोंसे देवताओंको उपहार समर्पित किये जाते हैं, उस घरमें मैं नित्य निवास करती हूँ || १७-१८ ।। स्वाध्यायनित्येषु सदा द्विजेषु क्षत्रे धर्माभिरते सदैव वैश्ये कृष्पाभिरते वसामि शूद्रे शुश्रूषणनित्ययुक्ते ।। १९ ।। सदा वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहनेवाले ब्राह्मणों, स्वधर्मपरायण क्षत्रियों, कृषि-कर्ममें लगे हुए वैश्यों तथा नित्य सेवापरायण शूद्रोंके यहाँ भी मैं सदा निवास करती हूँ || १९ ।। नारायणे त्वेकमना वसामि सर्वेण भावेन शरीरभूता तस्मिन्‌ हि धर्म: सुमहान्‌ निविष्टो ब्रह्मण्यता चात्र तथा प्रियत्वम्‌ ।। २० ।। मैं मूर्तिमती एवं अनन्यचित्त होकर तो भगवान्‌ नारायणमें ही सम्पूर्ण भावसे निवास करती हूँ; क्योंकि उनमें महान्‌ धर्म संनिहित है। उनका ब्राह्मणोंके प्रति प्रेम है और उनमें स्वयं सर्वप्रिय होनेका गुण भी है ।। नाहं शरीरेण वसामि देवि नैवं मया शक्‍्यमिहाभिथधातुम्‌ भावेन यस्मिन्‌ निवसामि पुंसि वर्धते धर्मयशो<र्थकामै: ।। २१ ।। देवि! मैं नारायणके सिवा अन्यत्र शरीरसे नहीं निवास करती हूँ। मैं यहाँ ऐसा नहीं कह सकती कि सर्वत्र इसी रूपमें रहती हूँ। जिस पुरुषमें भावनाद्वारा निवास करती हूँ वह धर्म, यश, धन और कामसे सम्पन्न होकर सदा बढ़ता रहता है ।। २१ ।।

इति श्रीमहा भारते अनुशासनपर्वणि दानथधर्मपर्वणि श्रीरुक्मिणीसंवादे एकादशो<5ध्याय: ।। १३ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें लक्ष्मी और रुक्मिणीका संवादविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११ ॥। (दाक्षिणात्य अधिक पाठके श्लोक मिलाकर कुल २३ श्लोक हैं)

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द्ादशोड् ध्याय:

कृतघ्नकी गति और प्रायश्षित्तका वर्णन तथा स्त्री-पुरुषके संयोगमें स्त्रीको ही अधिक सुख होनेके सम्बन्धमें भंगास्वनका उपाख्यान

(युधिष्ठिर उदाच प्रायक्षित्तं कृतघ्नानां प्रतिब्रूहि पितामह बगिलिक [ गुरूंश्वैव येडवमन्यन्ति मोहिता: ।। पूछा--पितामह! जो मोहवश माता-पिता तथा गुरुजनोंका अपमान करते हैं उन कृतघ्नोंके लिये कया प्रायश्चित्त है? यह बताइये ।। ये चाप्यन्ये परे तात कृतघ्ना निरपत्रपा: तेषां गति महाबाहो श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।। तात! महाबाहो! दूसरे भी जो निर्लज्ज एवं कृतघ्न हैं उनकी गति कैसी होती है? यह सब मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। भीष्म उवाच

कृतघ्नानां गतिस्तात नरके शाश्वती: समा:

मातापितृगुरूणां ये तिष्ठन्ति शासने ।।

कृमिकीटपिपीलेषु जायन्ते स्थावरेषु

दुर्लभो हि पुनस्तेषां मानुष्ये पुनरुद्‌भव: ।।

भीष्मजीने कहा--तात! कृतघ्नोंकी एक ही गति है, सदाके लिये नरकमें पड़े रहना। जो माता-पिता तथा गुरुजनोंकी आज्ञाके अधीन नहीं रहते हैं वे कृमि, कीट, पिपीलिका और वृक्ष आदिकी योनियोंमें जन्म लेते हैं। मनुष्ययोनिमें फिर जन्म होना उनके लिये दुर्लभ हो जाता है ।।

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌ |

वत्सनाभो महाप्राज्ञों महर्षि: संशितव्रत: ।॥

वल्मीकभूतो ब्रद्वार्षिस्तप्यते सुमहत्तप:

इस विषयमें जानकार मनुष्य इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण देते हैं। वत्सनाभ नामवाले एक परम बुद्धिमान्‌ महर्षि कठोर व्रतके पालनमें लगे थे। उनके शरीरपर दीमकोंने घर बना लिया था; अतः वे ब्रह्मर्षि बाँबीरूप हो गये थे और उसी अवस्थामें वे बड़ी भारी तपस्या करते थे ।।

तस्मिंश्न॒ तप्पति तपो वासवो भरतर्षभ ।।

ववर्ष सुमहद्‌ वर्ष सविद्युत्स्तनयित्नुमान्‌

भरतश्रेष्ठ] उनके तप करते समय इन्द्रनें बिजलीकी चमक और मेघोंकी गम्भीर गर्जनाके साथ बड़ी भारी वर्षा आरम्भ कर दी ।।

तत्र सप्ताहवर्ष तु मुमुचे पाकशासन:

निमीलिताक्षस्तद्वर्ष प्रत्यगृह्नीत वै द्विज: ।।

पाकशासन इन्द्रने लगातार एक सप्ताहतक वहाँ जल बरसाया और वे ब्राह्मण वत्सनाभ आँख मूँदकर चुपचाप उस वर्षाका आघात सहन करते रहे ।।

तस्मिन्‌ पतति वर्षे तु शीतवातसमन्विते

विशीर्णध्वस्तशिखरो वल्मीको5शनिताडित: ।।

सर्दी और हवासे युक्त वह वर्षा हो ही रही थी कि बिजलीसे आहत हो उस वल्मीक (बाँबी)-का शिखर टूटकर बिखर गया ।।

ताड्यमाने ततस्तस्मिन्‌ वत्सनाभे महात्मनि

कारुण्यात्‌ तस्य धर्म: स्वमानृशंस्थमथाकरोत्‌ ।।

अब महामना वत्सनाभपर उस वर्षाकी चोट पड़ने लगी। यह देख धर्मके हृदयमें करुणा भर आयी और उन्होंने वत्सनाभपर अपनी सहज दया प्रकट की ।।

चिन्तयानस्य ब्रह्मूर्षि तपन्तमधिथधार्मिकम्‌ |

अनुरूपा मति: क्षिप्रमुपजाता स्वभावजा ।।

तपस्यामें लगे हुए उन अत्यन्त धार्मिक ब्रह्मर्षिकी चिन्ता करते हुए धर्मके हृदयमें शीघ्र ही स्वाभाविक सुबुद्धिका उदय हुआ, जो उन्हींके अनुरूप थी ।।

स्वं रूप॑ माहिषं कृत्वा सुमहान्तं मनोहरम्‌ |

त्राणार्थ वत्सनाभस्य चतुष्पादुपरि स्थित: ।।

वे विशाल और मनोहर भैंसेका-सा अपना स्वरूप बनाकर वत्सनाभकी रक्षाके लिये उनके चारों ओर अपने चारों पैर जमाकर उनके ऊपर खड़े हो गये ।।

यदा त्वपगतं वर्ष शीतवातसमन्वितम्‌

ततो महिषरूपी धर्मो धर्मभृतां वर ।।

शनैर्वल्मीकमुत्सृज्य प्राद्रवद्‌ भरतर्षभ

स्थिते5स्मिन्‌ वृष्टिसम्पाते रक्षित: महातपा: ।।

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भरतभूषण युधिष्ठिर! जब शीतल हवासे युक्त वह वर्षा बंद हो गयी तब भैंसेका रूप धारण करनेवाले धर्म धीरेसे उस वल्मीकको छोड़कर वहाँसे दूर खिसक गये। उस मूसलाधार वर्षामें महिषरूपधारी धर्मके खड़े हो जानेसे महातपस्वी वत्सनाभकी रक्षा हो गयी ।।

दिश: सुविपुलास्तत्र गिरीणां शिखराणि ।।

दृष्टवा पृथिवीं सर्वां सलिलेन परिप्लुताम्‌

जलाशयानू तानू्‌ दृष्ट्वा विप्र: प्रमुदितो5भवत्‌ ।।

तदनन्तर वहाँ सुविस्तृत दिशाओं, पर्वतोंके शिखरों, जलमें डूबी हुई सारी पृथ्वी और जलाशयोंको देखकर ब्राह्मण वत्सनाभ बहुत प्रसन्न हुए ।।

अचिन्तयद्‌ विस्मितश्न वर्षात्‌ केनाभिरक्षित:

ततो<पश्यत्‌ त॑ महिषमवस्थितमदूरत: ।।

फिर वे विस्मित होकर सोचने लगे कि “इस वर्षासे किसने मेरी रक्षा की है। इतनेहीमें पास ही खड़े हुए उस भैंसेपर उनकी दृष्टि पड़ी ।।

तिर्यग्योनावपि कथं दृश्यते धर्मवत्सल:

अतो नु भद्रे महिष: शिलापट्ट इव स्थित:

पीवरश्नैव शूल्यश्व बहुमांसो भवेदयम्‌ ।।

“अहो! पशुयोनिमें पैदा होकर भी यह कैसा धर्मवत्सल दिखायी देता है? निश्चय ही यह भैंसा मेरे ऊपर शिलापट्टके समान खड़ा हो गया था। इसीलिये मेरा भला हुआ है। यह बड़ा मोटा और बहुत मांसल है' ।।

तस्य बुद्धिरियं जाता धर्मसंसक्तिजा मुने:

कृतघ्ना नरकं यान्ति ये तु विश्वासघातिन: ।।

तदनन्तर धर्ममें अनुराग होनेके कारण मुनिके हृदयमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि “जो विश्वासघाती एवं कृतघ्न मनुष्य हैं, वे नरकमें पड़ते हैं ।।

निष्कृतिं नैव पश्यामि कृतघ्नानां कथंचन

ऋते प्राणपरित्यागं धर्मज्ञानां वचो यथा ।।

“मैं प्राण-त्यागके सिवा कृतघ्नोंके उद्धारका दूसरा कोई उपाय किसी तरह नहीं देख पाता। धर्मज्ञ पुरुषोंका कथन भी ऐसा ही है ।।

अकृत्वा भरणं पित्रोरदत्त्वा गुरुदक्षिणाम्‌

कृतघ्नतां सम्प्राप्प मरणान्ता निष्कृति: ।।

'पिता-माताका भरण-पोषण करके तथा गुरुदक्षिणा देकर मैं कृतघ्नभावको प्राप्त हो गया हूँ। इस कृतघ्नताका प्रायश्षित्त है स्वेच्छासे मृत्युको वरण कर लेना ।।

आकाड्ुक्षायामुपेक्षायां चोपपातकमुत्तमम्‌

तस्मात्‌ प्राणान्‌ परित्यक्ष्ये प्रायश्षित्तार्थमित्युत ।।

“अपने कृतघ्न जीवनकी आकांक्षा और प्रायश्चित्तकी उपेक्षा करनेपर भी भारी उपपातक भी बढ़ता रहेगा। अतः मैं प्रायश्षित्तके लिये अपने प्राणोंका परित्याग करूँगा” ।।

मेरुशिखरं गत्वा निस्सज्लेनान्तरात्मना

प्रायश्षित्तं कर्तुकाम: शरीर त्यक्तुमुद्यत: ।।

निगृहीतश्च धर्मात्मा हस्ते धर्मेण धर्मवित्‌ ।।

अनासक्त चित्तसे मेरु पर्वतके शिखरपर जाकर प्रायश्चित्त करनेकी इच्छासे अपने शरीरको त्याग देनेके लिये उद्यत हो गये। इसी समय धर्मने आकर उन थधर्मज्ञ, धर्मात्मा वत्सनाभका हाथ पकड़ लिया ।।

धर्म उवाच

वत्सनाभ महाप्राज्ञ बहुवर्षशतायुष:

परितुष्टो5स्मि त्यागेन नि:ःसड्रेन तथा55त्मन: ।।

धर्मने कहा--महाप्राज्ञ वत्सनाभ! तुम्हारी आयु कई सौ वर्षोकी है। तुम्हारे इस आसक्तिरहित आत्मत्यागके विचारसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ ।।

एवं धर्मभूत: सर्वे विमृशन्ति तथा कृतम्‌

नस कक्रिद्‌ वत्सनाभ यस्य नोपहतं मनः ।।

यश्चानवद्यश्नरति शक्तो धर्म तु सर्वशः |

निवर्तस्व महाप्राज्ञ भूतात्मा हासि शाश्वत: ।।)

इसी प्रकार सभी धर्मात्मा पुरुष अपने किये हुए कर्मकी आलोचना करते हैं। वत्सनाभ! जगत्‌में कोई ऐसा पुरुष नहीं है जिसका मन कभी दूषित हुआ हो। जो मनुष्य निन्द्य कर्मोंसे दूर रहकर सब तरहसे धर्मका आचरण करता है वही शक्तिशाली है। महाप्राज्ञ! अब तुम प्राणत्यागके संकल्पसे निवृत्त हो जाओ, क्योंकि तुम सनातन (अजर- अमर) आत्मा हो ।।

युधिछिर उवाच

स्त्रीपुंसयो: सम्प्रयोगे स्पर्श: कस्याधिको भवेत्‌

एतस्मिन्‌ संशये राजन्‌ यथावद्‌ वक्तुमहसि ।। ।।

युधिष्ठिरने पूछा--राजन्‌! स्त्री और पुरुषके संयोगमें विषयसुखकी अनुभूति किसको अधिक होती है (स्त्रीको या पुरुषको)? इस संशयके विषयमें आप यथावत्‌्रूपसे बतानेकी कृपा करें ।। |।

भीष्म उवाच

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌

भंगास्वनेन शक्रस्य यथा वैरमभूत्‌ पुरा ।। ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें भी भंगास्वनके साथ इन्द्रका पहले जो वैर हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है || ।।

पुरा भंगास्वनो नाम राजर्षिरतिधार्मिक:

अपुत्र: पुरुषव्याघ्र पुत्रार्थ यज्ञमाहरत्‌ ॥। ।।

पुरुषसिंह! पहलेकी बात है, भंगास्वन नामसे प्रसिद्ध अत्यन्त धर्मात्मा राजर्षि पुत्रहीन होनेके कारण पुत्र-प्राप्तिके लिये यज्ञ करते थे ।। ।।

अग्निष्ठृतं राजर्षिरिन्द्रद्धिष्ट महाबल:

प्रायक्षित्तेषु मर्त्यानां पुत्रकामेषु चेष्यते || ।।

उन महाबली राजर्षिने अग्निष्टत नामक यज्ञका आयोजन किया था। उसमें इन्द्रकी प्रधानता होनेके कारण इन्द्र उस यज्ञसे द्वेष रखते हैं। वह यज्ञ मनुष्योंके प्रायश्रित्तके अवसरपर अथवा पुत्रकी कामना होनेपर अभीष्ट मानकर किया जाता है ।। ।।

इन्द्रो ज्ञात्वा तु तं यज्ञ महाभाग: सुरेश्वर:

अन्तरं तस्य राजर्षेरन्विच्छन्नियतात्मन: ।। ।।

महाभाग देवराज इन्द्रकों जब उस यज्ञकी बात मालूम हुई तब वे मनको वशमें रखनेवाले राजर्षि भंगास्वनका छिठ्र ढूँढ़ने लगे |। ।।

चैवास्यान्तरं राजन्‌ ददर्श महात्मन:

कस्यचित्त्वय कालस्य मृगयां गतवान्‌ नृप: ।। ।।

राजन! बहुत ढूँढ़नेपर भी वे उस महामना नरेशका कोई छिद्र देख सके। कुछ कालके अनन्तर राजा भंगास्वन शिकार खेलनेके लिये वनमें गये ।। ।।

इदमन्तरमित्येव शक्रो नृपममोहयत्‌

एकाशथ्चैन राजर्षि भ्रान्त इन्द्रेण मोहित: ।। ।।

दिशो<विन्दत नृप: क्षुत्पिपासार्दितस्तदा

इतश्रैतश्न वै राजन्‌ श्रमतृष्णान्वितो नूप ॥। ।॥।

नरेश्वर! “यही बदला लेनेका अवसर है' ऐसा निश्चय करके इन्द्रने राजाको मोहमें डाल दिया। इन्द्रद्वारा मोहित एवं भ्रान्त हुए राजर्षि भंगास्वन एकमात्र घोड़ेके साथ इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें दिशाओंका भी पता नहीं चलता था। वे भूख-प्याससे पीड़ित तथा परिश्रम और तृष्णासे विकल हो इधर-उधर घूमते रहे ।। ७-८ ।।

सरो<पश्यत्‌ सुरुचिरं पूर्ण परमवारिणा

सो<5वगाहा सरस्तात पाययामास वाजिनम्‌ ॥। ।।

तात! घूमते-घूमते उन्होंने उत्तम जलसे भरा हुआ एक सुन्दर सरोवर देखा। उन्होंने घोड़ेको उस सरोवरमें स्नान कराकर पानी पिलाया ॥। |।

अथ पीतोदकं सोश्व॑ वृक्षे बद्ध्वा नृपोत्तम:

अवगाहा ततः स्नातत्तत्र स्त्रीत्वमवाप्तवान्‌ ।। १० ।।

जब घोड़ा पानी पी चुका तब उसे एक वृक्षमें बाँधकर वे श्रेष्ठ नरेश स्वयं भी जलमें उतरे। उसमें स्नान करते ही वे राजा स्त्रीभावको प्राप्त हो गये || १० ।।

आत्मानं स्त्रीकृतं दृष्टवा व्रीडितो नृपसत्तम:

चिन्तानुगतसर्वात्मा व्याकुलेन्द्रियचेतन: ।। ११ ।।

अपनेको स्त्रीरूपमें देखकर राजाको बड़ी लज्जा हुई। उनके सारे अन्तःकरणमें भारी चिन्ता व्याप्त हो गयी। उनकी इन्द्रियाँ और चेतना व्याकुल हो उठीं ।।

आरोहिष्ये कथं त्वश्वं कथं यास्यामि वै पुरम्‌

इष्टेनाग्निष्टता चापि पुत्राणां शतमौरसम्‌ ।। १२ ।।

जात॑ महाबलानां मे तान्‌ प्रवक्ष्यामि कि त्वहम्‌

दारेषु चात्मकीयेषु पौरजानपदेषु ।। १३ ।।

वे स्त्रीरूपमें इस प्रकार सोचने लगे--अब मैं कैसे घोड़ेपर चढूँगी? कैसे नगरको जाऊँगी? मेरे अग्निष्टत यज्ञके अनुष्ठानसे मुझे सौ महाबलवान्‌ औरस पुत्र प्राप्त हुए हैं। उन सबसे क्या कहूँगी? अपनी स्त्रियों तथा नगर और जनपदके लोगोंमें कैसे जाऊँगी? ।। १२-१३ ।।

मृदुत्वं तनुत्वं विक्लवत्वं तथैव

स्त्रीगुणा ऋषिश्ि: प्रोक्ता धर्मतत्त्वार्थदर्शिभि: || १४ ।।

“धर्मके तत्त्वको देखने और जाननेवाले ऋषियोंने मृदुता, कृशता और व्याकुलता--ये सत्रीके गुण बताये हैं ।। १४ ।।

व्यायामे कर्कशत्वं वीर्य पुरुषे गुणा:

पौरुषं विप्रणष्टं वै स्त्रीत्वं केनापि मे5भवत्‌ ।। १५ ।।

“परिश्रम करनेमें कठोरता और बल-पराक्रम--ये पुरुषके गुण हैं। मेरा पौरुष नष्ट हो गया और किसी अज्ञात कारणसे मुझमें स्त्रीत्व प्रकट हो गया ।। १५ ।।

स्त्रीभावात्‌ पुनरश्चं तं कथमारोदुमुत्सहे

महता त्वथ यत्नेन आरुद्माश्वं नराधिप: ।। १६ ।।

पुनरायात्‌ पुरं तात स्त्रीकृतो नृपसत्तम:

“अब स्त्रीभाव जानेसे उस अश्वपर कैसे चढ़ सकूँगी?” तात! किसी-किसी तरह महान्‌ प्रयत्न करके वे स्त्रीरूपधारी नरेश घोड़ेपर चढ़कर अपने नगरमें आये ।। १६३ ।।

पुत्रा दाराश्न भृत्याश्न पौरजानपदाश्न ते ।। १७ ।।

किंच्विदं त्विति विज्ञाय विस्मयं परमं गता:

राजाके पुत्र, स्त्रियाँ, सेवक तथा नगर और जनपदके लोग, “यह क्‍या हुआ?'--ऐसी जिज्ञासा करते हुए बड़े आश्वर्यमें पड़ गये || १७३ ।।

अथोवाच राजर्षि: स्त्रीभूतो वदतां वर: ।। १८ ।।

मृगयामस्मि निर्यातो बलै: परिवृतो दृढम्‌

उदशभ्रान्त: प्राविशं घोरामटवीं दैवचोदित: ।। १९ ।।

तब स्त्रीरूपधारी, वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजर्षि भंगास्वन बोले--“मैं अपनी सेनासे घिरकर शिकार खेलनेके लिये निकला था; परंतु दैवकी प्रेरणासे भ्रान्तचित्त होकर एक भयानक वनमें जा घुसा || १८-१९ ||

अटबव्यां सुघोरायां तृष्णातों नष्टचेतन:

सर: सुरुचिरप्रख्यमपश्यं पक्षिभिवृतम्‌ ।। २० ।।

उस घोर वनमें प्याससे पीड़ित एवं अचेत-सा होकर मैंने एक सरोवर देखा, जो पक्षियोंसे घिर हुआ और मनोहर शोभासे सम्पन्न था | २० ।।

तत्रावगाढ: स्त्रीभूतो दैवेनाहं कृत: पुरा

नामगोत्राणि चाभाष्य दाराणां मन्त्रिणां तथा ।। २३१ ।।

आह पुत्रांस्ततः सो5थ स्त्रीभूत: पार्थिवोत्तम:

सम्प्रीत्या भुज्यतां राज्यं वनं यास्यामि पुत्रका: ।। २२ ।।

उस सरोवरमें उतरकर स्नान करते ही दैवने मुझे स्त्री बना दिया। अपनी स्त्रियों और मन्त्रियोंके नाम-गोत्र बताकर उन स्त्रीरूपधारी श्रेष्ठ नरेशने अपने पुत्रोंसे कहा--'पुत्रो! तुमलोग आपसमें प्रेमपूर्वक्क रहकर राज्यका उपभोग करो। अब मैं वनको चला जाऊँगा' || २१-२२ ।।

एवमुक्‍्त्वा पुत्रशतं वनमेव जगाम |

गत्वा चैवाश्रमं सा तु तापसं प्रत्यपद्यत ।। २३ ।।

अपने सौ पुत्रोंसे ऐसा कहकर राजा वनको चले गये। वह स्त्री किसी आश्रममें जाकर एक तापसके आश्रयमें रहने लगी || २३ ।।

तापसेनास्य पुत्राणामाश्रमेष्वभवच्छतम्‌

अथ सा<55दाय तानू्‌ सर्वान्‌ पूर्वपुत्रानभाषत ।। २४ ।।

पुरुषत्वे सुता यूय॑ स्त्रीत्वे चेमे शतं सुता:

एकत्र भूज्यतां राज्यं भ्रातृभावेन पुत्रका: ।। २५ ।।

उस तपस्वीसे आश्रममें उसके सौ पुत्र हुए। तब वह रानी अपने उन पुत्रोंको लेकर पहलेवाले पुत्रोंक पास गयी और उनसे इस प्रकार बोली--'पुत्रो! जब मैं पुरुषरूपमें थी तब तुम मेरे सौ पुत्र हुए थे और जब स्त्रीरूपमें आयी हूँ तब ये मेरे सौ पुत्र हुए हैं। तुम सब लोग एकत्र होकर साथ-साथ भ्रातृभावसे इस राज्यका उपभोग करो' ।। २४-२५ |।

सहिता भ्रातरस्ते5थ राज्यं बुभुजिरे तदा

तान्‌ दृष्टवा भ्रातृभावेन भुज्जानान्‌ राज्यमुत्तमम्‌ ।। २६ ।।

चिन्तयामास देदवेन्द्रो मन्युनाथ परिप्लुत:

उपकारोअस्य राजर्षे: कृतो नापकृतं मया ।। २७ ।।

तब वे सब भाई एक साथ होकर उस राज्यका उपभोग करने लगे। उन सबको भ्रातृभावसे एक साथ रहकर उस उत्तम राज्यका उपभोग करते देख क्रोधमें भरे हुए देवराज इन्द्रने सोचा कि मैंने तो इस राजर्षिका उपकार ही कर दिया, अपकार तो कुछ किया ही नहीं ।। २६-२७ ।।

ततो ब्राह्मणरूपेण देवराज: शतक्रतुः

भेदयामास तान्‌ गत्वा नगरं वै नृपात्मजान्‌ ॥। २८ ।।

तब देवराज इन्द्रने ब्राह्मणका रूप धारण करके उस नगरमें जाकर उन राजकुमारोंमें फूट डाल दी ।। २८ ।।

भ्रातृणां नास्ति सौक्षात्रं येष्वेकस्य पितु: सुताः

राज्यहेतोर्विवदिता: कश्यपस्य सुरासुरा: ।। २९ ।।

वे बोले--'राजकुमारो! जो एक पिताके पुत्र हैं, ऐसे भाइयोंमें भी प्राय: उत्तम भ्रातृप्रेम नहीं रहता। देवता और असुर दोनों ही कश्यपजीके पुत्र हैं तथापि राज्यके लिये परस्पर विवाद करते रहते हैं! | २९ ।।

यूयं भड्भास्वनापत्यास्तापसस्येतरे सुता:

कश्यपस्य सुराश्चैव असुराश्च सुतास्तथा ।। ३० ।।

“तुमलोग तो भंगास्वनके पुत्र हो और दूसरे सौ भाई एक तापसके लड़के हैं। फिर तुममें प्रेम कैसे रह सकता है? देवता और असुर तो कश्यपके ही पुत्र हैं, फिर भी उनमें प्रेम नहीं हो पाता है ।। ३० ।।

युष्माकं पैतृकं राज्यं भुज्यते तापसात्मजै:

इन्द्रेण भेदितास्ते तु युद्धेउन्योन्यमपातयन्‌ ।। ३१ ।।

“तुमलोगोंका जो पैतृक राज्य है, उसे तापसके लड़के आकर भोग रहे हैं।” इस प्रकार इन्द्रके द्वारा फूट डालनेपर वे आपसमें लड़ पड़े। उन्होंने युद्धमें एक-दूसरेको मार गिराया ।। ३१ ।।

तच्छुत्वा तापसी चापि संतप्ता प्ररुरोद

ब्राह्मणच्छटझनाभ्येत्य तामिन्द्रो5थान्वपृच्छत ।। ३२ ।।

यह समाचार सुनकर तापसीको बड़ा दुःख हुआ। वह फूट-फ़ूटकर रोने लगी। उस समय ब्राह्मणका वेश धारण करके इन्द्र उसके पास आये और पूछने लगे--- ।। ३२ ।।

केन दुःखेन संतप्ता रोदिषि त्वं वरानने

ब्राह्मणं तं ततो दृष्टवा सा स्त्री करुणमब्रवीत्‌ ।। ३३ ।।

'सुमुखि! तुम किस दुःखसे संतप्त होकर रो रही हो?” उस ब्राह्मणको देखकर वह स्त्री करुणस्वरमें बोली-- ।। ३३ ।।

पुत्राणां द्वे शते ब्रह्मन्‌ कालेन विनिपातिते

अहूं राजाभवं विप्र तत्र पूर्व शतं मम ॥। ३४ ।।

समुत्पन्नं स्वरूपाणां पुत्राणां ब्राह्मणोत्तम |

कदाचिन्मृगयां यात उद्भ्रान्तो गहने वने ।। ३५ ।।

“ब्रह्मन! मेरे दो सौ पुत्र कालके द्वारा मारे गये। विप्रवर! मैं पहले राजा था। तब मेरे सौ पुत्र हुए थे। द्विजश्रेष्ठ! वे सभी मेरे अनुरूप थे। एक दिन मैं शिकार खेलनेके लिये गहन वनमें गया और वहाँ अकारण भ्रमित-सा होकर इधर-उधर भटकने लगा ।। ३४-३५ ।।

अवगादश्न सरसि स्त्रीभूतो ब्राह्मणोत्तम

पुत्रान्‌ राज्ये प्रतिष्ठाप्प वनमस्मि ततो गत: ।। ३६ ।।

'ब्राह्मणशिरोमणे! वहाँ एक सरोवरमें स्नान करते ही मैं पुरुषसे स्त्री हो गया और पुत्रोंकी राज्यपर बिठाकर वनमें चला आया ।। ३६ ।।

स्त्रियाश्न मे पुत्रशतं तापसेन महात्मना

आश्रमे जनितं ब्रह्मन्‌ नीतं तन्नगरं मया ।। ३७ ।।

'सत्रीरूपमें आनेपर महामना तापसने इस आश्रममें मुझसे सौ पुत्र उत्पन्न किये। ब्रह्मन! मैं उन सब पुत्रोंको नगरमें ले गयी और उन्हें भी राज्यपर प्रतिष्ठित करायी ।। ३७ ।।

तेषां वैरमुत्पन्नं कालयोगेन वै द्विज

एतत्‌ शोचाम्यहं ब्रह्मन्‌ दैवेन समभिप्लुता || ३८ ।।

“विप्रवर! कालकी प्रेरणासे उन सब पुत्रोंमें वैर उत्पन्न हो गया और वे आपसमें ही लड़- भिड़कर नष्ट हो गये। इस प्रकार दैवकी मारी हुई मैं शोकमें डूब रही हूँ || ३८ ।।

इन्द्रस्तां दु:खितां दृष्टवा अब्रवीत्‌ परुषं वच:

पुरा सुदुःसहं भद्रे मम दुःखं त्वया कृतम्‌ ।। ३९ ।।

इन्द्रने उसे दु:खी देख कठोर वाणीमें कहा--भद्रे! जब पहले तुम राजा थीं, तब तुमने भी मुझे दुःसह दुःख दिया था ।। ३९ |।

इन्द्रद्ध्रिन यजता मामनाहूय घिष्ठितम्‌

इन्द्रोडहमस्मि दुर्बुद्धे वैरं ते पातितं मया ।। ४० ।।

“तुमने उस यज्ञका अनुष्ठान किया जिसका मुझसे वैर है। मेरा आवाहन करके तुमने वह यज्ञ पूरा कर लिया। खोटी बुद्धिवाली स्त्री! मैं वही इन्द्र हूँ और तुमसे मैंने ही अपने वैरका बदला लिया है” || ४० ।।

इन्द्रं दृष्टवा तु राजर्षि: पादयो: शिरसा गत:

प्रसीद त्रिदशश्रेष्ठ पुत्रकामेन क्रतुः ।। ४१ ।।

इष्टस्त्रिदशशार्टूल तत्र मे क्षन्तुमरहसि

इन्द्रको देखकर वे स्त्रीरूपधारी राजर्षि उनके चरणोंमें सिर रखकर बोले--'सुरश्रेष्ठ आप प्रसन्न हों। मैंने पुत्रकी इच्छासे वह यज्ञ किया था। देवेश्वर! उसके लिये आप मुझे क्षमा करें! || ४१३ ||

प्रणिपातेन तस्येन्द्र: परितुष्टो वरं ददौ ।। ४२ ।।

पुत्रास्ते कतमे राजन्‌ जीवन्त्वेतत्‌ प्रचक्ष्व मे

स्त्रीभूतस्य हि ये जाता: पुरुषस्याथ येडभवन्‌ ।। ४३ ।।

“इनके इस प्रकार प्रणाम करनेपर इन्द्र संतुष्ट हो गये और वर देनेके लिये उद्यत होकर बोले--राजन! तुम्हारे कौन-से पुत्र जीवित हो जाया? तुमने स्त्री होकर जिन्हें उत्पन्न किया था; वे अथवा पुरुषावस्थामें जो तुमसे उत्पन्न हुए थे?” ।। ४२-४३ ।।

तापसी तु ततः शक्रमुवाच प्रयताउ्जलि:

स्त्रीभूतस्य हि ये पुत्रास्ते मे जीवन्तु वासव ।। ४४ ।।

तब तापसीने इन्द्रसे हाथ जोड़कर कहा--:देवेन्द्र! स्त्रीरूप हो जानेपर मुझसे जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, वे ही जीवित हो जायँ ।। ४४ ।।

इन्द्रस्तु विस्मितो दृष्ट्वा स्त्रियं पप्रच्छ तां पुनः

पुरुषोत्पादिता ये ते कथं द्वेष्या: सुतास्तव || ४५ ।।

स्त्रीभूतस्य हि ये जाता: स्नेहस्तेभ्योडथधिक: कथम्‌ |

कारण श्रोतुमिच्छामि तन्मे वक्तुमिहाहसि ।। ४६ ।।

तब इन्द्रने विस्मित होकर उस स्त्रीसे पूछा--“तुमने पुरुषरूपसे जिन्हें उत्पन्न किया था, वे पुत्र तुम्हारे द्वेषके पात्र क्यों हो गये? तथा स्त्रीरूप होकर तुमने जिनको जन्म दिया है, उनपर तुम्हारा अधिक स्नेह क्यों है? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूँ। तुम्हें मुझसे यह बताना चाहिये” ।। ४५-४६ ।।

रूयुवाच

स्त्रियास्त्वभ्यधिक: स्नेहो तथा पुरुषस्य वै |

तस्मात्‌ ते शक्र जीवन्तु ये जाता: स्त्रीकृतस्य वै ।। ४७ ।।

स्‍त्रीने कहा--इन्द्र! स्त्रीका अपने पुत्रोंपर अधिक स्नेह होता है, वैसा स्नेह पुरुषका नहीं होता है। अतः इन्द्र! स्त्रीरूपमें आनेपर मुझसे जिनका जन्म हुआ है, वे ही जीवित हो जायूँ ।। ४७ ।।

भीष्म उवाच

एवमुक्तस्ततस्त्विन्द्र: प्रीतो वाक्यमुवाच

सर्व एवेह जीवन्तु पुत्रास्ते सत्यवादिनि ।। ४८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तापसीके यों कहनेपर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले--'सत्यवादिनि! तुम्हारे सभी पुत्र जीवित हो जायेँ ।। ४८ ।।

वरं वृणु राजेन्द्र यं त्वमिच्छसि सुव्रत

पुरुषत्वमथ स्त्रीत्वं मत्तो यदभिकाडुक्षते || ४९ ।।

“उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजेन्द्र! तुम मुझसे अपनी इच्छाके अनुसार दूसरा वर भी माँग लो। बोलो, फिरसे पुरुष होना चाहते हो या स्त्री ही रहनेकी इच्छा है? जो चाहो वह मुझसे ले लो” ।। ४९ ।।

रूयुवाच स्त्रीत्वमेव वृणे शक्र पुंस्त्वं नेच्छामि वासव एवमुक्तस्तु देवेन्द्रस्तां स्त्रियं प्रत्युवाच ।॥ ५० ।।

स्‍त्रीने कहा--इन्द्र! मैं स्त्रीत्वका ही वरण करती हूँ। वासव! अब मैं पुरुष होना नहीं चाहती। उसके ऐसा कहनेपर देवराजने उस स्त्रीसे पूछा-- || ५० ।।

पुरुषत्वं कथं त्यक्त्वा स्त्रीत्वं चोदयसे विभो |

एवमुक्त: प्रत्युवाच स्त्रीभूतो राजसत्तम: ।। ५१ ।।

'प्रभो! तुम्हें पुरुषत्वका त्याग करके स्त्री बने रहनेकी इच्छा क्‍यों होती है?'

इन्द्रके यों पूछनेपर उन स्त्रीरूपधारी नृपश्रेष्ठने इस प्रकार उत्तर दिया-- ।। ५१ ।।

स्त्रिया: पुरुषसंयोगे प्रीतिरभ्यधिका सदा

एतस्मात्‌ कारणाच्छक्र स्त्रीत्वमेव वृणोम्पहम्‌ ।। ५२ ।।

देवेन्द्र! सत्रीका पुरुषके साथ संयोग होनेपर स्त्रीको ही पुरुषकी अपेक्षा अधिक विषयसुख प्राप्त होता है, इसी कारणसे मैं स्त्रीत्वका ही वरण करती हूँ" || ५२ ।।

रमिताभ्यधिकं स्त्रीत्वे सत्यं वै देवसत्तम

स्त्रीभावेन हि तुष्यामि गम्यतां त्रिदशाधिप ।। ५३ ।।

'देवश्रेष्ठ! सुरेश्वर! मैं सच कहती हूँ, स्त्रीरूपमें मैंने अधिक रति-सुखका अनुभव किया है, अतः स्त्रीरूपसे ही संतुष्ट हूँ। आप पधारिये” ।। ५३ ।।

एवमस्त्विति चोक्‍्त्वा तामापृच्छ त्रिदिवं गत:

एवं स्त्रिया महाराज अधिका प्रीतिरुच्यते || ५४ ।।

महाराज! तब 'एवमस्तु” कहकर उस तापसीसे विदा ले इन्द्र स्वर्गलोकको चले गये। इस प्रकार स्त्रीको विषय-भोगमें पुरुषकी अपेक्षा अधिक सुख-प्राप्ति बतायी जाती है ।। ५४ ।।

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि भज्ञास्वनोपाख्याने द्वादशोडध्याय: ॥। १२ ।। इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें भज़ास्वनका उपाख्यानविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२ ॥। (दाक्षिणात्य अधिक पाठके २६ श्लोक मिलाकर कुल ८० श्लोक हैं)

ऑपनआक्रात बा अर: 2

त्रयोदशो< ध्याय:

शरीर, वाणी और मनसे होनेवाले पापोंके परित्यागका उपदेश

युधिछिर उवाच

कि कर्तव्यं मनुष्येण लोकयात्राहितार्थिना

कथं वै लोकयात्रां तु किंशीलश्ष समाचरेत्‌ ।। ।।

युधिष्ठिरे पूछा--पितामह! लोकयात्राका भली-भाँति निर्वाह करनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको क्या करना चाहिये? कैसा स्वभाव बनाकर किस प्रकार लोकमें जीवन बिताना चाहिये? ।। ।।

भीष्म उवाच

कायेन त्रिविधं कर्म वाचा चापि चतुर्विधम्‌ |

मनसा त्रिविधं चैव दशकर्मपथांस्त्यजेत्‌ ।। ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! शरीरसे तीन प्रकारके कर्म, वाणीसे चार प्रकारके कर्म और मनसे भी तीन प्रकारके कर्म--इस तरह कुल दस तरहके कर्मोंका त्याग कर दे ।।२॥।।

प्राणातिपात: स्तैन्यं परदारानथापि

त्रीणि पापानि कायेन सर्वतः परिवर्जयेत्‌ ।।

दूसरोंके प्राणनाश करना, चोरी करना और परायी स्त्रीसे संसर्ग रखना--ये तीन शरीरसे होनेवाले पाप हैं। इन सबका परित्याग कर देना उचित है | ।।

असप्प्रलापं पारुष्यं पैशुन्यमनृतं तथा

चत्वारि वाचा राजेन्द्र जल्पेन्नानुचिन्तयेत्‌ ।। ।।

मुँहसे बुरी बातें निकालना, कठोर बोलना, चुगली खाना और झूठ बोलना--ये चार वाणीसे होनेवाले पाप हैं। राजेन्द्र! इन्हें तो कभी जबानपर लाना चाहिये और मनमें ही सोचना चाहिये ।। ।।

अनभिध्या परस्वेषु सर्वसत्त्वेषु सौहदम्‌

कर्मणां फलमस्तीति त्रिविधं मनसा चरेत्‌ ।। ।।

दूसरेके धनको लेनेका उपाय सोचना, समस्त प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव रखना और कर्मोंका फल अवश्य मिलता है, इस बातपर विश्वास रखना--ये तीन मनसे आचरण करने योग्य कार्य हैं। इन्हें सदा करना चाहिये। (इनके विपरीत दूसरोंके धनका लालच करना,

समस्त प्राणियोंसे वैर रखना और कर्मोके फलपर विश्वास करना--ये तीन मानसिक पाप हैं--इनसे सदा बचे रहना चाहिये) ।। ।।

तस्माद्‌ वाक्कायमनसा नाचरेदशुभं नर:

शुभाशुभान्याचरन्‌ हि तस्य तस्याश्षुते फलम्‌ ।। ।।

इसलिये मनुष्यका कर्तव्य है कि वह मन, वाणी या शरीरसे कभी अशुभ कर्म करे; क्योंकि वह शुभ या अशुभ जैसा कर्म करता है; उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता

है।। |।

[ब्रहद्माजीका देवताओंसे गरुड-कश्यप-संवादका प्रसंग सुनाना, गरुडहजीका ऋषियोंके समाजमें नारायणकी महिमाके सम्बन्धमें अपना अनुभव सुनाना तथा इस प्रसंगके पाठ और श्रवणकी महिमा]

अमृतस्य समुत्पत्तौ देवानामसुरै: सह

षष्टिवर्षसहस््राणि देवासुरमवर्तत ।।

एक समय अमृतकी उत्पत्ति हो जानेपर उसकी प्राप्तिके लिये देवताओंका असुरोंके साथ साठ हजार वर्षोतक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्रामके नामसे प्रसिद्ध है ।।

तत्र देवास्तु दैतेयैर्वध्यन्ते भूशदारुणै:

त्रातारं नाधिगच्छन्ति वध्यमाना महासुरै: ।।

उस युद्धमें अत्यन्त भयंकर दैत्यों एवं बड़े-बड़े असुरोंकी मार खाकर देवता किसी रक्षकको नहीं पाते थे ।।

आततस्ते देवदेवेशं प्रपन्ना: शरणैषिण:

पितामहं महाप्राज्ञं वध्यमाना: सुरेतरै: ।।

दैत्योंद्वारा सताये जानेवाले देवता दुःखी होकर अपने लिये आश्रय ढूँढ़ते हुए देवदेवेश्वर महाज्ञानी ब्रह्माजीकी शरणमें गये ।।

वैकुण्ठं शरण देवं॑ प्रतिपेदे तैः सह ।।

तब ब्रह्माजी उन सबके साथ भगवान्‌ विष्णुकी शरणमें गये ।।

ततः देवै: सहित: पद्मयोनिनरिश्वर

तुष्टाव प्राउ्जलि भूत्वा नारायणमनामयम्‌ ।।

नरेश्वर! तदनन्तर देवताओंसहित कमलयोनि ब्रह्माजी हाथ जोड़कर रोग-शोकसे रहित भगवान्‌ नारायणकी स्तुति करने लगे ।।

ब्रह्मोवाच

त्वद्रूपचिन्तनाजन्नाम्नां स्मरणादर्चनादपि

तपोयोगादिभिश्लैव श्रेयो यान्ति मनीषिण: ।।

ब्रह्माजी बोले--प्रभो! आपके रूपका चिन्तन करनेसे, नामोंके स्मरण और जपसे, पूजनसे तथा तप और योग आदिसे मनीषी पुरुष कल्याणको प्राप्त होते हैं ।।

भक्तवत्सल पद्माक्ष परमेश्वर पापहन्‌

परमात्माविकाराद्य नारायण नमोउस्तु ते ।।

भक्तवत्सल! कमलनयन! परमेश्वर! पापहारी परमात्मन! निर्विकार! आदिपुरुष! नारायण! आपको नमस्कार है ।।

नमस्ते सर्वलोकादे सर्वात्मामितविक्रम

सर्वभूतभविष्येश सर्वभूतमहेश्वर ।।

सम्पूर्ण लोकोंके आदिकारण! सर्वात्मन्‌! अमित पराक्रमी नारायण! सम्पूर्ण भूत और भविष्यके स्वामी! सर्वभूतमहेश्वर! आपको नमस्कार है ।।

देवानामपि देवस्त्वं सर्वविद्यापरायण:

जगद्वीजसमाहार जगत: परमो हासि ।।

प्रभो! आप देवताओंके भी देवता और समस्त विद्याओंके परम आश्रय हैं। जगत्‌के जितने भी बीज हैं, उन सबका संग्रह करनेवाले आप ही हैं। आप ही जगत्‌के परम कारण हैं।।

त्रायस्व देवता वीर दानवाद्यै: सुपीडिता:

लोकांक्ष लोकपालांश्व ऋषीं श्र जयतां वर ।।

वीर! ये देवता दानव, दैत्य आदिसे अत्यन्त पीड़ित हो रहे हैं। आप इनकी रक्षा कीजिये। विजयशीलोंमें सबसे श्रेष्ठ नारायणदेव! आप लोकों, लोकपालों तथा ऋषियोंका संरक्षण कीजिये ।।

वेदा: साज्रोपनिषद: सरहस्या: ससंग्रहा:

सोड्कारा: सवषट्काराः प्राहुस्त्वां यज्ञमुत्तमम्‌ ।।

सम्पूर्ण अंगों और उपनिषदोंसहित वेद, उनके रहस्य, संग्रह, 3>कार और वषट्कार आपहीको उत्तम यज्ञका स्वरूप बताते हैं ।।

पवित्राणां पवित्र मड़लानां मज्जलम्‌ |

तपस्खिनां तपश्चैव दैवतं देवतास्वपि ।।

आप पवित्रोंके भी पवित्र, मंगलोंके भी मंगल, तपस्वियोंके तप और देवताओंके भी देवता हैं ।।

भीष्म उवाच

एवमादिपुरस्कारै#क्सामयजुषां गणै:

वैकुण्ठं तुष्ठवुर्देवा: समेत्य ब्रह्मणा सह ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन! इस प्रकार ब्रह्मासहित देवताओंने एकत्र होकर ऋक, साम और यजुर्वेदके मन्त्रोंद्वारा भगवान्‌ विष्णुकी स्तुति की ।।

ततोअन्‍्तरिक्षे वागासीन्मेघगम्भीरनि:स्वना

जेष्यध्वं दानवान्‌ यूयं मयैव सह सड़रे ।।

तब मेघके समान गम्भीर स्वरमें आकाशवाणी हुई--“देवताओ! तुम युद्धमें मेरे साथ रहकर दानवोंको अवश्य जीत लोगे” ।।

ततो देवगणानां दानवानां युध्यताम्‌

प्रादुरासीन्महातेजा: शडखचक्रगदाधर: ।।

तत्पश्चात्‌ परस्पर युद्ध करनेवाले देवताओं और दानवोंके बीच शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले महातेजस्वी भगवान्‌ विष्णु प्रकट हुए ।।

सुपर्णपृष्ठमास्थाय तेजसा प्रदहन्निव

व्यधमद्‌ दानवान्‌ सर्वान्‌ बाहुद्रविणतेजसा ।।

उन्होंने ग़रडकी पीठपर बैठकर तेजसे विरोधियोंको दग्ध करते हुए-से अपनी भुजाओंके तेज और वैभवसे समस्त दानवोंका संहार कर डाला ।।

त॑ समासाद्य समरे दैत्यदानवपुड्भवा:

व्यनश्यन्त महाराज पतज्रा इव पावकम्‌ ।।

महाराज! समरभूमिमें दैत्यों और दानवोंके प्रमुख वीर भगवान्से टक्कर लेकर वैसे ही नष्ट हो गये, जैसे पतंगे आगमें कूदकर अपने प्राण दे देते हैं ।।

विजित्यासुरान्‌ सर्वान्‌ दानवांश्व महामतिः

पश्यतामेव देवानां तत्रैवान्तरधीयत ।।

परम बुद्धिमान्‌ श्रीहरि समस्त असुरों और दानवोंको परास्त करके देवताओंके देखते- देखते वहीं अन्तर्धान हो गये ।।

त॑ दृष्टवान्तह्तितं देवं विष्णुं देवामितद्युतिम्‌

विस्मयोत्फुल्लनयना ब्रह्माणमिदमन्रुवन्‌ ।।

अनन्त तेजस्वी श्रीविष्णुदेवको अदृश्य हुआ देख आश्वर्यसे चकित नेत्रवाले देवता ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले-- ।।

देवा ऊचु:

भगवन्‌ सर्वलोकेश सर्वलोकपितामह

इदमत्यदभुतं वृत्तं त्वं न: शंसितुमर्हसि ।।

देवताओंने पूछा--सर्वलोकेश्वर! सम्पूर्ण जगत्‌के पितामह! भगवन्‌! यह अत्यन्त अदभुत वृत्तान्त हमें बतानेकी कृपा करें ।।

को<5यमस्मान्‌ परित्राय तूष्णीमेव यथागतम्‌

प्रतिप्रयातो दिव्यात्मा तं॑ नः शंसितुमरहसि ।।

कौन दिव्यात्मा पुरुष हमारी रक्षा करके चुपचाप जैसे आया था; वैसे लौट गया? यह हमें बतानेकी कृपा करें ।।

भीष्म उवाच

एवमुक्तः सुरै: सर्वैर्वचनं वचनार्थवित्‌

उवाच पद्मनाभस्य पूर्वरूप॑ प्रति प्रभो ।।

भीष्मजी कहते हैं--प्रभो! सम्पूर्ण देवताओंके ऐसा कहनेपर वचनके तात्पर्यको समझानेवाले ब्रह्माजीने भगवान्‌ पद्मनाभ (विष्णु)-के पूर्वरूपके विषयमें इस प्रकार कहा -- ||

ब्रह्मोवाच

होनं वेद तत्त्वेन भुवनं भुवनेश्वरम्‌

संख्यातुं नैव चात्मान॑ निर्गुणं गुणिनां वरम्‌ ।।

ब्रह्माजी बोले--देवताओ! ये भगवान्‌ सम्पूर्ण भुवनोंके अधीश्चर हैं। इन्हें जगत्‌का कोई भी प्राणी यथार्थरूपसे नहीं जानता। गुणवानोंमें श्रेष्ठ निर्गुण परमात्माकी महिमाका कोई पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकता ।।

अत्र वो वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्‌

सुपर्णस्य संवादमृषीणां चापि देवता: ।।

देवगण! इस विषयमें मैं तुमलोगोंको गरुड और ऋषियोंका संवादरूप प्राचीन इतिहास बता रहा हूँ ।।

पुरा ब्रह्मर्षयश्चैव सिद्धाश्न भुवनेश्वरम्‌

आश्रित्य हिमवत्पृष्ठे चक्रिरे विविधा: कथा: ।।

पूर्वकालकी बात है, हिमालयके शिखरपर ब्रह्मर्षि और सिद्धगण जगदीश्वर श्रीहरिकी शरण ले उन्हींके विषयमें नाना प्रकारकी बातें कर रहे थे ।।

तेषां कथयतां तत्र कथान्ते पततां वर:

प्रादुरासीन्महातेजा वाहश्चक्रगदाभृत: ।।

उनकी बातचीत पूरी होते ही चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान्‌ विष्णुके वाहन महातेजस्वी पक्षिराज गरुड वहाँ पहुँचे ।।

तानूषीन्‌ समासाद्य विनयावनतानन:

अवतीर्य महावीर्यस्तानृषीनभिजग्मिवान्‌ ।।

उन ऋषियोंके पास पहुँचकर महापराक्रमी गरुड नीचे उतर पड़े और विनयसे मस्तक झुकाकर उनके समीप गये।

अभ्यर्चित: ऋषिभि: स्वागतेन महाबल:

उपाविशत तेजस्वी भूमौ वेगवतां वर: ।।

ऋषियोंने स्वागतपूर्वक वेगवानोंमें श्रेष्ठ महान्‌ बलवान्‌ एवं तेजस्वी गरुडका पूजन किया। उनसे पूजित होकर वे पृथ्वीपर बैठे ।।

तमासीन महात्मानं वैनतेयं महाद्युतिम्‌

ऋषय: परिपप्रच्छुर्महात्मानं तपस्विन: ।।

बैठ जानेपर उन महाकाय, महामना और महातेजस्वी विनतानन्दन गरुडसे वहाँ बैठे हुए तपस्वी ऋषियोंने पूछा ।।

ऋषय ऊचु:

कौतूहलं वैनतेय परं नो हृदि वर्तते

तस्य नान्यो<स्ति वक्तेह त्वामृते पन्नगाशन ।।

तदाख्यातमिहेच्छामो भवता प्रश्नमुत्तमम्‌

ऋषि बोले--विनतानन्दन गरुड! हमारे हृदयमें एक प्रश्नको लेकर बड़ा कौतूहल उत्पन्न हो गया है। उसका समाधान करनेवाला यहाँ आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है, अतः हम आपके द्वारा अपने उस उत्तम प्रश्नचका विवेचन कराना चाहते हैं ।।

गरुड उवाच

कि मया ब्रूत वक्तव्यं कार्य वदतां वरा: ।।

यूयं हि मां यथायुक्तं सर्वे वै देष्टमर्हथ

गरुड बोले--वक्ताओंमें श्रेष्ठ मुनीश्वरो! मेरे द्वारा किस विषयमें आप प्रवचन कराना चाहते हैं? यह बताइये। आप मुझे सभी यथोचित कार्योके लिये आज्ञा दे सकते हैं ।।

ब्रह्मोवाच

नमस्कृत्वा हानन्ताय ततस्ते हृदि सत्तमा: |

प्रष्ट प्रचक्रमुस्तत्र वैनतेयं महाबलम्‌ ।।

ब्रह्माजी कहते हैं--देवताओ! तदनन्तर उन श्रेष्ठठटम ऋषियोंने अन्तरहित भगवान्‌ नारायणको नमस्कार करके महाबली गरुडसे वहाँ इस प्रकार पूछना आरम्भ किया ।।

ऋषय ऊचु:

देवदेवं महात्मानं नारायणमनामयम्‌ |

भवानुपास्ते वरदं कुतोडसौ कश्च तत्त्वतः ।।

ऋषि बोले--विनतानन्दन! जिस रोग-शोकसे रहित वरदायक देवाधिदेव महात्मा नारायणकी आप उपासना करते हैं, उनका प्राकट्य कहाँसे हुआ है? तथा वे वास्तवमें कौन हैं? ।।

प्रकृतिर्विकृतिर्वास्थ कीदृशी कक्‍्व नु संस्थिति:

एतद्‌ भवन्तं पृच्छामो देवो5यं क्व कृतालय: ।।

उनकी प्रकृति अथवा विकृति कैसी है? उनकी स्थिति कहाँ है? तथा वे नारायणदेव कहाँ अपना घर बनाये हुए हैं? ये सब बातें हमलोग आपसे पूछते हैं ।।

एष भक्तप्रियो देव: प्रियभक्तस्तथैव

त्वं प्रियश्षास्य भक्तश्न नानय: काश्यप विद्यते ।।

कश्यपकुमार! ये भगवान्‌ नारायण भक्तोंके प्रिय हैं तथा भक्त भी उन्हें बहुत प्रिय हैं और आप भी उनके प्रिय एवं भक्त हैं। आपके समान दूसरा कोई उन्हें प्रिय नहीं है ।।

मुष्णन्निव मनश्नक्षूंष्पविभाव्यतनुर्वि भु:

अनादिमध्यनिधनो विद्यैनं कुतो हासौ ।।

उनका विग्रह इन्द्रियोंद्वारा प्रत्यक्ष अनुभवमें आने योग्य नहीं है। वे सबके मन और नेत्रोंको मानो चुराये लेते हैं। उनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है। हम इनके विषयमें यह नहीं समझ पाते कि ये कहाँसे प्रकट हुए हैं? ।।

वेदेष्वपि विश्वात्मा गीयते विद्यहे

तत्त्वतस्तत्त्वभूतात्मा विभुर्नित्य: सनातन: ।।

वेदोंमें भी विश्वात्मा कहकर इनकी महिमाका गान किया गया है, परंतु हम यह नहीं जानते कि वे तत्त्वभूतस्वरूप नित्य सनातन प्रभु वस्तुतः कैसे हैं? ।।

पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्न पठचमम्‌

गुणाश्वैषां यथासंख्यं भावाभावौ तथैव ।।

तमः सत्त्वं रजश्नैव भावाश्नैव तदात्मका:

मनो बुद्धिश्न तेजश्न बुद्धिगम्यानि तत्त्वतः ।।

पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि--ये पाँच भूत; क्रमश: इन भूतोंके गुण; भाव- अभाव; सत्त्व, रज, तम, सात््विक, राजस और तामस भाव; मन, बुद्धि और तेज-ये वास्तवमें बुद्धिगम्य हैं ।।

जायन्ते तात तस्माद्धि तिष्ठते तेष्वसौ विभु:

संचिन्त्य बहुधा बुद्ध्या नाध्यवस्यामहे परम्‌ ।।

तस्य देवस्य तत्त्वेन तन्न: शंस यथातथम्‌ |

तात! ये सब उन्हीं श्रीहरिसे उत्पन्न होते हैं और वे भगवान्‌ इन सबमें व्यापकरूपसे स्थित हैं। हम उनके विषयमें अपनी बुद्धिके द्वारा नाना प्रकारसे विचार करते हैं तथापि किसी उत्तम निश्चयपर नहीं पहुँच पाते, अतः आप यथार्थ रूपसे हमें उनका तत्त्व बताइये ।।

युपर्ण उवाच

स्थूलतो यस्तु भगवांस्तेनैव स्वेन हेतुना |

त्रैलोक्यस्य तु रक्षार्थ दृश्यते रूपमास्थित: ।।

गरुडजीने कहा--महात्माओ! जो स्थूलस्वरूप भगवान हैं, वे तीनों लोकोंकी रक्षाके लिये उसी कारणभूत अपने स्वरूपसे लोगोंको दृष्टिगोचर होते हैं ।।

मया तु महदाश्चर्य पुरा दृष्टं सनातने |

देवे श्रीवत्सनिलये तच्छुणुध्वमशेषत: ।।

मैंने पूर्वकालमें श्रीवत्सचिह्लके आश्रयभूत सनातन-देव श्रीहरिके विषयमें जो महान्‌ आश्चर्यकी बात देखी है, वह सब बताता हूँ, सुनिये ।।

सम शक्‍्यो मया वेत्तुं भवद्धि: कथंचन ।।

यथा मां प्राह भगवांस्तथा तच्छूयतां मम

मैं या आपलोग कोई भी किसी तरह भगवानके यथार्थ स्वरूपको नहीं जान सकते। भगवानने स्वयं ही अपने विषयमें मुझसे जो कुछ जैसा कहा है, वह उसी रूपमें सुनिये ।।

मयामृतं देवतानां मिषतामृषिसत्तमा: ।।

ह्ृतं विपाट्य त॑ यन्त्र विद्राव्यामृतरक्षिण:

देवता विमुखीकृत्य सेन्द्रा: समरुतो मृथे ।।

त॑ दृष्टवा मम विक्रान्तं वागुवाचाशरीरिणी

मुनिश्रेष्ठणण! मैंने देवताओंके देखते-देखते उनके रक्षायन्त्रको विदीर्ण करके अमृतके रक्षकोंको खदेड़कर युद्धमें इन्द्र और मरुद्गणोंसहित सम्पूर्ण देवताओंको पराजित करके शीघ्र ही अमृतका अपहरण कर लिया। मेरे उस पराक्रमको देखकर आकाशवाणीने कहा ।।

अशरीरिणी वागुवाच

प्रीतो5स्मि ते वैनतेय कर्मणानेन सुब्रत

अवथा तेअस्तु मद्वाक्यं ब्रूहि कि करवाणि ते ।।

आकाशवाणी बोली--उत्तम व्रतका पालन करनेवाले विनतानन्दन! मैं तुम्हारे इस पराक्रमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी यह वाणी व्यर्थ नहीं जानी चाहिये; इसलिये बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूँ? ।।

युपर्ण उवाच

तामेवंवादिनीं वाचमहं प्रत्युक्तवांस्तदा

ज्ञातुमिच्छामि कस्त्वं हि ततो मे दास्यसे वरम्‌ ।।

गरुड कहते हैं--ऋषिगण! आकाशवाणीकी ऐसी बात सुनकर मैंने उस समय यों उत्तर दिया--'पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं? फिर मुझे वर दीजियेगा' ।।

ततो जलदगम्भीरं प्रहस्य गदतां वर:

उवाच वरद: प्रीत: काले त्वं माभिवेत्स्यसि ।।

तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ वरदायक भगवानने बड़े जोरसे हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें प्रसन्नतापूर्वक कहा--“समय आनेपर मेरे विषयमें तुम सब कुछ जान लोगे ।।

वाहनं भव मे साधु वरं दह्मि तवोत्तमम्‌ |

ते वीर्येण सदृश: कश्चिल्लोके भविष्यति ।।

पतड़् पततां श्रेष्ठ देवो नापि दानव:

मत्सखित्वमनुप्राप्तो दुर्धर्षश्ष भविष्यसि ।।

पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुड! मैं तुम्हें यह उत्तम वर देता हूँ कि देवता हो या दानव, कोई भी इस संसारमें तुम्हारे समान पराक्रमी होगा। तुम मेरे अच्छे वाहन हो जाओ, मेरे सखाभावको प्राप्त होनेके कारण तुम सदा दुर्जय बने रहोगे” ।।

तमब्रवं देवदेवं मामेवं वादिनं परम्‌ |

प्रयत: प्राउजलि र्भूत्वा प्रणम्य शिरसा विभुम्‌ ।।

तब मैंने हाथ जोड़ पवित्र हो उपर्युक्त बात कहनेवाले सर्वव्यापी देवाधिदेव भगवान्‌ परम पुरुषको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा-- ।।

एवमेतन्महाबाहो सर्वमेतद्‌ भविष्यति

वाहनं ते भविष्यामि यथा वदति मां भवान्‌ ।।

ध्वजस्ते5हं भविष्यामि रथस्थस्य संशय:

“महाबाहो! आपका यह कथन ठीक है। यह सब कुछ आपकी आज्ञाके अनुसार ही होगा। आप मुझे जैसा आदेश दे रहे हैं, उसके अनुसार मैं आपका वाहन अवश्य होऊँगा। आप रथपर विराजमान होंगे, उस समय मैं आपकी ध्वजापर स्थित रहूँगा, इसमें संशय नहीं है! ।।

तथास्त्विति मामुक्त्वा यथाभिप्रायतो गत: ।।

तब भगवानने मुझसे “तथास्तु” कहकर वे अपनी इच्छाके अनुसार चले गये ।।

ततो<हं कृतसंवादस्तेन केनापि सत्तमा: |

कौतूहलसमाविष्ट: पितरं काश्यपं गत: ।।

साधुशिरोमणियो! तदनन्तर उन अनिर्वचनीय देवतासे वार्तालाप करके मैं कौतूहलवश अपने पिता कश्यपजीके पास गया ।।

सो<हं पितरमासाद्य प्रणिपत्याभिवाद्य

सर्वमेतद्‌ यथातथ्यमुक्तवान्‌ पितुरन्तिके ।।

पिताके पास पहुँचकर मैंने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और यह सारा वृत्तान्त उनसे यथावत्‌्रूपसे कह सुनाया ।।

श्रुत्वा तु भगवान्‌ महां ध्यानमेवान्वपद्यत

मुहूर्तमिव ध्यात्वा मामाह वदतां वर: ।।

यह सुनकर मेरे पूज्यपाद पिताने ध्यान लगाया। दो घड़ीतक ध्यान करके वे वक्ताओंमें श्रेष्ठ मुनि मुझसे बोले-- ।।

धन्यो>स्म्यनुगृहीतो5स्मि यत्‌ त्वं तेन महात्मना

संवाद कृतवांस्तात गुहोन परमात्मना ।।

“तात! मैं धन्य हूँ, भगवानकी कृपाका पात्र हूँ, जिसके पुत्र होकर तुमने उन महामनस्वी गुहा परमात्मासे वार्तालाप कर लिया ।।

मया हि महातेजा नान्ययोगसमाधिना

तपसोग्रेण तेजस्वी तोषितस्तपसां निधि: ।।

मैंने अनन्यभावसे मनको एकाग्र करके उग्र तपस्याद्वारा उन महातेजस्वी तपस्याकी निधिरूप (प्रतापी) श्रीहरिको संतुष्ट किया था ।।

ततो मे दर्शयामास तोषयजन्निव पुत्रक

श्वेतपीतारुणनिभ: कद्रूकपिलपिड्रल: ।।

बेटा! तब मुझे संतुष्ट करते हुए-से भगवान्‌ श्रीहरिने मुझे दर्शन दिया। उनके विभिन्न अंगोंकी कान्ति श्वेत, पीत, अरुण, भूरी, कपिश और पिंगल वर्णकी थी ।।

रक्तनीलासितनिभ: सहस्रोदरपाणिमान्‌

द्विसाहस्रमहावक्त्र एकाक्ष: शतलोचन: ।।

वे लाल, नीले और काले-जैसे भी दीखते थे। उनके सहस्रों उदर और हाथ थे। उनके महान्‌ मुख दो सहस्रकी संख्यामें दिखायी देते थे। वे एक नेत्र तथा सौ नेत्रोंसे युक्त थे ।।

समासाद्य तु तं विश्वमहं मूर्ध्ना प्रणम्प

ऋग्यजु:सामभ्रि: स्तुत्वा शरण्यं शरणं गत: ।।

उन विश्वात्माको निकट पाकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और ऋक्‌, यजु:ः तथा साम-मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करके मैं उन शरणागतवत्सल देवकी शरणमें गया ।।

तेन त्वं कृतसंवाद: स्वत: सर्वहितैषिणा

विश्वरूपेण देवेन पुरुषेण महात्मना ।।

तमेवाराधय क्षिप्रं तमाराध्य सीदसि

बेटा गरुड! सबका हित चाहनेवाले उन विश्वरूपधारी अन्तर्यामी परमात्मदेवसे तुमने वार्तालाप किया है; अतः शीघ्र उन्हींकी आराधना करो। उनकी आराधना करके तुम कभी कष्टमें नहीं पड़ोगे' ।।

सो5हमेवं भगवता पित्रा ब्रह्मर्षिसत्तमा: ।।

अनुनीतो यथान्यायं स्वमेव भवनं गत:

सो5हमामन्त्रय पितरं तद्भावगतमानस: ।।

स्वमेवालयमासाद्य तमेवार्थमचिन्तयम्‌

ब्रह्मर्षिशिरोमणियो! इस प्रकार अपने पूज्य पिताके यथोचितरूपसे समझानेपर मैं अपने घरको गया। पितासे विदा ले अपने घर आकर मैं उन्हीं परमात्माके ध्यानमें मन लगाकर उन्हींका चिन्तन करने लगा ।।

तद्भावगतभावात्मा तद्भूतगतमानस: ।।

गोविन्द चिन्तयन्नास्से शाश्व॒तं परमव्ययम्‌

मेरा भावभक्तिसे युक्त मन उन्हींकी भावनामें लगा हुआ था। मेरा चित्त उनका चिन्तन करते-करते तदाकार हो गया था। इस प्रकार मैं उन सनातन अविनाशी परम पुरुष

गोविन्दके चिन्तनमें तत्पर हो बैठा रहा ।।

धृतं बभूव हृदयं नारायणदिदृक्षया ।।

सो हं वेगं समास्थाय मनोमारुतवेगवान्‌

रम्यां विशालां बदरीं गतो नारायणाश्रमम्‌ ।।

ऐसा करनेसे मेरा हृदय नारायणके दर्शनकी इच्छासे स्थिर हो गया और मैं मन एवं वायुके समान वेगशाली हो महान्‌ वेगका आश्रय ले रमणीय बदरीविशाल तीर्थमें भगवान्‌ नारायणके आश्रमपर जा पहुँचा ।।

ततस्तत्र हरिं दृष्टवा जगत: प्रभवं विभुम्‌

गोविन्द पुण्डरीकाक्षं प्रणत: शिरसा हरिम्‌ ।।

ऋग्यजु:सामभि श्वैनं तुष्टाव परया मुदा

तदनन्तर वहाँ जगत्‌की उत्पत्तिके कारणभूत सर्वव्यापी कमलनयन श्रीगोविन्द हरिका दर्शन करके मैं उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ ऋक्‌, यजु: एवं साममन्त्रोंके द्वारा उनका स्तवन किया ।।

सो5हं प्रपन्न: शरणं देवदेव॑ सनातनम्‌

प्राउजलिर्मनसा भूत्वा वाक्यमेतत्‌ तदोक्तवान्‌ ।।

तब मैं मन-ही-मन उन सनातन देवदेवकी शरणमें गया और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला-- ||

भगवन्‌ भूतभव्येश भवद्धूतकूदव्यय

शरणं सम्प्रपन्न॑ मां त्रातुमर्हस्यरिंदम ।।

“भगवन्‌! भूत और भविष्यके स्वामी, वर्तमान भूतोंके निर्माता, शत्रुदमन, अविनाशी! मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें ।।

अहं तु तत्त्वजिज्ञासु: को5सि कस्यासि कुत्र वा

सम्प्राप्त: पदवीं देव मां संत्रातुमरहसि ।।

“मैं तो “आप कौन हैं, किसके हैं और कहाँ रहते हैं? इस बातको तत्त्वसे जाननेकी इच्छा रखकर आपके चरणोंकी शरणमें आया हूँ। देव! आप मेरी रक्षा करें” ।।

श्रीभगवानुवाच

मम त्वं विदित: सौम्य यथावत्‌ तत्त्वदर्शने

ज्ञापितश्नापि यत्‌ पित्रा तच्चापि विदितं महत्‌ ।।

श्रीभगवानने कहा--सौम्य! तुम यथावत्‌्रूपसे मेरे तत्त्वका साक्षात्कार करनेके लिये सचेष्ट होओ। यह बात मुझे पहलेसे ही विदित है। तुम्हारे पिताने तुम्हें मेरे विषयमें जो कुछ ज्ञान दिया है वह सब कुछ मुझे ज्ञात है ।।

वैनतेय कस्यापि अहं वैद्य: कथंचन

मां हि विन्दन्ति विद्वांसो ये ज्ञाने परिनिष्ठिता: ।।

विनतानन्दन! किसीको भी किसी तरह मेरे स्वरूपका पूर्णतः ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञाननिष्ठ विद्वान्‌ ही मेरे विषयमें कुछ जान पाते हैं ।।

निर्ममा निरहड्कारा निराशीर्बन्धनायुता:

भवांस्तु सततं भक्तो मन्मना: पक्षिसत्तम |।

स्थूल॑ मां वेत्स्यसे तस्माज्जगत: कारणे स्थितम्‌ |

जो ममता और अहंकारसे रहित तथा कामनाओंके बन्धनसे मुक्त हैं, वे ही मुझे जान पाते हैं। पक्षिप्रवर! तुम मेरे भक्त हो और सदा ही मुझमें मन लगाये रखते हो। इसलिये जगत्‌के कारणरूपमें स्थित मेरे स्थूलस्वरूपका बोध प्राप्त करोगे ।।

युपर्ण उवाच

एवं दत्ताभयस्तेन ततो5हमृषिसत्तमा:

नष्टखेदश्रमभय: क्षणेन हाभवं तदा ।।

गरुड कहते हैं--ऋषिशिरोमणियो! इस प्रकार भगवान्‌के अभय देनेपर क्षणभरमें मेरे खेद, श्रम और भय सब नष्ट हो गये ।।

शनैर्याति भगवान्‌ गत्या लघुपराक्रम:

अहं तु सुमहावेगमास्थायानुव्रजामि तम्‌ ।।

उस समय शीघ्रगामी भगवान्‌ अपनी गतिसे धीरे-धीरे चल रहे थे और मैं महान्‌ वेगका आश्रय लेकर उनका अनुसरण करता था ।।

गत्वा दीर्घभध्वानमाकाशममित्दय्ुति:

मनसाप्यगमं देशमाससादात्मतत्त्ववित्‌ ।।

वे अमित तेजस्वी एवं आत्मतत्त्वके ज्ञाता भगवान्‌ श्रीहरि आकाशमें बहुत दूरतकका मार्ग तै करके ऐसे देशमें जा पहुँचे जो मनके लिये भी अगम्य था ।।

अथ देव: समासाद्य मनस: सदृशं जवम्‌ |

मोहयित्वा मां तत्र क्षणेनान्तरधीयत ।।

तदनन्तर भगवान्‌ मनके समान वेगको अपनाकर मुझे मोहित करके वहीं क्षणभरमें अदृश्य हो गये ।।

तत्राम्बुधरधीरेण भो:शब्देनानुनादिना

अयं भो5हमिति प्राह वाक्‍्यं वाक्यविशारद: ।।

वहाँ मेघके समान धीर-गम्भीर स्वरमें उच्चारित 'भो” शब्दके द्वारा बोलनेमें कुशल भगवान्‌ इस प्रकार बोले--'हे गरुड! यह मैं हूँ" ।।

शब्दानुसारी तु ततस्तं देशमहमाव्रजम्‌

तत्रापश्यं ततश्चाहं श्रीमद्धंसयुतं सर: ।।

मैं उसी शब्दका अनुसरण करता हुआ उस स्थानपर जा पहुँचा। वहाँ मैंने एक सुन्दर सरोवर देखा जिसमें बहुत-से हंस शोभा पा रहे थे ।।

तत्सर: समासाद्य भगवानात्मवित्तम:

भो:शब्दप्रतिसृष्टेन स्वरेणाप्रतिवादिना ।।

विवेश देव: स्वां योनिं मामिदं चाभ्यभाषत |

आत्मतत्त्वके ज्ञाताओंमें सर्वोत्तम भगवान्‌ नारायण उस सरोवरके पास पहुँचकर “भो' शब्दसे युक्त अनुपम गम्भीर स्वरसे मुझे पुकारते हुए अपने शयन-स्थान जलमें प्रविष्ट हो गये और मुझसे इस प्रकार बोले-- ।।

श्रीभगवानुवाच

विशस्व सलिल॑ सौम्य सुखमत्र वसामहे | श्रीभगवानने कहा--सौम्य! तुम भी जलमें प्रवेश करो। हम दोनों यहाँ सुखसे रहेंगे ।। युपर्ण उवाच

ततक्न प्राविशं तत्र सह तेन महात्मना

दृष्टवानद्भुततरं तस्मिन्‌ सरसि भास्वताम्‌ ।।

अग्नीनां सुप्रणीतानामिद्धानामिन्धनैर्विना

दीप्तानामाज्यसिक्तानां स्थानेष्वार्चिष्मतां सदा ।।

गरुड कहते हैं--ऋषियो! तब मैं उन महात्मा श्रीहरिके साथ उस सरोवरमें घुसा। वहाँ मैंने अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखा। भिन्न-भिन्न स्थानोंपर विधिपूर्वक स्थापित की हुई प्रज्वलित अग्नियाँ बिना ईँधनके ही जल रही थीं और घीकी आहुति पाकर उद्दीप्त हो उठी थीं।।

दीप्तिस्तेषामनाज्यानां प्राप्ताज्यानामिवा भवत्‌ |

अनिद्धानामिव सतामिद्धानामिव भास्वताम्‌ ।।

घी मिलनेपर भी उन अग्नियोंकी दीप्ति घीकी आहुति पायी हुई अग्नियोंके समान थी और बिना ईंधनके भी ईंधनयुक्त आगके तुल्य उनकी प्रभा प्रकाशित होती रहती थी ।।

अथाहं वरदं देवं नापश्यं तत्र सड़तम्‌

वहाँ जानेपर भी उन वरदायक देवता नारायण-देवका मुझे दर्शन हो सका ।।

तेषां तत्राग्निहोत्राणामीडितानां सहस्रश: ।।

समीपे त्वद्भुततममपश्यमहमव्ययम्‌ ।।

सहसौरों स्थानोंमें प्रशंसित होनेवाले उन अग्निहोत्रोंक समीप मैंने उन अद्भुत एवं अविनाशी श्रीहरिको दूँढ़ना आरम्भ किया ।।

एषु चाग्निसमीपेषु शुश्राव सुपदाक्षरा: ।।

प्रभावान्तरितानां तु प्रस्पष्टाक्षरभाषिणाम्‌ |

ऋग्‌यजु:सामगानां मधुरा: सुस्वरा गिर:

इन अग्नियोंके समीप अक्षरोंका स्पष्ट उच्चारण करनेवाले तथा अपने प्रभावसे अदृश्य रहनेवाले, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके विद्वानोंकी सुस्वर मधुर वाणी मैंने सुनी। उनके पद और अक्षर बहुत सुन्दर ढंगसे उच्चारित हो रहे थे ।।

तान्यनेकसहस्राणि परीयंस्तु महाजवात्‌ |

अपश्यमानस्तं देवं ततो5हं व्यथितो5भवम्‌ ।।

मैं बड़े वेगसे वहाँके हजारों घरोंमें घूम आया; परंतु कहीं भी अपने उन आराध्यदेवको देख सका, इससे मुझे बड़ी व्यथा हुई ।।

ततस्तेष्वग्निहोत्रेषु ज्वलत्सु विमलार्चिषु

भानुमत्सु पश्यामि देवदेवं सनातनम्‌ ।।

ततो<हं तानि दीप्तानि परीय व्यथितेन्द्रिय:

नान्‍्तं तेषां प्रपश्यामि येनाहमिह चोदित: ।।

निर्मल ज्वालाओंसे युक्त वे अग्निहोत्र पूर्ववत्‌ प्रकाशित हो रहे थे। उनके समीप भी मुझे कहीं सनातन देवाधिदेव श्रीहरि नहीं दिखायी दिये। तब मैं उन प्रदीप्त अग्निहोत्रोंकी परिक्रमा करते-करते थक गया। मेरी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं; परंतु उनका कहीं अन्त नहीं दिखायी दिया। जिन भगवानने मुझे यहाँ आनेके लिये प्रेरित किया था, उनका दर्शन नहीं हो सका ।।

एवं चिन्तासमापतन्नः प्रध्यातुमुपचक्रमे

विनयावनतो भूत्वा नमश्नक्रे महात्मने ।।

अनादिनिधनायैभिनामश्रि: परमात्मने

इस तरह चिन्तामें पड़कर मैं भगवान्‌का ध्यान करने लगा; एवं विनयसे नतमस्तक होकर मैंने निम्नांकित नामोंद्वारा आदि-अन्तसे रहित परमात्मा महामनस्वी नारायणकी वन्दना आरम्भ की-- ।।

नारायणाय शुद्धाय शाश्वताय ध्रुवाय ।।

भूतभव्यभवेशाय शिवाय शिवमूर्तये

शिवयोने: शिवाद्याय शिवपूज्यतमाय ।।

'जो शुद्ध, सनातन, ध्रुव, भूत, वर्तमान और भविष्यके स्वामी, शिवस्वरूप और मंगलमूर्ति हैं, कल्याणके उत्पत्तिस्थान हैं, शिवके भी आदिकारण तथा भगवान्‌ शिवके भी परम पूजनीय हैं, उन नारायणदेवको नमस्कार है ।।

घोररूपाय महते युगान्तकरणाय

विश्वाय विश्वदेवाय विश्वेशाय महात्मने ।।

“जो कल्पका अन्त करनेके लिये अत्यन्त घोर रूप धारण करते हैं, जो विश्वरूप, विश्वदेव, विश्वेश्वर एवं परमात्मा हैं, उन श्रीहरिको नमस्कार है ।।

सहस्रोदारपादाय सहस्रनयनाय

सहस्रबाहवे चैव सहस्रवदनाय ।।

“जिनके सहस्रों उदर, सहस्रों पैर और सहसौरों नेत्र हैं, जो सहस्रों भुजाओं और सहस्रों मुखोंसे सुशोभित हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है ।।

शुचिश्रवाय महते ऋतुसंवत्सराय

ऋग्यजु:सामवकत्राय अथर्वशिरसे नम: ।।

“जिनका यश पवित्र है, जो महान्‌ तथा ऋतु एवं संवत्सररूप हैं, ऋक्‌, यजु: और सामवेद जिनके मुख हैं तथा अथर्ववेद जिनका सिर है, उन नारायण-देवको नमस्कार है ।।

हृषीकेशाय कृष्णाय द्रुहिणोरुक्रमाय

ब्रह्मेन्द्रकाय तारक्ष्याय वराहायैकश्‌ड्िणे ।।

“जो हृषीकेश (सम्पूर्ण इन्द्रियोंके नियन्ता), कृष्ण (सच्चिदानन्दस्वरूप), द्रुहिण (ब्रह्मा), ऊरुक्रम (बहुत बड़े डग भरनेवाले त्रिविक्रम), ब्रह्मा एवं इन्द्ररूप, गरुडस्वरूप तथा एक सींगवाले वराहरूपधारी हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है ।।

शिपिविष्टाय सत्याय हरये5थ शिखण्डिने

हुतायोर्ध्वाय वक्‍त्राय रौद्रानीकाय साधवे ।।

सिन्धवे सिन्धुवर्षघ्ने देवानां सिन्धवे नम:

“जो शिपिविष्ट (तेजसे व्याप्त), सत्य, हरि और शिखण्डी (मोरपंखधारी श्रीकृष्ण) आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं, जो हुत (हविष्यको ग्रहण करनेवाले अग्निरूप), ऊर्ध्वमुख, रुद्रकी सेना, साधु, सिन्धु, समुद्रमें वर्षाका हनन करनेवाले तथा देवसिन्धु (गंगास्वरूप) हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको प्रणाम है ।।

गरुत्मते त्रिनेत्राय सुधामाय वृषावृषे ।।

सम्राडुग्रे संकृतये विरजे सम्भवे भवे |

“जो गरुडरूपधारी, तीन नेत्रोंसे युक्त (रुद्ररूप), उत्तम धामवाले, वृषावृष, धर्मपालक, सबके सम्राट, उग्ररूपधारी, उत्तम कृतिवाले, रजोगुणरहित, सबकी उत्पत्तिके कारण तथा भवरूप हैं, उन श्रीहरिको नमस्कार है ।।

वृषाय वृषरूपाय विभवे भूर्भुवाय ।।

दीप्तसृष्टाय यज्ञाय स्थिराय स्थविराय

'जो वृष (अभीष्ट वस्तुओंकी वर्षा करनेवाले), वृषरूप (धर्मस्वरूप), विभु (व्यापक) तथा भूलोक और भुवर्लोकमय हैं, जो तेजस्वी पुरुषोंद्वारा सम्पादित यज्ञरूप हैं, स्थिर हैं और स्थविररूप (वृद्ध) हैं, उन भगवान्‌को नमस्कार है ।।

अच्युताय तुषाराय वीराय समाय ।।

जिष्णवे पुरुहृताय वशिष्ठाय वराय

“जो अपनी महिमासे कभी च्युत नहीं होते, हिमके समान शीतल हैं, जिनमें वीरत्व है, जो सर्वत्र समभावसे स्थित हैं, विजयशील हैं, जिन्हें बहुत लोग पुकारते हैं अथवा जो इन्द्ररूप हैं तथा जो सर्वश्रेष्ठ वसिष्ठ हैं, उन भगवान्‌को नमस्कार है ।।

सत्येशाय सुरेशाय हरयेडथ शिखण्डिने ।।

बर्हिषाय वरेण्याय वसवे विश्ववेधसे

'जो सत्य और देवताओंके स्वामी हैं, हरि (श्यामसुन्द) और शिखण्डी (मोरमुकुटधारी) हैं, जो कुशापर बैठनेवाले सर्वश्रेष्ठ वसुरूप हैं, उन विश्वस्रष्टा भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है ।।

किरीटिने सुकेशाय वासुदेवाय शुष्मिणे ।।

बृहदुक्थसुषेणाय युग्ये दुन्दुभये तथा

जो किरीटधारी, सुन्दर केशोंसे सुशोभित तथा पराक्रमी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णरूप हैं, बृहदुक्थ साम जिनका स्वरूप है, जो सुन्दर सेनासे युक्त हैं, जुएका भार सँभालनेवाले वृषभरूप हैं तथा दुन्दुभि नामक वाद्यविशेष हैं, उन भगवान्‌को नमस्कार है ।।

भवेसखाय विभवे भरद्वाजाभयाय ।।

भास्कराय वरेन्द्राय पद्मना भाय भूरिणे

“जो इस जगतमें जीवमात्रके सखा हैं, व्यापकरूप हैं, भरद्वाजको अभय देनेवाले हैं, सूर्यरूपसे प्रभाका विस्तार करनेवाले हैं, श्रेष्ठ पुरुषोंके स्वामी हैं, जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है और जो महान्‌ हैं, उन भगवान्‌ नारायणको नमस्कार है ।।

पुनर्वसुभूतत्वाय जीवप्रभविषाय ।।

वषट्काराय स्वाहायै स्वधायै निधनाय

ऋचे यजुषे साम्ने त्रैलोक्यपतये नमः ।।

'जो पुनर्वसु नामक नक्षत्रसे पालित और जीवमात्रकी उत्पत्तिके स्थान हैं, वषट्कार, स्वाहा, स्वधा और निधन--ये जिनके ही नाम और रूप हैं तथा जो ऋक्‌, यजुष्‌, सामवेद- स्वरूप हैं और त्रिलोकीके अधिपति हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको मेरा प्रणाम है ।।

श्रीपदड्मायात्मसदृशे धरणे धारणे परे

सौम्याय सौम्यरूपाय सौम्ये सुमनसे नमः ।।

“जो शोभाशाली कमलको हाथमें लिये रहते हैं, जो अपने समान स्वयं ही हैं, जो धारण करने और करानेवाले परम पुरुष हैं, जो सौम्य, सौम्यरूपधारी तथा सौम्य एवं सुन्दर मनवाले हैं, उन श्रीहरिको नमस्कार है ।।

विश्वाय सुविश्वाय विश्वरूपधराय

केशवाय सुकेशाय रश्मिकेशाय भूरिणे ।।

'जो विश्वरूप, सुन्दर विश्वके निर्माता तथा विश्वरूपधारी हैं, जो केशव, सुन्दर केशोंसे युक्त किरणरूपी केशवाले और अधिक बलशाली हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको मेरा प्रणाम

है ।।

हिरण्यगर्भाय नम: सौम्याय वृषरूपिणे

नारायणाग्रवपुषे पुरुहृताय वज्िणे ।।

धर्मिणे वृषसेनाय धर्मसेनाय रोधसे

“जो हिरण्यगर्भ, सौम्य, वृषरूपधारी, नारायण, श्रेष्ठ शरीरधारी, पुरुहृत (इन्द्र) तथा वज्र धारण करनेवाले हैं, जो धर्मात्मा, वृषसेन, धर्मसेन तथा तटरूप हैं, उन भगवान्‌ श्रीहरिको नमस्कार है ।।

मुनये ज्वरमुक्ताय ज्वराधिपतये नम: ।।

अनेत्राय त्रिनेत्राय पिड्लाय विडूूर्मिणे |

“जो मननशील मुनि, ज्वर आदि रोगोंसे मुक्त तथा ज्वरके अधिपति हैं, जिनके नेत्र नहीं हैं अथवा जिनके तीन नेत्र हैं, जो पिंगलवर्णवाले तथा प्रजारूपी लहरोंकी उत्पत्तिके लिये महासागरके समान हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है ।।

तपोब्रह्म॒निधानाय युगपर्यायिणे नमः ।।

शरणाय शरण्याय शक्तेष्शशरणाय

नम: सर्वभवेशाय भूतभव्यभवाय ।।

“जो तप और वेदकी निधि हैं, बारी-बारीसे युगोंका परिवर्तन करनेवाले हैं, सबके शरणदाता, शरणागतवत्सल और शक्तिशाली पुरुषके लिये अभीष्ट आश्रय हैं, सम्पूर्ण संसारके अधीश्वर एवं भूत, वर्तमान और भविष्यरूप हैं, उन भगवान्‌ नारायणको नमस्कार है ।।

पाहि मां देवदेवेश को5प्यजोडसि सनातन

एवं गतो5सि शरणं शरण्यं ब्रह्मयोनिनाम्‌ ।।

“देवदेवेश्वर! आप मेरी रक्षा करें। सनातन परमात्मन्‌! आप कोई अनिर्वचनीय अजन्मा पुरुष हैं, ब्राह्मणोंके शरणदाता हैं; मैं इस संकटमें पड़कर आपकी ही शरण लेता हूँ ।।

स्तव्यं स्तवं स्तुतवतस्तत्‌ तमो मे प्रणश्यत

शृणोमि गिरं दिव्यामन्तर्धानगतां शिवाम्‌ |

इस प्रकार स्तवनीय परमेश्वरकी स्तुति करते ही मेरा वह सारा दुःख नष्ट हो गया। तत्पश्चात्‌ मुझे किसी अदृश्य शक्तिके द्वारा कही हुई यह मंगलमयी दिव्य वाणी सुनायी दी ।।

श्रीभगवानुवाच

मा भैर्गरुत्मन्‌ दान्तो$सि पुन: सेन्द्रानू दिवौकस: ।। स्वं चैव भवन गत्वा द्रक्ष्यसे पुत्रबान्धवान्‌

श्रीभगवान्‌ बोले--गरुड! तुम डरो मत। तुमने मन और इन्द्रियोंको जीत लिया है। अब तुम पुनः इन्द्र आदि देवताओंके सहित अपने घरमें जाकर पुत्रों और भाई-बन्धुओंको देखोगे ।।

युपर्ण उवाच

ततस्तस्मिन्‌ क्षणेनैव सहसैव महाद्युति: ।।

प्रत्यदृश्यत तेजस्वी पुरस्तात्‌ ममान्तिके

गरुडजी कहते हैं--मुनियो! तदनन्तर उसी क्षण वे परम कान्तिमान्‌ तेजस्वी नारायण सहसा मेरे सामने अत्यन्त निकट दिखायी दिये ।।

समागम्य ततस्तेन शिवेन परमात्मना ।।

अपश्य॑ चाहमायान्तं नरनारायणाश्रमे

चतुर्द्धिगुणविन्यासं तं देव॑ं सनातनम्‌ ।।

तब उन मंगलमय परमात्मासे मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर मैंने देखा, वे आठ भुजाओंवाले सनातनदेव पुन: नर-नारायणके आश्रमकी ओर रहे हैं ।।

यजततस्तानृषीन्‌ देवान्‌ वदतो ध्यायतो मुनीन्‌ |

युक्तान्‌ सिद्धान्‌ नैष्ठिकांकश्ष जपतो यजतो गृहीन्‌ ।।

वहाँ मैंने देखा, ऋषि यज्ञ कर रहे हैं, देवता बातें कर रहे हैं, मुनिलोग ध्यानमें मग्न हैं, योगयुक्त सिद्ध और नैछ्लिक ब्रह्मचारी जप करते हैं तथा गृहस्थलोग यज्ञोंके अनुष्ठानमें संलग्न हैं ।।

पुष्पपूरपरिक्षिप्तं धूपितं दीपितं हितम्‌

वन्दितं सिक्तसम्मृष्टं नरनारायणाश्रमम्‌ ।।

नर-नारायणका आश्रम धूपसे सुगन्धित और दीपसे प्रकाशित हो रहा था। वहाँ चारों ओर ढेर-के-ढेर फूल बिखरे हुए थे। वह आश्रम सबके लिये हितकर एवं सत्पुरुषोंद्वारा वन्दित था। झाड़-बुहारकर स्वच्छ बनाया और सींचा गया था ।।

तदद्भुतमहं दृष्टवा विस्मितो5स्मि तदानघा:

जगाम शिरसा देवं प्रयतेनान्तरात्मना ।।

निष्पाप मुनियो! उस अदभुत दृश्यको देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ और मैंने पवित्र एवं एकाग्र हृदयसे मस्तक झुकाकर उन भगवान्‌की शरण ली ।।

तदत्यद्भधुतसंकाशं किमेतदिति चिन्तयन्‌

नाध्यगच्छ परं दिव्यं तस्य सर्वभवात्मन: ।।

वह सब अदभुत-सा दृश्य क्या था, यह बहुत सोचनेपर भी मेरी समझमें नहीं आया। सबकी उत्पत्तिके कारणभूत उन परमात्माके परम दिव्य भावको मैं नहीं समझ सका ।।

प्रणिपत्य सुदुर्धर्ष पुन: पुनरुदीक्ष्य

शिरस्यञ्जलिमाधाय विस्मयोत्फुल्ललोचन: ।।

अवोचं तमदीनार्थ श्रेष्ठानां श्रेष्ठमुत्तमम्‌

उन दुर्जय परमात्माको बारंबार प्रणाम करके उनकी ओर देखकर मेरे नेत्र आश्वर्यसे खिल उठे और मैंने मस्तकपर अंजलि बाँधे उन श्रेष्ठ पुरुषोंमें भी सर्वश्रेष्ठ एवं उदार पुरुषोत्तमसे कहा-- |।

नमस्ते भगवन्‌ देव भूतभव्यभवत्प्रभो ।।

यदेतदद्धुतं देव मया दृष्ट॑ त्वदाश्रयम्‌

अनादिमध्यपर्यन्तं कि तच्छंसितुमर्हसि ।।

“भूत, वर्तमान और भविष्यके स्वामी भगवान्‌ नारायणदेव! आपको नमस्कार है। देव! मैंने आपके आश्रित जो यह अद्भुत दृश्य देखा है, इसका कहीं आदि, मध्य और अन्त नहीं है। वह सब क्या है, यह बतानेकी कृपा करें ।।

यदि जानासि मां भक्त यदि वानुग्रहो मयि

शंस सर्वमशेषेण श्रोतव्यं यदि चेन्मया ।।

“यदि आप मुझे अपना भक्त समझते हैं अथवा यदि आपका मुझपर अनुग्रह है तो यह सब यदि मेरे सुननेयोग्य हो तो पूर्णरूपसे बताइये ।।

स्वभावस्तव दुर्ज्ञेय: प्रादुर्भावो5भवस्य

भवद्धूतभविष्येश सर्वथा गहनो भवान्‌ ।।

“आपका स्वभाव दुर्ज़्य है। आप अजन्मा परमेश्वरका प्रादुर्भाव भी समझमें आना कठिन है। भूत, वर्तमान और भविष्यके स्वामी नारायण! आप सर्वथा गहन (अगम्य) हैं ।।

ब्रूहि सर्वमशेषेण तदाश्चर्य महामुने

किं तदत्यद्धुतं वृत्तं तेष्वग्निषु समन्‍्ततः ।।

“महामुने! वह सारा आश्चर्यजनक एवं अदभुत वृत्तान्त जो उन अग्नियोंके चारों ओर देखा गया, क्या था? यह पूर्णरूपसे बतानेकी कृपा करें ।।

कानि तान्यग्निहोत्राणि केषां शब्द: श्रुतो मया

शृण्वतां ब्रह्म सततमदृश्यानां महात्मनाम्‌ ।।

“वे अग्निहोत्र कौन थे? निरन्तर वेदोंका श्रवण और पाठ करनेवाले वे अदृश्य महात्मा कौन थे, जिनका शब्दमात्र मैंने सुना था? ।।

एतन्मे भगवन्‌ कृष्ण ब्रूहि सर्वमशेषत:

गृणन्त्यग्निसमीपेषु के ते ब्रह्मराशय: ।।

“भगवान्‌ श्रीकृष्ण! यह सब आप पूर्णरूपसे मुझे बताइये। जो लोग अग्निके समीप वेदोंका पारायण कर रहे थे, वे ब्राह्मणसमूह महात्मा कौन थे?” ।।

श्रीभगवानुवाच

मां देवा गन्धर्वा पिशाचा राक्षसा:

विदुस्तत्त्वेन तत्त्वस्थं सूक्ष्मात्मानमवस्थितम्‌ ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--गरुड! मुझे तो देवता, गन्धर्व, पिशाच और राक्षस ही तत्त्वसे जानते हैं। मैं सम्पूर्ण तत्त्वोंमें उनके सूक्ष्म आत्मारूपसे अवस्थित हूँ ।।

चतुर्धाहं विभक्तात्मा लोकानां हितकाम्यया

भूतभव्यभविष्यादिरनादिर्विश्वकृत्तम: ।।

लोकोंके हितकी कामनासे मैंने अपने आपको चार स्वरूपोंमें विभक्त कर रखा है। मैं भूत, वर्तमान और भविष्यका आदि हूँ। मेरा आदि कोई नहीं है। मैं ही सबसे बड़ा विश्वस्रष्टा हूँ ।।

पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्न पठचमम्‌

मनो बुद्धिश्न तेजश्च॒ तमः सत्त्वं रजस्तथा ।।

प्रकृतिरविकृतिश्नेति विद्याविद्ये शुभाशुभे

मत्त एतानि जायन्ते नाहमेभ्य: कथंचन ।।

पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, मन, बुद्धि, तेज (अहंकार), सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, प्रकृति, विकृति, विद्या, अविद्या तथा शुभ और अशुभ--ये सब मुझसे ही उत्पन्न होते हैं। मैं इनसे किसी प्रकार उत्पन्न नहीं होता ।।

यत्‌ किंचिच्छेयसा युक्त: श्रेष्ठभावं व्यवस्यति

धर्मयुक्तं पुण्यं सो5हमस्मि निरामय: ।।

मनुष्य कल्याणभावनासे युक्त हो जिस किसी पवित्र, धर्मयुक्त एवं श्रेष्ठ भावका निश्चय करता है वह सब मैं निरामय परमेश्वर ही हूँ ।।

यः स्वभावात्मतत्त्वजै: कारणैरुपलक्ष्यते

अनादिमध्यनिधन: सोडन्‍्तरात्मास्मि शाश्वत: ।।

स्वभाव एवं आत्माके तत्त्वको जाननेवाले पुरुष विभिन्न हेतुओंद्वारा जिसका साक्षात्कार करते हैं, वह आदि, मध्य और अन्तसे रहित सर्वान्तरात्मा सनातन पुरुष मैं ही हूँ ।।

यत्‌ तु मे परम॑ गुहां रूप॑ सूक्ष्मार्थदर्शिभि:

गृह्ते सूक्ष्मभावज्जै: विभाव्यो5स्मि शाश्वत: ।।

सूक्ष्म अर्थको देखने और समझनेवाले तथा सूक्ष्मभावको जाननेवाले ज्ञानी पुरुष मेरे जिस परम गुह्य रूपको ग्रहण करते हैं, वह चिन्तनीय सनातन परमात्मा मैं ही हूँ ।।

यत्‌ तु मे परमं गुह्ां येन व्याप्तमिदं जगत्‌

सो<हं गत: सर्वसत्त्व: सर्वस्य प्रभवो5प्यय: ।।

जो मेरा परम गुह् रूप है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌ व्याप्त है, वह सर्वसत्त्वरूप परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही सबका अविनाशी कारण हूँ ।।

मत्तो जातानि भूतानि मया धार्यन्त्यहर्निशम्‌

मय्येव विलयं यान्ति प्रलये पन्नगाशन ।।

गरुड! सम्पूर्ण भूत प्राणी मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, मेरे ही द्वारा वे अहर्निश जीवन धारण करते हैं और प्रलयके समय सब-के-सब मुझमें ही लीन हो जाते हैं।

यो मां यथा वेदयति तस्य तस्यास्मि काश्यप

मनोबुद्धिगत: श्रेयो विदधामि विहजड्भम ।।

काश्यप! जो मुझे जैसा जानता है, उसके लिये मैं वैसा ही हूँ। विहंगम! मैं सभीके मन और बुद्धिमें रहकर सबका कल्याण करता हूँ ।।

मां तु ज्ञातुं कृता बुद्धिर्भवता पक्षिसत्तम |

शृणु यो5हं यतश्चाहं यदर्थ चाहमुद्यत:ः ।।

पक्षिप्रवर! तुमने मेरे तत््वको जाननेका विचार किया था; अतः मैं कौन हूँ? कहाँसे आया हूँ? और किस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये उद्यत हुआ हूँ? यह सब बताता हूँ, सुनो ।।

ये केचिन्नियतात्मानस्त्रेताग्निपरमा द्विजा:

अग्निकार्यपरा नित्यं जपहोमपरायणा: ।।

आत्मन्यग्नीन्‌ समाधाय नियता नियतेन्द्रिया:

अनन्यमनसस्ते मां सर्वे वै समुपासते ।।

यजन्तो जपयज़ैर्मा मानसैश्न सुसंयता:

अग्नीनश्युद्ययु: शश्वदग्निष्वेवाभिसंस्थिता: ।।

अनन्यकार्या: शुचयो नित्यमग्निपरायणा:

एवं बुद्धयो धीरास्ते मां गच्छन्ति तादृशा: ।।

जो कोई ब्राह्मण अपने मनको वशमें करके त्रिविध अग्नियोंकी उपासना करते हैं, नित्य अन्निहोत्रमें तत्रर और जप-होममें संलग्न हैं, जो नियमपूर्वक रहकर अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अपने-आपमें ही अग्नियोंका आधान कर लेते हैं तथा सब-के-सब अनन्यचित्त होकर मेरी ही उपासना करते हैं, जो अपनेको पूर्ण संयममें रखकर जप, यज्ञ और मानसयज्ञोंद्वारा मेरी आराधना करते हैं, जो सदा अग्निहोत्रमें ही तत्यर रहकर अग्नियोंका स्वागत करते हैं तथा अन्य कार्यमें रत होकर शुद्धभावसे सदा अग्निकी परिचर्या करते हैं; ऐसी बुद्धिवाले धीर पुरुष वैसे भक्तिभावसे सम्पन्न होते हैं, वे मुझे प्राप्त कर लेते हैं ।।

अकामहतसंकल्तपा ज्ञाने नित्यं समाहिता:

आत्मन्यग्नीन्‌ समाधाय निराहारा निराशिष: ।।

विषयेषु निरारम्भा विमुक्ता ज्ञानचक्षुष:

अनन्यमनसो धीरा: स्वभावनियमान्विता: ।।

जिन्होंने निष्कामभावके द्वारा अपने सारे संकल्पोंको नष्ट कर दिया है, जो सदा ज्ञानमें ही चित्तको एकाग्र किये रहते हैं और अग्नियोंको अपने आत्मामें ही स्थापित करके आहार

(भोग) और कामनाओंका त्याग कर देते हैं, विषयोंकी उपलब्धिके लिये जिनकी कोई प्रवृत्ति नहीं होती, जो सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त एवं ज्ञानदृष्टिसे सम्पन्न हैं, वे स्‍्वभावतः नियमपरायण एवं अनन्यचित्तसे मेरा चिन्तन करनेवाले धीर पुरुष मुझे ही प्राप्त होते हैं ।।

यत्‌ तद्‌ वियति दृष्टं तत्‌ सर: पद्मोत्पलायुतम्‌

तत्राग्नय: संनिहिता दीप्यन्ते सम निरिन्धना: ।।

तुमने जो आकाशमें कमल और उत्पलसे भरा हुआ सुन्दर सरोवर देखा था, उसके समीप स्थापित हुई अग्नियाँ बिना ईंधनके ही प्रज्वलित होती हैं ।।

ज्ञानामलाशयास्तस्मिन्‌ ये चन्द्रांशुनिर्मला:

उपासीना गृणन्तो<ग्निं प्रस्पष्टाक्षभाषिण: ।।

आकाडुक्षमाणा: शुचयस्तेष्वग्निषु विहज्भम |

जिनके अन्तःकरण ज्ञानके प्रकाशसे निर्मल हो गये हैं, जो चन्द्रमाकी किरणोंके समान उज्ज्वल हैं, वे ही वहाँ स्पष्ट अक्षरका उच्चारण करते हुए वेदमन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक अग्निकी उपासना करते हैं। विहंगम! वे पवित्रभावसे रहकर उन अग्नियोंकी परिचर्याकी ही इच्छा रखते हैं ।।

ये मया भावितात्मानो मस्येभिरता: सदा ।।

उपासते मामेव ज्योतिर्भूता निरामया:

तै्हि तत्रेव वस्तव्यं नीरागात्मभिरच्युतै: ।।

मेरा चिन्तन करनेके कारण जिनका अन्तःकरण पवित्र हो गया है, जो सदा मेरी ही उपासनामें रत हैं, वे ही वहाँ रोग-शोकसे रहित एवं ज्योति:स्वरूप होकर मेरी ही उपासना किया करते हैं। वे अपनी मर्यादासे कभी च्युत होकर वीतराग हृदयसे सदा वहीं निवास करेंगे ।।

निराहारा हानिष्यन्दाश्वन्द्रांशुसदृशप्रभा:

निर्मला निरहंकारा निरालम्बा निराशिष: ।।

मद्धक्ता: सततं ते वै भक्तस्तानपि चाप्यहम्‌ |

उनकी अंगकान्ति चन्द्रमाकी किरणोंके समान उज्ज्वल है। वे निराहार, श्रमविन्दुओंसे रहित, निर्मल, अहंकारशून्य, आलम्बनरहित और निष्काम हैं। उनकी सदा मुझमें भक्ति बनी रहती है तथा मैं भी उनका भक्त (प्रेमी) बना रहता हूँ ।।

चतुर्धाहं विभक्तात्मा चरामि जगतो हितः ।।

लोकानां धारणार्थाय विधानं विद्धामि

यथावत्तदशेषेण श्रोतुमहति मे भवान्‌ ।।

मैं अपनेको चार स्वरूपोंमें विभक्त करके जगत्‌के हितसाधनमें तत्पर हो विचरता रहता हूँ। सम्पूर्ण लोक जीवित एवं सुरक्षित रहें--इसके लिये मैं विधान बनाता हूँ। वह सब तुम यथार्थरूपसे सुननेके अधिकारी हो ।।

एका मूर्तिर्निर्गुणाख्या योगं परममास्थिता

द्वितीया सृजते तात भूतग्रामं चराचरम्‌ ।।

तात! मेरी एक निर्गुण मूर्ति है जो परम योगका आश्रय लेकर रहती है। दूसरी वह मूर्ति है जो चराचर प्राणिसमुदायकी सृष्टि करती है ।।

सृष्ट संहरते चैका जगत्‌ स्थावरजड्रमम्‌ |

जातात्मनिष्ठा क्षपयन्‌ मोहयन्निव मायया ।।

तीसरी मूर्ति स्थावर-जड़म जगत्‌का संहार करती है और चौथी मूर्ति आत्मनिष्ठ है, जो आसुरी शक्तियोंको मायासे मोहित-सी करके उन्हें नष्ट कर देती है ।।

क्षिपन्ती मोहयन्ती ह्यात्मनिष्ठा स्वमायया

चतुर्थी मे महामूर्तिर्जगद्वृद्धिं ददाति सा ।।

रक्षते चापि नियता सो5हमस्मि नभश्षर